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विशेष : कृषि क्षेत्र के लिए वरदान साबित होंगी फफूंद की ये दो प्रजातियां
देश के दो अलग अलग विश्वविद्यालयों में फफूंद की दो ऐसी प्रजातियां खोजी गयी हैं जो कृषि के लिए वरदान साबित होंगी।
संजय तिवारी
देश के दो अलग अलग विश्वविद्यालयों में फफूंद की दो ऐसी प्रजातियां खोजी गयी हैं जो कृषि के लिए वरदान साबित होंगी। इनमें से एक फसल को बीमारियों से बचाएगा तो दूसरा मृदा प्रदूषण को ख़त्म कर देगा। भारतीय कृषि के लिए इन दोनों शोध कायों को बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा जा रहा है।
जमीन में खुद तैयार होने वाला अथवा बरसात में पेड़ो पर उगने वाला फफूंद खेती के लिए बहुत काम का है। यह फसलों को बीमारियों से तो बचाएगा ही, इसमें कई आवश्यक तत्व भी प्रदान करेगा। प्राकृतिक तौर पर पाया जाना वाला ट्राइकोडर्मा स्पीज नामक मित्र फफूंद में कई बीमारियों से निपटने के तत्व मौजूद हैं। शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस एंड टेक्नोलॉजी (स्कास्ट) जम्मू द्वारा किए गए शोध में यह जानकारी सामने आई है। फसलों के इलाज का यह जरिया पूरी तरह जैविक है। इसी तरह विलासपुर स्थित गुरुघासी राम विश्ववद्यालय के एक शोध में बरसात के मौसम में लकड़ियों के ढेर या फिर पेड़ के तनों पर पाए जाने वाले एपीसी5 नाम के एक नए फफूंद की पहचान की गयी है जो मिट्टी में पाए जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों को अपघटित करके मृदा प्रदूषण को दूर करने में मददगार साबित हो सकता है।
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वैज्ञानिकों के अनुसार, चार साल के गहन अध्ययन के बाद मित्र फफूंद से फसलों की बीमारियों को दूर करने में सफलता मिली है। मित्र फफूंद के जीवाणुओं को उठाकर एक महीने तक प्रयोगशाला में विकसित किया जाता है। इसके बाद ट्राइकोडर्मा नामक पाउडर तैयार होता है। इसके इस्तेमाल से फसलों को बीमारियां नहीं लगेंगी, पैदावार भी बढ़ेगी और मिलने वाला उत्पाद भी जैविक होगा। ट्राइकोडर्मा पाउडर से बीजों का उपचार भी किया जाता है। अब तक 150 किसानों को ट्राइकोडर्मा पाउडर उपलब्ध करवाया गया है, जिसके सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं। शेर-ए-कश्मीर यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर साइंस एंड टेक्नोलॉजी के डॉयरेक्टर रिसर्च डॉ. जेपी शर्मा का कहना है कि जमीन में पनप रहे सारे फफूंद नुकसानदायक नहीं होते। कुछ फफूंद हमारे मित्र भी होते हैं जोकि फसलों की बीमारियों से लड़ सकते हैं। उत्पादन बढ़ा सकते हैं। वैज्ञानिकों ने मित्र फंफूदों के अंश की तलाश की कि किस फंफूद में कौन से रोग को भगाने की क्षमता है। उसी को विकसित कर फसलों का इलाज खोजा है जो किसानों के लिए बेहद फायदेमंद होगा।
जमीन में पनपने वाले रोगों से निपटने के लिए ट्राइकोडर्मा पाउडर को गोबर खाद में तय मात्रा में मिलाना होता है। बाग बगीचे में फलदार पौधों की जड़ों में ट्राइकोडर्मा पाउडर व गोबर का मिश्रण डालना होगा। बीजों के उपचार में ट्राइकोडर्मा पाउडर का घोल बनाकर बीज को डुबोना होता है। विशेषज्ञ डॉ. विशाल गुप्ता का कहना है कि स्कास्ट की यह खोज किसानों के लिए रामबाण होगी। फसलों को बीमारियों से बचाने के लिए दवाओं पर किए जाने वाला खर्च भी बचेगा और जैविक उत्पाद होने से दाम अच्छे मिलेंगे। अगर किसान पूरी जानकारी के बाद प्रयोग करें तो 10 से 20 फीसद उत्पादन भी ज्यादा होगा। प्रति कनाल 500 रुपये दवाओं का खर्च बचेगा। इससे सूखा, जड़गलन, बीज गलन, गुठली सड़न, झुलसा रोग जैसी बीमारियों से निपटा जा सकेगा। ट्राइकोडर्मा पाउडर व गोबर के मिश्रण का इस्तेमाल अमरूद, पपीता, प्याज, नींबू, कपास, मूंगफली, आलू, उड़द, मूंग, अरहर, चना, गन्ना, टमाटर, बैंगन, केसर, पपीता आदि पर किया जा सकेगा।
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मृदा प्रदूषण ख़त्म करेगी फफूंद की नई प्रजाति
इंडिया साइंस वायर के अनुसार बरसात के मौसम में लकड़ियों के ढेर या फिर पेड़ के तनों पर पाए जाने वाले फफूंद अक्सर दिख जाते हैं। भारतीय वैज्ञानिकों ने एपीसी5 नाम के ऐसे ही एक नए फफूंद की पहचान की है, जो मिट्टी में पाए जाने वाले अपशिष्ट पदार्थों को अपघटित करके मृदा प्रदूषण को दूर करने में मददगार साबित हो सकता है।
एपीसी5 नामक यह नया फफूंद आमतौर पर पेड़ों के तने पर उगने वाली कोरोलोप्सिस बिरसिना फफूंद का एक रूप है। इसे व्हाइट रॉट फंजाई भी कहते हैं। अध्ययनकर्ताओं ने पाया है कि एपीसी5 मिट्टी में पाए जाने वाले हानिकारक पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन (पीएएच) जैसे कार्बनिक अवशिष्ट पदार्थों को अपघटित कर सकता है। वैज्ञानिकों के अनुसार चना और मूंग जैसी फसलों का उत्पादन बढ़ाने में भी यह मददगार साबित हो सकता है।
शोध के दौरान व्हाइट रॉट फंजाई के 19 नमूनों को इकट्ठा किया गया था। पीएएच जैसे हाइड्रोकार्बन्स के अपघटक के रूप में फफूंद के गुणों की पहचान करने के लिए एपीसी5 को उसके लिग्निनोलायटिक गुणों के कारण अध्ययन में शामिल किया गया है। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले से एपीसी5 के नमूने प्राप्त किए गए थे और फिर अपघटक के तौर पर इसके गुणों का परीक्षण प्रयोगशाला में किया गया है। बिलासपुर स्थित गुरु घासीदास विश्वविद्यालय के वनस्पति विभाग के शोधकर्ता डॉ. एस.के. शाही और शोध छात्रा निक्की अग्रवाल द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका बायोडीटीरीओसन ऐंड बायोडीग्रीडेशन में प्रकाशित किया गया है।
डॉ. शाही के मुताबिक “एपीसी5 लिग्निनोलायटिक नामक एक खास एंजाइम का उत्पादन करता है, जिसका उपयोग फूड इंडस्ट्री, वस्त्र उद्योग, कागज उद्योग, प्रदूषित जल के निस्तारण और नैनो-टेक्नोलोजी में हो सकता है। एपीसी5 फफूंद पीएएच जैसे हानिकारक हाइड्रोकार्बन्स को 96 प्रतिशत तक अपघटित कर सकता है। इस खोज से हाइड्रोकार्बन को अपघटित करने में कई प्रकार के उद्योगों को मदद मिल सकती है और कार्बनिक प्रदूषण कम किया जा सकता है।”
इस फफूंद को प्रयोगशाला में संवर्धित कर इसका फॉर्मूला तैयार किया गया है, जिसका उपयोग प्रदूषण वाले स्थानों पर छिड़काव करके किया जा सकता है। अध्ययनकर्ताओं के अनुसार इसके उपयोग से एक माह के भीतर प्रदूषण फैलाने वाले अवशिष्टों को अपघटित किया जा सकता है। डॉ. शाही ने बताया कि “वनस्पति विभाग इस फॉर्मूले के पेटेंट कराने तथा इसका उत्पादन विश्वविद्यालय स्तर पर करने का विचार कर रहा है। इससे छात्रों के रोजगार के साथ-साथ विश्वविद्यालय को राजस्व भी मिल सकेगा।”
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कोरोलोप्सिस बिरसिना फफूंद खुले वातावरण में अधिक पीएच मान वाली मिट्टी, 15-55 डिग्री सेल्सियस तापमान और लवणता जैसी विपरीत परिस्थितियों में भी वृद्धि कर सकता और लिग्निनोलायटिक एंजाइम उत्पन्न कर सकता है। अपघटन की प्रक्रिया के दौरान कोई हानिकारक तत्व उत्सर्जित नहीं होने से वैज्ञानिकों का कहना है कि अपघटक के रूप में कोरोलोप्सिस बिरसिना का उपयोग पूरी तरह सुरक्षित है और फील्ड ट्रायल के %A