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ट्राई ने की नेट न्यूट्रिलिटी के बुनियादी सिद्धांतों को बरकरार रखने की सिफारिश

raghvendra
Published on: 8 Dec 2017 7:19 AM GMT
ट्राई ने की नेट न्यूट्रिलिटी के बुनियादी सिद्धांतों को बरकरार रखने की सिफारिश
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ट्राई (भारतीय दूरसंचार नियामक) ने आजाद या सबको समान रूप से सुलभ इंटरनेट यानी नेट न्यूट्रिलिटी के बुनियादी सिद्धांतों को बरकरार रखने की सिफारिश की है। साल भर के विचार-विमर्श के बाद ट्राई ने इंटरनेट सेवा देनेवाली कंपनियों की ऐसी हरकतों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की है, जो मुनाफे के लिए इंटरनेट इस्तेमाल में रुकावट या स्पीड में कमी-तेजी करते हैं। लब्बोलुआब यह कि वेबसाइटों तक आम उपभोक्ताओं की पहुँच सीमित करने की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती।

अगर इन सिफारिशों को स्वीकार किया जाता है तो इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स किसी वेब ट्रैफिक को न तो ब्लॉक कर सकेंगे और न ही उनको भुगतान के आधार पर तेज इंटरनेट की सुविधा दे सकेंगे। यह रोक कंप्यूटर, लैपटाप व मोबाइल फोनों समेत सभी माध्यमों पर लागू होगी, यानी टेलिकॉम ऑपरेटर इंटरनेट पर सेवाओं के लिए भेदभावपूर्ण रवैया नहीं अपना पाएंगे।

इसके अलावा ट्राई ने कंपनियों के लाइसेंसिंग नियमों में भी बदलाव की वकालत की है ताकि सामग्री के आधार पर इंटरनेट तक पहुंच के मामले में कोई भेदभाव नहीं किया जा सके बहरहाल, भारत में नेट न्यूट्रिलिटी के बारे में अभी कोई कानून नहीं है ट्राई की साफारिश के बाद अब इसे लेकर कानून बनेगा ताकि टेलीकॉम कंपनियां अपनी मनमानी न कर सकें इसके बाद इंटरनेट प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार बन जाएगा।

नेट न्यूट्रिलिटी है क्या

नेट न्यूट्रिलिटी वह सिद्धांत है जिसके तहत यह माना जाता है कि इंटरनेट सर्विस प्रदान करने वाली कंपनियां इंटरनेट पर हर तरह के डेटा को एक जैसा दर्जा देंगी। और सभी इस्तेमालकर्ताओं को सामान मानेंगीढ्ढ ऐसा होना चाहिए कि सर्विस प्रोवाइडर्स और सरकारें इन्टरनेट सामग्री, वेबसाइट, प्लेटफॉर्म या संचार की तरकीब के आधार पर कोई भेदभावपूर्ण रवैया न हो। ‘नेटवर्क न्यूट्रल रहेगा’ यह अवधारणा काफी पुरानी है, लेकिन नेट न्यूट्रलिटी शब्द का प्रयोग वर्ष 2000 के बाद चलन में अधिक आया।

2003 में कॉमकास्ट और एटीएंडटी नामक इंटरनेट कंपनियों पर मुकदमा दायर हुआ,क्योंकि इन्होंने बिट-टोरेंट और फेसटाइम सेवाओं को ब्लॉक कर इंटरनेट ट्रैफिक में बाधा डाली थी।किसी देश की सरकार अपनी नीतियों के अनुसार पूरे देश में इंटरनेट पर कुछ वेबसाइटों और सेवाओं को ब्लॉक कर सकती है, लेकिन कोई भी सेवा प्रदाता कंपनी यह नहीं कर सकती। यानी एक बार इंटरनेट पैक का भुगतान करने के बाद यूजर पूरी तरह स्वतंत्र होगा कि वह किस तरह उसका इस्तेमाल करना चाहता है। यही नेट न्यूट्रलिटी का मूल तत्व है।

यह उसी प्रकार से है जैसे कि कारों के मॉडल या फिर ब्रांड के आधार पर पेट्रोल की अलग-अलग कीमतें नहीं वसूली जा सकती हैं। ये भी जान लीजिये कि ‘नेट न्यूट्रैलिटी’ शब्द को कोलंबिया यूनिवर्सिटी के मीडिया लॉ प्रोफेसर टिम वूइन ने 2003 में ईजाद किया।

लोकतंत्र जरूरी

कई टेलीकॉम और इन्टरनेट कंपनियाँ नेट न्यूट्रिलिटी खत्म करने के पक्ष में हैं। फेसबुक और एयरटेल इसके उदहारण हैं जो ऐसा कर चुके हैं। नेट न्यूट्रिलिटी खत्म होने से यूजर्स सिर्फ उन्हीं वेबसाइट या एप का प्रयोग कर सकेंगे जो उनकी टेलीकॉम कंपनी उन्हें मुहैया कराएगी। बाकी वेबसाइटों और सेवाओं के लिए यूजर्स को अलग से पैसा देना होगा।अलग-अलग वेबसाइट के लिए स्पीड भी अलग-अलग मिलेगी।इससे इंटरनेट का प्लेटफार्म सभी के लिए समान उपलब्ध नहीं रहेगा।

कैसे उठा मुद्दा

भारत में नेट आज़ादी को लेकर होने वाली बहस ने तब जोर पकड़ लिया जब एयरटेल ने 2014 में ऐसा प्लान पेश किया था जिसके अंतर्गत कॉल्स या वॉयस ओवर इंटरनेट के लिए भारत में एक्स्ट्रा चार्ज किया जाने लगा। एयरटेल के इस प्लान का विरोध किया गया और एक हफ्ते बाद ही एयरटेल को प्लान वापस लेना पड़ा।

इस पर इतना हो हल्ला हुआ कि 19 जनवरी 2015 को भारत सरकार के दूरसंचार विभाग ने नेट न्यूट्रैलिटी की जांच करने के लिए एप निर्माता, टेलीकॉम कंपनियां, सिविल सोसाइटी और एडवाइजरी ग्रुप की कमेटी बनाईढ्ढ नेट न्यूट्रैलिटी पर जनता से प्रतिक्रियाएं मांगी गईं थीं और इसके बीच अप्रैल 2015 में एयरटेल ने जीरो रेटिंग को पेश किया। इसके अंतर्गत फ्लिपकार्ट जैसी एप्स को एयरटेल नेटवर्क पर यूजर्स की ओर से इस्तेमाल किए गए डाटा की राशि अदा करने की अनुमति दी गई थी। कंपनियों ने अगले ही दिन इस प्लान को भी बंद करा दिया था।

इसके बाद दिसंबर 2015 में फेसबुक ने बिना इंटरनेट के ही नि:शुल्क बेसिक प्रोग्राम लॉन्च किया, इससे पहले इस सेवा को इंटरनेट. ओआरजी के नाम से जाना जाता था। इसमें इंटरनेट के जरिए यूजर्स को मुफ्त में फेसबुक सेवा प्रदान की जाती है।

इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स की इस मनमानी के खिलाफ ‘ट्राई’ ने आम लोगों से राय जाननी चाही तो उसके सामने लगभग 24 लाख लोगों ने इंटरनेट की आजादी यानी नेट न्यूट्रिलिटी के पक्ष में अपनी राय जाहिर की। तब से देश भर में नेट न्यूट्रलिटी के लिए समर्थन बढ़ता ही गया। ट्राई ने फरवरी 2016 में फ्री बेसिक्स और एयरटेल जीरो जैसी अन्य सेवाएं प्रतिबंधित कर दी थी।

अमेरिका में विपरीत हालात

भारत में जहाँ नेट की आज़ादी पर मुहर लग गयी हैं वहीं अमेरिका में स्थिति विपरीत है वहां भी नेट न्यूट्रलिटी का मुद्दा काफी गर्म है। असल में अमेरिकी संघीय संचार आयोग यानी एफसीसी के चेयरमैन अजित पई ने 2015 के उन नियमों को समाप्त करने का प्रस्ताव किया है जिसके तहत इन्टरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स को सभी सामग्रियों के साथ समान व्यवहार करना होता है।

एफसीसी नेट निरपेक्षता के सिद्धांत के नियमों को रद्द करने के लिए 14 दिसंबर को अपना फैसला देगा। इसकी पूरी संभावना है कि डेमोक्रेट्स के तीन वोटों के मुकाबले यह प्रस्ताव रिपब्लिकन के पांच मतों से पारित हो जाएगा। फिलहाल तो एफसीसी ने कहा है कि अब नेट सर्विस प्रोइवडर्स को इंटरनेट सेवा बाधित करने, फास्ट-स्लो स्पीड करने तथा दूसरों की तुलना ज्यादा कीमतें वसूलने से परहेज करना चाहिए। एफसीसी के चेयरमैन अजित पई के खिलाफ अमेरिका में प्रदर्शन हो रहे हैं और अख़बारों में बड़े-बड़े विज्ञापन भी छप रहे हैं।

2015 में जब यह बहस छिड़ी तो तत्कालीन राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नेट न्यूट्रलिटी के पक्ष में अपना मत रखते हुए नियम बनाए थे। नेट न्यूट्रिलिटी के उल्लंघन का एक मामला है साल 2014 का जब अमेरिकी कंपनी नेटफिलीक्स ने आरोप लगाया था कि, कुछ लोग बफरिंग स्पीड और विजुअल क्वालिटी के जरिए उसके वीडियो स्ट्रीमिंग प्लेटफार्म को नुकसान पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं।

अंत में जब नेटफिलीक्स की ओर सीडीएन नेटवर्क के लिए भुगतान करने की सहमति दे दी, तब उसकी यह समस्याएं समाप्त कर दी गईं। इसके अलावा 2003 में कॉमकास्ट और ए.टी. एंड टी. नामक इंटरनेट कंपनियों के ऊपर मुकदमा कर दिया गया था क्योंकि इन्होंने बिट-टोरेन्ट और फेसटाइम सेवाओं को ब्लॉक कर इंटरनेट के ट्रैफिक में बाधा डाली थी।

क्या है बाकी देशों की स्थिति

चिली दुनिया का पहला देश है जिसने नेटवर्ट न्यूट्रिलिटी को बनाए रखने के लिए देश के दूरसंचार कानून में वर्ष 2010 में बदलाव किए। इन बदलावों के बाद इंटरनेट सेवा प्रदाता कंपनियाँ चिली में इस बात पर पहरा नहीं लगा सकती कि यूजर वैध रुप से कौन-सी वेबसाइट देखता है या किस एप का इस्तेमाल करता है।

नीदरलैंड यूरोप का पहला और दुनिया का दूसरा देश है जिसने 2012 में नेट न्यूट्रलिटी नियम लागू किये। इन नियमों के तहत इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स इंटरनेट पर किसी भी एप या वेबसाइट को ब्लॉक या धीमा नहीं करेंगी।

रूस की दूरसंचार नियंत्रण संस्था ने 2016 में नेट न्यूट्रलिटी को लागू किया है। लेकिन वहाँ सिर्फ उन वेबसाइटों को ब्लॉक किया जाएगा जिन्हें केंद्रीय दूरसंचार, आईटी व मीडिया मंत्रालय ने रोक लगाई है।

पुर्तगाल में लिस्बन की आईएसपी कंपनी एमईओ ने यूजर्स के के लिए पांच अलग-अलग पैक निर्धारित कर रखे हैं, जिसमें सोशल मीडिया (फेसबुक, इंस्टामा, ट्विटर, मैसेजिंग, व्हाट्सएप, वाइबर, स्काइप), वीडियो (नेटफ्लिक्स, यूट्यूब, ट्विच), म्यूजिक (पे म्यूजिक, स्पॉटिफ़ी, ट्यून इन) और ईमेल और क्लाउड (जीमेल, ड्राइव, ड्रॉपबॉक्स) शामिल हैं।

टेलिकॉम कम्पनियाँ नहीं चाहतीं नेट न्यूट्रलिटी

वैसे ये जान लीजिये कि कई टेलीकॉम कंपनियां नेट न्यूट्रलिटी खत्म करने के पक्ष में हैं। इससे यूजर्स सिर्फ उन्हीं वेबसाइट या एप का इस्तेमाल कर सकेंगे जो उनकी टेलाकॉम कंपनी उन्हें मुहैया कराएगी। बाकी वेबसाइटों और सेवाओं के लिए यूजर्स को अलग से पैसा देना होगा। अलग-अलग वेबसाइट के लिए स्पीड भी अलग मिलेगी। इससे इंटरनेट का प्लेटफॉर्म सभी के लिए एक समान उपलब्ध नहीं रहेगा।

इंटरनेट प्रोवाइडर्स पहले भी स्काइप जैसी वीडियो कॉलिंग सर्विसेज के लिए अलग से चार्ज लेने की बात कर चुके हैं। क्योंकि उन्हें लगता रहा है कि इस तरह के प्रोडक्ट्स उनके वॉयस कॉलिंग बिजनेस को नुकसान पहुंचाते हैं। यही नेट आज़ादी के मूल सिद्धांत के खिलाफ है जो सभी ट्रैफिक को बराबर तवज्जो देने की बात करता है।

विरोध में तर्क

नेट न्यूट्रलिटी के ख़िलाफ़ तर्क भी कम नहीं हैंढ्ढ एक मजबूत तर्क ये दिया जाता रहा है कि सरकार को मुक्त बाज़ार के कामकाज में दखल नहीं देना चाहिए, प्रतिस्पर्धा वाले मुक्त बाज़ार में जो सबसे कम कीमतों पर सबसे अच्छी सेवाएं देगा, उसे जीतना चाहिए।

ऑपरेटर्स का दूसरा तर्क ये है कि उन्होंने अपना नेटवर्क खड़ा करने में हज़ारों करोड़ रुपये खर्च किए हैं जबकि व्हॉट्स ऐप जैसी सेवाएं जो मुफ़्त में वॉइस कॉल की सर्विस देकर उनके उन्हीं नेटवर्क्स का मुफ़्त में फ़ायदा उठा रही हैं। इससे टेलीकॉम कंपनियों के कारोबार को नुकसान पहुंच रहा है।

अब निजी कंटेंट डिलीवरी

इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स द्वारा निजी कॉन्टेंट नेटवर्क डिलिवरी प्लेटफार्म के जरिए नेट और कॉन्टेट उपलब्ध कराना यूजर्स को महंगा पड़ सकता है। क्योंकि देश की कुछ ऐसे बड़े इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स हैं, जिनके पास उनका अपना वीडियो और म्यूजिक स्ट्रीमिंग सेवा है।

जैसे कि रिलायंस जियो के पास जियो टीवी, जियो सिनेमा, जियो मैजिक, जियो क्लाउड, जियो मैग्ज एवं विभिन्न न्यूज नेटवर्क्स हैं। वहीं भारती एयरटेल के पास विंक मूवीज, विंक म्यूजिक तथा विंक गेम्स जैसे निजी कॉन्टेंट पहले से ही मौजूद हैं। इस प्रकार ये दोनों कंपनियां अपने निजी कॉन्टेंट प्लेटफॉर्म के जरिए यूजर्स से कम कीमत पर ज्यादा फायदा उठा सकती हैं।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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