कोटे में कोटा : जानिए सब कुछ और क्या है मामले की जड़

Supreme Court Verdict: मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 बहुमत से माना कि राज्यों द्वारा एससी और एसटी के आगे उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जा सकती है, ताकि इन समूहों के अंदर अधिक पिछड़ी जातियों को कोटा दिया जा सके।

Neel Mani Lal
Written By Neel Mani Lal
Published on: 1 Aug 2024 10:37 AM GMT (Updated on: 1 Aug 2024 11:04 AM GMT)
Supreme Court decision States have the right to sub-classify Scheduled Castes and Scheduled Tribes
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कोटे में कोटा : जानिए सब कुछ और क्या है मामले की जड़: Photo- Social Media

Supreme Court Verdict: सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का उप-वर्गीकरण करने का अधिकार है, ताकि अधिक वंचित जातियों को ऊपर उठाने के लिए आरक्षित श्रेणी के अंदर कोटा दिया जा सके।

क्या है फैसला?

  • एससी एसटी आरक्षण के भीतर भी उनकी अन्य जातियों का अलग कोटा हो सकता है।
  • राज्यों को एससी एसटी के भीतर ‘क्रीमी लेयर’ की पहचान करनी होगी और उन्हें आरक्षण से बाहर करना होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने एससी और एसटी के भीतर आगे के उप-वर्गीकरण पर फैसला सुनाते हुए यह टिप्पणी की।

मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 6:1 बहुमत से माना कि राज्यों द्वारा एससी और एसटी के आगे उप-वर्गीकरण की अनुमति दी जा सकती है, ताकि इन समूहों के अंदर अधिक पिछड़ी जातियों को कोटा दिया जा सके। पीठ ने छह अलग-अलग फैसले सुनाए। बहुमत के फैसले में कहा गया कि उप-वर्गीकरण का आधार राज्यों द्वारा डेटा द्वारा उचित ठहराया जाना चाहिए। वो अपनी मर्जी से काम नहीं कर सकते।

कौन कौन था पीठ में

इस पीठ में चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ के अलावा न्यायमूर्ति बीआर गवई, विक्रम नाथ, बेला एम त्रिवेदी, पंकज मिथल, मनोज मिश्रा और सतीश चंद्र मिश्रा भी शामिल थे। यह पीठ 23 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें पंजाब सरकार द्वारा पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले को चुनौती देने वाली मुख्य याचिका भी शामिल थी।

एक असहमत निर्णय

मुख्य न्यायाधीश ने अपने और न्यायमूर्ति मिश्रा के लिए निर्णय लिखा। चार न्यायाधीशों ने सहमति जताते हुए निर्णय लिखे, जबकि न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने असहमति जताई। आखिर मामला था क्या?

पंजाब की अधिसूचना

  • हुआ ये कि 1975 में पंजाब सरकार ने उस समय अपने 25 फीसदी एससी आरक्षण को दो श्रेणियों में विभाजित करते हुए एक अधिसूचना जारी की। पहली श्रेणी में, सीटें केवल बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के लिए आरक्षित थीं, जिन्हें राज्य में सबसे अधिक आर्थिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े समुदायों में से माना जाता था। नीति के तहत उन्हें शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार में आरक्षण के लिए पहली वरीयता दी जानी थी। दूसरी श्रेणी में बाकी एससी समुदाय शामिल थे।

आंध्र का कानून

  • पंजाब की यह अधिसूचना लगभग 30 वर्षों तक लागू रही लेकिन यह कानूनी बाधाओं में तब फंस गई जब 2004 में सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आंध्र प्रदेश द्वारा 2000 में पेश किए गए एक इसी प्रकार के कानून को रद्द कर दिया। इस मामले को ई.वी. चिन्नैया कहा जाता है क्योंकि उन्हीं ने इसे चुनौती दी थी।
  • आंध्र प्रदेश के कानून को सर्वोच्च न्यायालय ने समानता के अधिकार का उल्लंघन माना। और आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 रद्द कर दिया। इस कानून में राज्य में अनुसूचित जाति समुदायों की एक विस्तृत सूची और उनमें से हर एक को प्रदान किए जाने वाले आरक्षण लाभों का कोटा शामिल था।
  • आंध्र के केस में शीर्ष न्यायालय ने माना कि उप-वर्गीकरण इस श्रेणी के भीतर समुदायों के साथ अलग-अलग व्यवहार करके समानता के अधिकार का उल्लंघन करेगा। कोर्ट ने कहा कि एससी सूची को एकल और समान समूह के रूप में माना जाना चाहिए। कोर्ट का तर्क यह था कि चूंकि संविधान कुछ जातियों को एक अनुसूची में वर्गीकृत करता है क्योंकि उन्हें ऐतिहासिक रूप से अस्पृश्यता के कारण भेदभाव का सामना करना पड़ा है, इसलिए उनके साथ एक-दूसरे से अलग व्यवहार नहीं किया जा सकता है।
  • शीर्ष न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 341 की ओर भी ध्यान आकर्षित किया, जो राष्ट्रपति को आरक्षण के उद्देश्य के लिए एससी समुदायों की सूची बनाने की शक्ति देता है। कोर्ट ने माना कि इसका मतलब है कि राज्यों के पास उप-वर्गीकरण के माध्यम से इस सूची में "हस्तक्षेप" या "परेशान" करने की शक्ति नहीं है।

पंजाब में हाई कोर्ट का आदेश

  • आंध्र प्रदेश के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के दो साल बाद 2006 में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने डॉ. किशन पाल बनाम पंजाब राज्य में 1975 की अधिसूचना को रद्द कर दिया।
  • उच्च न्यायालय द्वारा अधिसूचना को रद्द करने के चार महीने बाद अक्टूबर 2006 में पंजाब सरकार ने पंजाब अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग (सेवाओं में आरक्षण) अधिनियम, 2006 पारित करके कानून को वापस लाने का प्रयास किया। इस अधिनियम ने बाल्मीकि और मज़हबी सिख समुदायों के लिए आरक्षण में पहली वरीयता को फिर से लागू किया।
  • 2010 में उच्च न्यायालय ने एक बार फिर इस प्रावधान को रद्द कर दिया। इसके बाद पंजाब सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।
  • 2014 में दविंदर सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ को यह तय करने के लिए भेजा कि क्या 2004 के ई.वी. चिन्नैया निर्णय पर पुनर्विचार की आवश्यकता है, क्योंकि इसमें कई संवैधानिक प्रावधानों के परस्पर प्रभाव की जांच की आवश्यकता थी। संविधान की व्याख्या के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ की आवश्यकता होती है।

ई.वी. चिन्नैया के फैसले पर पुनर्विचार

  • 2020 में सुप्रीमकोर्ट के न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने माना कि उप-वर्गीकरण के खिलाफ न्यायालय के 2004 के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। फैसले में कहा गया कि न्यायालय और राज्य "मूक दर्शक बनकर कठोर वास्तविकताओं से अपनी आँखें बंद नहीं कर सकते।"
  • इस निर्णय में इस आधार पर असहमति जताई गई कि अनुसूचित जातियां एक समरूप समूह हैं और कहा गया कि "अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों की सूची में असमानताएं हैं।"

क्रीमी लेयर का मसला

  • महत्वपूर्ण बात यह है कि ई.वी. चिन्नैया के निर्णय के बाद से, "क्रीमी लेयर" (जो ओबीसी आरक्षण में मौजूद है) की अवधारणा भी एससी आरक्षण में आ गई है।
  • जरनैल सिंह बनाम लक्ष्मी नारायण गुप्ता में 2018 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने एससी के भीतर "क्रीमी लेयर" को बरकरार रखा था। क्रीमी लेयर का विचार आरक्षण के लिए पात्र लोगों पर आय की सीमा लगाता है। इसे पहली बार 2018 में एससी की पदोन्नति पर लागू किया गया था।
  • राज्यों ने तर्क दिया है कि जातियों का उप वर्गीकरण दरअसल क्रीमी लेयर फॉर्मूले का एक अनुप्रयोग है, जहां अनुसूचित जाति की सूची से बेहतर जातियों को बाहर करने के बजाय, राज्य सिर्फ सबसे वंचित जातियों को तरजीह दे रहा है।

नया क्या हुआ?

  • चूंकि दविंदर सिंह मामले की बेंच भी ई वी चिन्नैया केस के समान पांच जजों की थी इसलिए अब सात जजों की एक बड़ी बेंच ने इस मुद्दे पर सुनवाई की क्योंकि सिर्फ एक बड़ी बेंच का फैसला एक छोटी बेंच के फैसले पर हावी हो सकता है।
  • नए फैसले के तहत पंजाब में बाल्मीकि और मज़हबी सिखों और आंध्र प्रदेश में मडिगा के अलावा, बिहार में पासवान, यूपी में जाटव और तमिलनाडु में अरुंधतिर भी उप-वर्गीकरण रणनीति से प्रभावित होंगे।
  • सुप्रीमकोर्ट में सुनवाई के दौरान पंजाब के एडवोकेट जनरल गुरमिंदर सिंह ने तर्क दिया कि ई.वी. चिन्नैया केस में यह कहते हुए गलती की गई थी कि राज्य अनुच्छेद 341 के तहत राष्ट्रपति सूची में शामिल वर्गों के साथ छेड़छाड़ नहीं कर सकते। संविधान के अनुच्छेद 16(4) में इस्तेमाल की गई भाषा पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने बताया कि यह अनुच्छेद राज्य को पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण प्रदान करने की अनुमति देता है, जिनका राज्य सेवाओं में "पर्याप्त प्रतिनिधित्व" नहीं है। गुरमिंदर सिंह ने तर्क दिया कि चूंकि इस्तेमाल किया गया वाक्यांश "पर्याप्त रूप से" है न कि "समान रूप से", इसलिए राष्ट्रपति सूची में शामिल प्रत्येक समुदाय को समान अवसर प्रदान करने की कोई बाध्यता नहीं है।
  • पंजाब के अतिरिक्त महाधिवक्ता शादान फरासत ने कहा कि संविधान में हाल ही में शामिल किए गए अनुच्छेद 342ए ने यह स्पष्ट कर दिया है कि चिन्नैया निर्णय अब लागू नहीं हो सकता। यह प्रावधान विशेष रूप से राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की एक सूची बनाए रखने का अधिकार देता है जो राष्ट्रपति की सूची से अलग हो सकती है।

उप-वर्गीकरण के बिना समाज के सबसे कमज़ोर वर्ग पीछे छूट जाएंगे, जिससे आरक्षण का मूल उद्देश्य ही विफल हो जाएगा।

Shashi kant gautam

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