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Ujjain Rape Case: उज्जैन रेप केस ने पूरे देश को झकझोर दिया, बवाल के बाद हुआ क्या?

Ujjain Rape Case: उज्जैन की घटना में एक लड़की घर जा रही थी। वहां कोई भीड़ नहीं थी। यहां जड़ता नहीं थी बल्कि पूर्ण संवेदनहीनता थी। और इसकी वजह थी लोगों को इस तरह की सीख न दिया जाना।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 8 Oct 2023 4:06 AM GMT
Ujjain Rape Case Update Inside Story
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Ujjain Rape Case Update Inside Story 

Ujjain Rape Case Update Inside Story: मध्य प्रदेश के उज्जैन में एक बालिका के साथ की गयी दरिंदगी इस तरह की वारदातों की कड़ी में एक घटना मात्र है, जो अब पुरानी भी पड़ चुकी है। 25 सितंबर को जब मीडिया में यह खबर लोगों के सामने आई तब बहुतों के दिल दहल गए थे, आत्माएं आहत हुईं थीं, हैरानी भी थी। कथित अपराधी पकड़े गए। हर घटना की तरह सिर्फ चार-पांच दिन में सब शांति हो गई। जिनके दिल दहले थे, जिनकी आत्मा जख्मी हुई थी, वे सब ज्यादा जरूरी चीजों में मसरूफ हो गए।

ऐसा व्यवहार न कोई नई अनोखी बात है, न हैरान करने वाली है। हमेशा से यही होता आया है और अब अगले कांड में भी यही चक्र दोहराया जाएगा। हम इतने कांड देख, सुन, पढ़ चुके हैं कि इम्यून हो गए हैं। नए कांड, नई वीभत्सता, बस एक जुगुप्सा पैदा करते हैं। और कुछ नहीं। वारदातें अब इंसान के पतन की नई नई गहराइयों के रिकार्ड भर ही बनाती हैं।

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लेकिन उज्जैन कांड ने एक नई तस्वीर भी पेश की है। इसे नई तो कहना ठीक नहीं होगा लेकिन यह कह सकते हैं कि उज्जैन कांड ने एक ऐसा सच दिखाया है जिसे हर कोई जानता है लेकिन कोई भी इसकी बात नहीं करता।


ये सच है तमाशबीनी का

तमाशबीनी की इस तस्वीर को सब जानते हैं, पहचानते हैं । क्योंकि हम सब उस तस्वीर का हिस्सा हैं। तस्वीर में हमारे ही चेहरे हैं। उज्जैन की तस्वीर उनकी है जो अपने घरों के सामने खून से लथपथ गुहार लगाती बालिका को न सिर्फ नज़रंदाज़ करते रहे बल्कि उसे दुत्कार कर भगाते रहे। मदद के नाम पर सौ पचास रुपये पकड़ाते रहे मानो भीख दे रहे हैं।

क्या हो गया है हमारी मानसिकता को? क्या हम इतने संवेदनहीन और निष्ठुर हो गए हैं कि किसी की पीड़ा और जख्म का हम पर कोई असर नहीं होता? तमाम जागरूकता, संकल्प और नारों का क्या यही नतीजा है। ऐसे लोगों के लिए बस यही कहा जा सकता है कि - समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध। जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।

बुरा और खराब होते देख कर भी मुंह छुपाने वालों को तटस्थ कहना ही काफी नहीं बल्कि बराबर का अपराधी कहना ज्यादा सही होगा। लेकिन दिक्कत यह है कि अपराधी चुनेगा कौन? यहां तो हमाम में सभी नंगे हैं।

प्राचीन संस्कृति, अति प्राचीन सभ्यता और पूरे विश्व में सबसे अलग पहचान के बावजूद, संवेदना के स्तर पर हम कहाँ हैं इसका आंकलन आप खुद ही कर लीजिए। सड़क किनारे पड़े किसी घायल या बेसुध इंसान, पब्लिक प्लेस में किसी पर हमला, ट्रेन में छेड़छाड़ जैसी कितनी ही घटनाओं के हम आप गवाह बनते हैं। लेकिन क्या सबसे पहले आगे बढ़ कर मदद की है? नहीं। क्योंकि हमें वह सिखाया नहीं गया है। सिखाया यही गया है कि दूसरे के पचड़े में मत पड़ो, पुलिस परेशान करके रख देगी, उल्टे तुम्हें ही फंसा देगी। यह सच्चाई है। तभी जब कोई मंत्री, आला अफसर या फिर अदना सा थानेदार भी किसी घायल राहगीर की मदद करता है तो यह खबर बन जाती है। अख़बार में छपता है कि फलाने ने खुद कार रुकवा कर घायल को अस्पताल भिजवाया। ऐसा इसलिए कि किसी की मदद करना सामान्य व्यवहार है ही नहीं। आम आदमी करता नहीं और जो ‘बड़ा’ आदमी करता है वह प्रशंसनीय है । क्योंकि यह उनका बड़प्पन है, जिम्मेदारी नहीं है।

पुलिस रिफॉर्म्स, आधुनिकीकरण, कानूनों में बदलाव वगैरह खूब हुए हैं । लेकिन किसी की मदद न करना आज तक अपराध नहीं बना। यह स्वेच्छा का काम है। पुलिसवालों के लिए भी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। सड़क किनारे पड़े किसी घायल या अचानक बीमार इंसान को देख कर क्या कभी किसी पुलिस अफसर की गाड़ी रुकी है? जवाब आप खुद जानते हैं।

भीड़ की बात करें तो मनोवैज्ञानिकों ने मानव व्यवहार का एक पहलू ढूंढा हुआ है, जिसे ‘बाईस्टैंडर इफ़ेक्ट’ कहते हैं। बाईस्टैंडर यानी तमाशबीन। इसके बारे में बता दें कि सन 64 में न्यूयॉर्क में एक युवती का पीछा करने के बाद एक हमलावर ने उसपर चाकुओं से हमला किया। आधे घंटे तक वह युवती चीखती रही और हमलावर उसपर तब तक चाकू से वार करता रहा जब तक उसकी मौत नहीं हो गई। यह सब उस युवती के घर के पास हुआ। कोई पड़ोसी मदद करने नहीं आया जबकि सब देख रहे थे। जब गवाहों से इस बारे में सवाल किया गया कि उन्होंने पुलिस को क्यों नहीं बुलाया, तो उनके जवाब थे कि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए डर था या वो इस पचड़े में शामिल नहीं होना चाहते थे। लोगों ने ऐसा क्यों किया इसपर मनोवैज्ञानिकों ने बाकायदा रिसर्च की और निष्कर्ष निकाला कि जब कई लोगों के सामने कोई वारदात होती है तो लोग खुद कुछ न करके दूसरों से अपेक्षा करते हैं कि वे आगे बढ़ेंगे। इस थ्योरी के मुताबिक भीड़ में जड़ता आ जाती है और सब तमाशबीन बने रहते हैं।

लेकिन उज्जैन की घटना में एक लड़की घर जा रही थी। वहां कोई भीड़ नहीं थी। यहां जड़ता नहीं थी बल्कि पूर्ण संवेदनहीनता थी। और इसकी वजह थी लोगों को इस तरह की सीख न दिया जाना। बड़े से बड़े प्रवचक, कथावाचक, यूट्यूबर, नेता वगैरह इस व्यवहार की सीख देना तो दूर, चर्चा तक नहीं करते। ईश्वर को पाने, देश को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत, सबसे बड़ी इकॉनमी बनाने की बात होती है, इंसान को इंसान का मददगार बनने की बात नहीं होती। पशुओं के खिलाफ क्रूरता के कानून हैं । लेकिन किसी को नहीं बचाने तमाशबीन बने रहने के खिलाफ कानून नहीं हैं।क्योंकि उनकी नज़र में यह महत्वपूर्ण है ही नहीं। हम खुद भी क्या अपने बच्चों को यह सीख देते हैं? नहीं। क्योंकि समाज, तंत्र, पुलिस, कानून इस सीख के पक्ष में खड़ा नजर ही नहीं आता।

हम वर्ल्ड क्लास ट्रेनें, रेलवे स्टेशन, एयरपोर्ट आदि बनाते जा रहे हैं, यूरोप - अमेरिका को टक्कर देने का दम्भ भरते हैं। लेकिन यह भी जान लीजिए कि जर्मनी, ब्राज़ील, कनाडा आदि देशों में कानून हैं जो किसी जरूरतमंद पीड़ित की मदद न करने को अपराध मानते हैं। भारत में भी गुड समारिटन कानून है जो सड़क हादसों में मदद करने वालों को कानूनी संरक्षण प्रदान करता है। लेकिन यह बस यहीं तक सीमित है।अमेरिका में तो सेना और तमाम संगठन बाकायदा ट्रेनिंग देते हैं कि किस तरह तमाशबीन न बनें और किस तरह किसी भी स्थिति में मदद पहुंचाएं।

उज्जैन कांड आप भले भूल जाएं । लेकिन इंसानियत मत भूलियेगा। ईश्वर के करीब पहुंचने का रास्ता इंसानियत से ही होकर जाता है। वर्ल्ड क्लास बनने में भी पहले अच्छा इंसान बनना होगा। तमाशबीन बने रहेंगे तो कहीं खुद भी एक दिन तमाशा बन जाने की नौबत न आ जाये, इतना जरूर याद रखियेगा।

Jugul Kishor

Jugul Kishor

Content Writer

मीडिया में पांच साल से ज्यादा काम करने का अनुभव। डाइनामाइट न्यूज पोर्टल से शुरुवात, पंजाब केसरी ग्रुप (नवोदय टाइम्स) अखबार में उप संपादक की ज़िम्मेदारी निभाने के बाद, लखनऊ में Newstrack.Com में कंटेंट राइटर के पद पर कार्यरत हूं। भारतीय विद्या भवन दिल्ली से मास कम्युनिकेशन (हिंदी) डिप्लोमा और एमजेएमसी किया है। B.A, Mass communication (Hindi), MJMC.

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