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Uniform civil code: आज़ादी के समय ही नकार दी गयी समान नागरिक संहिता की बात
Uniform civil code: हिंदू कानून समिति का कार्य सामान्य हिंदू कानूनों की आवश्यकता के प्रश्न की जांच करना था।
Uniform civil code: गुजरात चुनाव के मद्देनज़र जब सामान नागरिक संहिता की बात उठी तो मानो कोहराम मच गया है। ऐसे में Newstrack समान नागरिक संहिता और भारतीय जनता पार्टी के मंसूबों पर एक सीरिज़ लेकर आया है। पेश हैं आज़ादी के पहले जब समान नागरिक संहिता की बात उठी थीं, उस समय की स्थिति……..
समान नागरिक संहिता की उत्पत्ति औपनिवेशिक भारत में हुई जब ब्रिटिश सरकार ने 1835 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें अपराधों, सबूतों और अनुबंधों से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता की आवश्यकता पर बल दिया गया था। विशेष रूप से सिफारिश की गई कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण के बाहर रखा जाए।
ब्रिटिश शासन के अंत में व्यक्तिगत मुद्दों से निपटने वाले कानूनों की भरमार ने सरकार को 1941 में हिंदू कानून को संहिताबद्ध करने के लिए बीएन राव समिति बनाने के लिए मजबूर किया। हिंदू कानून समिति का कार्य सामान्य हिंदू कानूनों की आवश्यकता के प्रश्न की जांच करना था। समिति ने, शास्त्रों के अनुसार, एक संहिताबद्ध हिंदू कानून की सिफारिश की, जो महिलाओं को समान अधिकार देगा। 1937 के अधिनियम की समीक्षा की गई । समिति ने हिंदुओं के लिए विवाह और उत्तराधिकार की नागरिक संहिता की सिफारिश की।
बहस भारत में औपनिवेशिक काल से चलाई जा रही
एक समान नागरिक संहिता की बहस भारत में औपनिवेशिक काल से चलाई आ रही है। ब्रिटिश शासन से पहले, ईस्ट इंडिया कंपनी (1757-1858) ने भारत पर पश्चिमी विचारधाराओं को थोपकर स्थानीय सामाजिक और धार्मिक रीति-रिवाजों में सुधार करने का प्रयास किया। अक्टूबर 1840 की लेक्स लोकी रिपोर्ट ने अपराधों, सबूतों और अनुबंध से संबंधित भारतीय कानून के संहिताकरण में एकरूपता के महत्व और आवश्यकता पर जोर दिया, लेकिन इसने सिफारिश की कि हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों को इस तरह के संहिताकरण से बाहर रखा जाना चाहिए। कानून के समक्ष हिंदुओं और मुसलमानों का यह अलगाव ब्रिटिश साम्राज्य की 'फूट डालो और शासन करो' नीति का हिस्सा था । जिसने उन्हें विभिन्न समुदायों के बीच एकता को तोड़ने और भारत पर शासन करने का मौक़ा दिया था। आगे चल कर मुस्लिम अभिजात वर्ग के दबाव के कारण, 1937 का शरीयत कानून पारित किया गया था । जिसमें यह निर्धारित किया गया कि सभी भारतीय मुसलमान विवाह, तलाक, भरण-पोषण, गोद लेने, उत्तराधिकार और विरासत पर इस्लामी कानूनों द्वारा शासित होंगे। जबकि हिंदुओं को हिंदू कोड बिल के तहत लाया गया। मुसलमानों और अन्य धर्मों को अपने-अपने कानूनों का पालन करने की स्वतंत्रता दी गई थी।
हैरानी की बात है कि आज़ादी के बाद भी सामान नागरिक संहिता के विचार को संविधान सभा के सभी दिग्गजों, परंपरावादी कांग्रेसियों और मुसलमानों ने सिरे से खारिज कर दिया। वे धार्मिक पहचान के आधार पर व्यक्तिगत कानूनों की रक्षा के लिए एकजुट हुए। सामान नागरिक संहिता को हिंदू सभ्यता पर हमले के साथ-साथ एक धार्मिक अल्पसंख्यक की पहचान के लिए खतरा माना गया। ऐसी संहिता का विरोध विधायिका के अंदर और बाहर दोनों जगह इतना बढ़ गया कि अखिल भारतीय महिला सम्मेलन और डॉ भीमराव अम्बेडकर की पुरजोर मांग के बावजूद सामान संहिता की योजना को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा।