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Uniform Civil Code Video: क्या यूसीसी सन 37 के पहले वाला हिंदुस्तान लौटाएगा, देखें ये वीडियो

Uniform Civil Code Effect on Muslims: पन्ने पर तो सन 1937 की शरीयत एक्ट की इबारत लिखी है। केवल उसे मिटाना, काटना होगा। उसे मिटा कर, उसे काट कर ही यूसीसी लिखना होगा। उसी 1937 की इबारत ने 86 साल से विभाजन पैदा किये हैं , विभाजन बरकरार रखे हैं।

Yogesh Mishra
Published on: 11 July 2023 8:02 AM IST

Uniform Civil Code Effect on Muslims: अकबर इलाहाबादी की एक ग़ज़ल है- ‘हंगामा है क्यों बरपा।’ इस ग़ज़ल को बहुत मौजू मौक़े पर गुलाम अली ने पाकिस्तान में गाया था। पर इन दिनों भारत में इस ग़ज़ल के मंजर देखे जा सकते हैं। वाक़या है समान नागरिक संहिता या कॉमन सिविल कोड या फिर यूसीसी को लागू करने का। संविधान में इसका वादा किया गया । लेकिन आज तक यह लागू नहीं हो पाया। हंगामे के बरक्स यह देखना ज़रूरी है कि अगर यूसीसी आता है तो क्या वह एक नई इबारत होगी, जो नये सिरे से एक सादे पन्ने पर लिखी जाएगी? कतई नहीं। पन्ने पर तो सन 1937 की शरीयत एक्ट की इबारत लिखी है। केवल उसे मिटाना, काटना होगा। उसे मिटा कर, उसे काट कर ही यूसीसी (UCC News) लिखना होगा। उसी 1937 की इबारत ने 86 साल से विभाजन पैदा किये हैं , विभाजन बरकरार रखे हैं।

हक़ीक़त यह है कि आज़ादी के बाद 1937 के एक्ट के बने रहने से मुस्लिम हिन्दू में विभाजन बढ़ता गया। 1937 के शरीयत एक्ट के पीछे जिन्ना की मुस्लिम लीग का इरादा सबसे पहले उन मुसलमानों को अलग करना था, जो स्थानीय हिंदू रीति-रिवाजों और प्रथाओं के कारण हिंदुओं के साथ बहुत घुल-मिल गए थे। फिर उनके लिए एक हिंदू विरोधी इस्लामी पहचान बनाना और अंततः भारत के विभाजन का मार्ग प्रशस्त करना था।

भारत में इस्लाम सातवीं शताब्दी में आया। उस समय इसके मानने वाले क़ुरान व हदीस के इस्लामी क़ानून का पालन करते थे।तेरहवीं शताब्दी में उत्तर भारत में मुसलमानों शासन की शुरूआत का कालखंड है। दिल्ली सल्तनत के समय न्याय करने के लिए काजी नियुक्त किये गये । कहा जाता है कि मुस्लिम लॉ ग़यासुद्दीन बलबन के काल में कोड़िफाइड था। दिल्ली सल्तनत व मुग़लों के काल में इसलामी अदालतें थी। इस्लामिक क़ानून के लिए ही औरंगजेब ने ‘फ़तवा ए आलमगीरी’ लिखवाई। अंग्रेजों के जमाने में ‘हनीफ़ मत’ की किताब ‘अल हिदाया’ के आधार पर सुनवाई शुरू हुई। मुस्लिम आये। धर्मांतरण हुए। लेकिन कभी भी शरिया पूरे भारत में सभी मुस्लिमों पर लागू नहीं हुआ। औरंगजेब ने शरियत को सख्ती से लागू किया।लेकिन इतिहासकारों का कहना है कि वह धर्मांतरित मुस्लिमों पर शरिया लागू करने से पहले चल बसा। यह काम अंग्रेजों और मुस्लिम लीग ने 1937 के शरीयत एक्ट बनवा और लागू करवा के कर दिखाया। हक़ीक़त यह है कि भारत में धार्मिक बंटवारे की जड़ में 1937 का यही शरिया एक्ट है। ब्रिटिश शासनकाल में अक्टूबर 1937 में यह एक्ट पारित किया गया। मात्र ढाई साल के भीतर मार्च 1940 में जिन्ना ने लाहौर विभाजन प्रस्ताव पारित कर दिया। मानो वह इसी का इंतज़ार कर रहे थे।

संविधान के आर्टिकल 44 में यूसीसी का जिक्र

हमारे संविधान के आर्टिकल 44 में यूसीसी का जिक्र क्यों है? अगर 1937 का एक्ट अस्तित्व में न होता तो क्या संविधान सभा को यूसीसी पर माथापच्ची करने की जरूरत पड़ती? संविधान सभा में यूसीसी का विचार स्पष्ट रूप से 1937 के शरीयत अधिनियम को रद्द करने के लिए था। नीति निदेशक सिद्धांतों के तहत यूसीसी को अनिवार्य करने वाले अनुच्छेद 44 का ट्रिगर 1937 का अधिनियम था, जिसने भारत को विभाजित किया।

डॉ. बी आर अंबेडकर ने संविधान सभा में यूसीसी की जबर्दस्त वकालत की थी।उन्होंने मुस्लिम लीग के सदस्यों को इस बात से इनकार करने की चुनौती दी कि 1935 तक नार्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रोविंस (आज के पाकिस्तान का पश्चिमी पंजाब, खैबर पख्तूनख्वा) में शरिया कानून नहीं, बल्कि हिंदू परंपरागत कानून का पालन किया जाता था। डॉ अंबेडकर ने कहा था कि 1937 तक बाकी भारत, यूनाइटेड प्रोविंस, सेंट्रल प्रोविंस और बॉम्बे में, मुस्लिम उत्तराधिकार के मामलों में हिंदू परंपरा द्वारा शासित थे।

उत्तरी मालाबार में मुसलमान सन 37 के एक्ट के पहले हिंदू मरुमक्कथायम (मातृसत्तात्मक) परंपरा का पालन करते रहे थे। मालाबार में मुस्लिम परिवारों में शरिया लागू नहीं किया गया था।1937 के पहले पूरे देश मे चाहे वह हिंदू शासित अजमेर-मेरवाड़ा हो या मुस्लिम शासित अवध हो, विरासत, उत्तराधिकार, दत्तक ग्रहण या वसीयत के नियम हिंदू और मुसलमानों के लिए बराबर थे।

पंजाब और उत्तर-पश्चिमी प्रांत, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, स्थानीय हिंदू रीति-रिवाज शरिया पर हावी थे। वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब में विधवाओं को संपत्ति में पूरा हिस्सा और जीवन यापन की इजाजत देने की हिंदू प्रथा हावी थी। पूर्वी और पश्चिमी पंजाब में तलाकशुदा पत्नी को केवल तीन महीने तक गुजारा भत्ता देने के शरियाई 'इद्दत' को मान्यता नहीं थी। इस क्षेत्र में मुसलमानों में प्रचलित गोद लेने की प्रथा और वसीयत लिखने की प्रथा शरिया के विपरीत थी। उसे न्यायालयों द्वारा मान्यता दी गई।

1856 तक मुस्लिम शासित अवध में मुसलमानों के बीच विधवाओं को हिंदू नियमों के अनुसार संपत्ति में पूर्ण हिस्सा मिलने का अधिकार प्रचलित था। मुस्लिम शासकों द्वारा पारित अवध एस्टेट अधिनियम ने मुसलमानों को शरिया से स्पष्ट रूप से छूट दी। अवध के नवाब ने पूर्वी पंजाब की तरह शरिया पर स्थानीय रीति-रिवाजों को तरजीह देने वाला कानून बनाया था। अजमेर-मेरवाड़, सेंट्रल प्रोविंस में भी यही था।

जब कच्छी मेमन और खोजा जैसे लोगों का एक बड़ा वर्ग हिंदू धर्म से इस्लाम में परिवर्तित हो गया, तब भी वे हिंदू कानूनों द्वारा शासित होते रहे। यही चीज गुजरात में सुन्नी बोहरा और मोलिसलाम गिरियासिया समुदाय पर लागू थी।

मद्रास प्रांत की अदालतें उस शरिया सिद्धांत को नहीं मानती थीं जिसके तहत मुसलमानों को अपनी संपत्ति केवल मुसलमानों को बेचने का आदेश दिया गया था।

स्थानीय हिंदू रीति-रिवाज शरीयत पर हावी

कलकत्ता, मद्रास और बंबई के प्रेसीडेंसी शहरों में, स्थानीय हिंदू रीति-रिवाज शरीयत पर हावी थे। सबसे दिलचस्प बात यह है कि शरीयत एक्ट 1937 के बावजूद पश्चिम बंगाल के कूच बिहार के मुसलमान 1 जुलाई, 1980 तक केवल हिंदू कानून द्वारा शासित थे। उस तारीख को पश्चिम बंगाल सरकार ने शरीयत अधिनियम के आवेदन को अधिसूचित किया था।

जिन्ना खोजा मुस्लिम समुदाय से थे, जिन्हें इस्माइली भी कहा जाता है। खोजा की पवित्र पुस्तक कुरान नहीं बल्कि "दशावतार" थी। दशावतार में कृष्ण तक के नौ अवतार खोजा मुसलमानों और हिंदुओं के बीच आम थे। सिर्फ दसवें अवतार के रूप में खोजा, पैगंबर मोहम्मद के दामाद अली को मानते थे। खोजा दशावतार में "कल्कि" अवतार को "निकलंक" नाम दिया गया है।मुंबई उच्च न्यायालय में 1866 के आगा खान उत्तराधिकार मामले का हवाला देते हुए इस तथ्य की पुष्टि की गई है। दशावतार में, इस्माइली भक्ति भजनों का एक हिस्सा जिसे "गिनान" के नाम से जाना जाता है, खोजा के संस्थापक और पैगंबर के दामाद अली के वंशज पीर सदरुद्दीन का काम था।

खोजा की तरह कच्छी मेमन ने भी एक एक व्यक्ति नहीं बल्कि पूरे समुदाय और समूह के रूप में धर्म परिवर्तित किया। ये इस्लामी की बजाय हिंदू कानून से संचालित होते थे। जिन्ना की तरह, बाद में आगा खान के पोते (आगा खान तृतीय) ने मुस्लिम लीग और पाकिस्तान के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई।शरिया एक्ट 1937 वास्तव में पूरी तरह इस्लामी भी नहीं है। इसमें निजी स्वार्थों के लिए हिंदू कानून के तीन मुख्य अधिकारों जो डाला गया था।

यह एक्ट मुसलमानों को हिंदुओं की तरह अपनी संपत्ति की वसीयत लिखने की अनुमति देता है जबकि इस्लाम द्वारा ये निषिद्ध है।इसमें कृषि भूमि को बाहर रखा गया है। इस संबंध में मुसलमानों पर हिंदू कानूनों को लागू करना जारी रखा है।इसने निसंतान मुसलमानों को हिंदुओं की तरह गोद लेने की अनुमति दी है । जबकि, इस्लाम में इसे प्रतिबंधित किया गया है।सोचने वाली बात है कि 1937 के शरीयत कानून में हिंदू कानून के घालमेल से किसे फायदा हुआ? जिन्ना को, मुस्लिम जमींदारों को, मुस्लिम लीग को या अंग्रेजों को या मुसलमानों को? यह भी सोचिए कि अगर 1937 का एक्ट न बना होता तो क्या देश, समुदाय और समाज का जो वीभत्स बंटवारा हुआ है, क्या वह होता? यह भी सोचिए कि गहरे पैठ बना चुका यह बंटवारा अगर अब भी दुरुस्त नहीं किया गया तो इसका अंजाम क्या होगा? इसलिए हंगामे के बीच ही सही समान नागरिक संहिता का औचित्य बनता है। क्योंकि संविधान कह रहा है। सर्वोच्च अदालत कह रही है। मुसलमान को छोड़ देश का हर आम औ ख़ास नागरिक कह रहा है।

( लेखक पत्रकार हैं । दैनिक पूर्वोदय से साभार।)

Yogesh Mishra

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