TRENDING TAGS :

Aaj Ka Rashifal

टीआरपी का बड़ा खेलः क्या 45 हजार मीटर ही हैं 130 करोड़ लोगों की पसंद

जब सरकार यह मान ले कि मीडिया का मूल्यांकन प्रसार व दर्शक की संख्या पर निर्भर करेगा। मीडिया को विश्वसनीयता व प्रभाव से मुक्त कर दिया गया। यही मुक्ति का मार्ग ही चीटिंग की ओर लेकर जाता है। क्योंकि जब कसौटी विश्वसनीयता व प्रभाव थे तब मीडिया घराने इसके लिए काम कर रहे थे

Newstrack
Published on: 13 Oct 2020 7:06 PM IST
टीआरपी का बड़ा खेलः क्या 45 हजार मीटर ही हैं 130 करोड़ लोगों की पसंद
X
TRP is the big game among 130 crore people

योगेश मिश्र

उन्नीस सौ पचास के दशक से टीवी को इडियट बाक्स कहने का चलन है। इडियट शब्द लैटिन के ‘इडियोटा’ या ग्रीक के ‘इडियोटिस’ से निकला है। जिसका मतलब ‘अपने में रहने वाला इनसान’ या ‘आम आदमी’ या ‘अनभिज्ञ इन्सान होता है। ’इडियट व्यक्ति उसको कहा जाता है, जिसमें इतनी अक्ल न हो कि वह कोई तर्कसंगत व्यवहार कर सके। यानी एक मूर्ख या निरा बेवकूफ इन्सान।

बुद्धु बनाने वाला बॉक्स

पर शायद ही कोई यह मानने को तैयार हो कि आज हमारा छोटा पर्दा यानी टीवी बुद्ध बाक्स है। आज यह बुद्ध बनाने वाला बाक्स है। जिस तरह मुंबई पुलिस ने टीआरपी के खेल का पर्दाफ़ाश किया है, उससे इस सच के साबित होने की उम्मीद जगती है कि यह बुद्धु बनाने वाला बाक्स ही है। बनने वाला नहीं।

यह बात मैं अभी ‘कंटेंट’ के संदर्भ में नहीं कह रहा। क्योंकि यह संदर्भ न केवल बहुत फैलाव माँगता है बल्कि बुद्धु बनाने वाले बाक्स होने की बात टीआरपी के खेल में खुल रहे खुलासे से साबित हो जायेगी।

यहां टेवीविजन नहीं है

यहाँ 30 अप्रैल, 1956 को अमेरिका के एक अखबार में संपादक के नाम भेजे गये एक पत्र का ज़िक्र ज़रूरी हो जाता है। इसमें लेखक ने लिखा था, ‘ऐस्पन (एक कस्बा) के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि यहाँ टेलीविज़न नहीं है।

बाकी जगहों में जिन लोगों के घरों में ‘इडियट बॉक्स’ है वे सौभाग्यशाली होंगे यदि उनको 5 फीसदी प्रोग्राम भी देखने लायक मिलते हों। लेकिन लोग टीवी देखते रहते हैं, जिससे उनकी इंटेलेक्चुअल और सोशल लाइफ़ बर्बाद होती है।”

इडियट कार्ड

पचास के दशक में किसी नाटक में कलाकार को डायलाग दिखाने के लिए एक तख्ती का इस्तेमाल किया जाता था, जिस पर संवाद लिखे होते थे , उसे इडियट कार्ड कहा जाता था।

idiot card

टीवी आया तो एंकर या किसी वक्ता को जिस कार्ड या कागज पर लिखी सामग्री दी जाती थी उसे भी इडियट कार्ड कहा गया।

संभवतः इसी से इडियट बॉक्स का चलन निकला। जब लोग जरूरत से ज्यादा देखने और उस पर भरोसा करने लगे तो इसे इडियट्स का शगल कहा गया।

रिपीट दर रिपीट खबरें

हमारा इडियट बाक्स किसी एक खबर को दिन में इतनी बार दिखा देता है कि रात में वह सोने नहीं देती। जिस खबर पर पिल पड़ता है, वहीं चलती है। बाक़ी दुनिया में क्या हो रहा है ,इससे उसका मतलब ख़त्म हो जाता है।

सुशांत सिंह आत्महत्या के मामले में टीवी ने जो भूमिका अदा की , जिस तरह का कवरेज किया , उससे लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है।यह बात न्यूज़ चैनलों की सेल्फ रेगुलेरटी बॉडी व मनोवैज्ञानिकों को बोलनी पड़ी।

टीवी पर अदालत खुल गयी थी। ड्रग का बाज़ार बिछा दिया गया। आत्महत्या का रिक्रियेशन किया गया। फेक ट्विट दिखाये गये। थाने की तरह धारायें बदली और लगाई जाने लगीं। आदि इत्यादि ।

लेकिन यह सब मूर्ख बनने के लिए नहीं, बनाने के लिए किया जा रहा था। मूर्ख बाक्स ऐसे में इसे कैसे कह सकते हैं। यह तो धूर्तता के धत कर्म हैं।

पत्रकारिता बनाम विश्वसनीयता

बोलने की आज़ादी का हाल के दिनों में बहुत ज़्यादा दुरुपयोग हुआ है यह बात सर्वोच्च अदालत के जस्टिस एस ए बोबडे को कहना पड़ा है। इसी साल मार्च में सरकार को मलयालम चैनल एशियानेट और मीडिया वन के प्रसारण पर 48 घंटे का प्रतिबंध लगाना पड़ा।

breaking news

कभी पत्रकारिता का मानदंड विश्वसनीयता होती थी। धूर्त बक्से ने उसे ब्रेकिंग न्यूज़ में तब्दील कर दिया। फिर यह झूठ बोलने का साहस दे दिया कि एक्सक्लूसिव है, भले सबके पास हो। आज ट्विटर से उठा कर खबर करने के बाद भी अपना सर ऊँचा करने में कोई पीछे नहीं छूटना चाहता है।

पत्रकारों में नहीं बचा साहस

आरटीआई आया था तो बड़ी उम्मीद थी कि खबरें रोकने और छिपाने का सिलसिला गये दिन की बात हो जायेगा। पर आज मुट्ठी भर लोगों को छोड़ दें तो आरटीआई लगाने का साहस ही पत्रकारों में चुक गया है। स्वयंसेवी संगठन इस हथियार का पत्रकार से ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं। पत्रकारिता प्रेसनोट तक सिमट गयी है।

मिशन से प्रोफ़ेशन बनने के बाद इसने औद्योगिक समूह का रूख अख़्तियार कर लिया है। औद्योगिक समूह लाभ के लिए काम करते हैं। लिहाज़ा मीडिया का कंटेंट व फार्म तो छोड़िये पूरा का पूरा कमिटमेंट ही बदल गया।

निर्लज्ज सच्चाई

यह पिछले साल एक स्टिंग आपरेशन में बेहद निर्लज्जता के साथ उजागर हुआ था। जिसमें एक पैसे का भुगतान किये बिना स्टिंग करने वाले ने बहुत चतुराई से तक़रीबन सभी बडे मीडिया के औद्योगिक समूहों को दिगंबर कर दिया था। एक पैसा पाये बिना जो औद्योगिक समूह दिगंबर होने को तैयार दिखे थे, उन्हें अगर टीआरपी के खेल से माल मिलता हो तो वे आख़िर क्यों नहीं बहती गंगा में हाथ धोना चाहेंगे? यह भी एक निर्लज्ज सच्चाई है कि सरकार की मिलीभगत के बिना इसे खेला नहीं जा सकता ।

कितनों की पसंद

दरअसल, टीआरपी के माध्यम से पूरे देश की पसंद को जानने का दावा किया जाता है। पर इसके लिए देश भर में कुल 44 हज़ार घरों और 1050 रेस्टोरेंट से सैंपल साइज़ लिये जाते हैं।

यानी कुल 45050 बार्क के मीटर लगे हैं। जबकि भारत की आबादी 130 करोड़ है। 19.5 करोड़ से अधिक टेलिविज़न सेट लगे हुए हैं। टीआरपी के माध्यम से ही इस साल 368 अरब रूपये के विज्ञापनों से कितना किसके खाते में जाये यह तय होता है।

रेटिंग देने वाले

वर्ष 2008 तक टैम मीडिया रिसर्च (टैम) और ऑडियंस मेजरमेंट एंड एनालिटिक्स लिमिटेड (एएमएपी) टीआरपी रेटिंग दिया करते थे। इन दोनों एजेंसियों का काम कुछ बड़े शहरों तक सीमित था।

इसका साइज बहुत छोटा था । नतीजतन, सूचना प्रसारण मंत्रालय ने ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल (बार्क ) की सिफ़ारिश कर दी।व र्ष 2010 बार्क अस्तित्व में आ गया। लेकिन टैम ने टीआरपी देना जारी रखा।

वर्ष 2014 में सरकार में टेलिविज़न रेटिंग एजेंसी के लिए गाइड लाइन जारी की । जिसके तहत जुलाई 2015 में बार्क को भारत में टेलिविज़न रेटिंग देने की मान्यता दे दी।

बार्क में इंडियन ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन , इंडियन सोसाइटी ऑफ़ एडवर्टाइजर्स और एडवर्टाइज़िंग एजेंसी एसोसिएशन ऑफ़ इंडिया के प्रतिनिधि शामिल होते हैं।

नील्सन का ऑडियंस मेजरमेंट

अमेरिका में सर्वे कम्पनी ‘नील्सन’ ऑडियंस मेज़रमेंट का काम 1950 से करती चली आ रही है। इसके लिए एक डिजिटल बॉक्स का प्रयोग किया जाता है जिसका नाम है – ‘ग्लोबल टेलीविज़न ऑडियंस मीटरिंग’ या जीएटीएम है।

इंग्लैंड में टीवी रेटिंग नापने का काम ब्रॉडकास्टर्स ऑडियंस रिसर्च बोर्ड करता है।

एबीसी के आंकड़ों जैसी टीआरपी

टीआरपी की स्थिति प्रिंट मीडिया के ऑडिट ब्यूरो ऑफ़ सर्कुलेशन (एबीसी) के आंकड़ों जैसी ही है। एबीसी के आंकड़ों में हेराफेरी करने के लिए प्रिंट मीडिया संस्थान भी तरह तरह की चाल चलते हैं।

प्रिंट मीडिया के बड़े घराने अपने अख़बारों का सर्कुलेशन बढ़ा कर दिखाने के लिए अलग अलग नामों से संस्करण निकालते हैं , जिनको लिखापढ़ी में मुख्या संस्करण का परिशिष्ट या सप्लीमेंट बताया जाता है।

इसके अलावा अखबार छाप कर रद्दी में बेच देना भी सर्कुलेशन में खेल का एक उपाय है। आरएनआई के अनुसार 2018 में भारत में कुल पंजीकृत अखबार 17,573 और 1,00,666 पत्रिकाएँ थीं। 2017-18 में भारत में पत्र-पत्रिकाओं का कुल सर्कुलेशन 43,00.66,629 रहा।

ये है चीटिंग का रास्ता

जब सरकार यह मान ले कि मीडिया का मूल्यांकन प्रसार व दर्शक की संख्या पर निर्भर करेगा। मीडिया को विश्वसनीयता व प्रभाव से मुक्त कर दिया गया। यही मुक्ति का मार्ग ही चीटिंग की ओर लेकर जाता है। क्योंकि जब कसौटी विश्वसनीयता व प्रभाव थे तब मीडिया घराने इसके लिए काम कर रहे थे।

जब कसौटी बदली है तो उनकी मजबूरी है कि वह नई कसौटी के लिए काम करें। शायद यही वजह है कि अख़बारों से पाठक के पत्र ग़ायब ही हो गये। संपादकीय लचर हो गयी है।

संख्या का खेल

मीडिया समूह नहीं रिपोर्टर संख्या के खेल में फँस गये हैं। यह संख्या का खेल मापने का आधार कहीं एबीसी , कहीं टीआरपी, कहीं अलेक्सा, कहीं गूगल एनालिटिक्स, कहीं काम स्कोर बना दिया गया है।

मूल्यांकन का पैमाना ही ग़लत है। पैमाना तय करने का काम सरकार का है। फिर यह कहना कि मीडिया अपने नियंत्रण के लिए सेल्फ रेगुलेरिटी बाड़ी बनाये, वैसे ही है जैसे 1969 में राष्ट्रपति पद के लिए इंदिरा गांधी के ऑफिशियल उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी थे, पर नामांकन के बाद इंदिरा गांधी ने अंतरात्मा की आवाज़ पर वोट देने की अपील कर दी, वी वी गिरी जीत गये। जबकि वह स्वतंत्र उम्मीदवार थे। नीलम संजीव रेड्डी हार गये।

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार व न्यूजट्रैक/अपना भारत के संपादक हैं।)



\
Newstrack

Newstrack

Next Story