बड़े खतरे की ओर उत्तराखंड, नेपालियों को सौंप रहे हैं अपने खेत

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Published on: 19 Jan 2018 10:42 AM GMT
बड़े खतरे की ओर उत्तराखंड, नेपालियों को सौंप रहे हैं अपने खेत
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वर्षा सिंह

उत्तराखंड राज्य के गठन के बाद से यहां बनी सरकारों के नकारा रवैये से पलायन की समस्या अपने विकराल रूप में सामने आ चुकी है। गांव के गांव निर्जन हो रहे हैं। जिन्हें सरकार तक 'घोस्ट विलेज' पुकार रही है। 2011 के जनसंख्या आंकड़े बताते हैं कि राज्य के करीब 17 हजार गांवों में से एक हजार से ज्यादा गांव पूरी तरह खाली हो चुके हैं। जबकि वास्तविकता कहीं अधिक भयावह है। 2013 की कृषि सांख्यिकी डायरी के अनुसार तीन हजार से ज्यादा गांव खाली हो चुके हैं। 400 गांवों में दस से कम की आबादी रह गई है। करीब एक करोड़ की आबादी वाले इस राज्य की पर्वतीय क्षेत्र में रहने वाली 60 लाख की आबादी में से आधे से ज्यादा 32 लाख लोगों का पलायन हो चुका है। राज्य में 968 गांव घोस्ट विलेज घोषित किए जा चुके हैं।

बताया जाता है कि पलायन का फायदा नेपाली नागरिक उठा रहे हैं। जिन खेतों को बंजर कह कर पहाड़ के लोग दिल्ली या अन्यत्र नौकरी करने के लिये निकल जाते हैं उन्हीं खेतों में नेपाली नागरिक सब्जियां उगा रहे हैं और अपने परिवार को पाल रहे हैं। जो लोग पहाड़ों में मौजूद हैं भी, वे खुद खेती नहीं कर रहे बल्कि अपने खेत नेपाली मजदूरों के हवाले कर दे रहे हैं। यही वजह है कि पर्वतीय जिलों में नेपाली नागरिकों की अच्छी खासी तादाद है। यहां के स्कूलों में नेपाली बच्चों की बड़ी संख्या है।

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पहाड़ से पलायन रोकने के अभियान में लगे रतन सिंह असवाल बताते हैं कि पहाड़ में कन्स्ट्रक्शन से जुड़ी ज्यादातर जगहों पर मुस्लिम मजदूर या मिस्त्री मिलते हैं। मूल पहाड़ी मजदूर या मिस्त्री बमुश्किल मिलेगा। रामपुर, बिजनौर, मुरादाबाद जैसे उत्तर प्रदेश के नजदीकी जिलों से भी मुस्लिम कारीगर पहाड़ों का रुख करते हैं। वे वहां नाई की दुकान चलाते हैं, बढ़ई का काम करते हैं या इसी तरह के दूसरे स्किल्ड वर्क से जुड़े हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि पर्वतीय जन ने इस तरह के कामों से तौबा कर लिया है।

पलायन आयोग के अध्यक्ष डॉ एसएस नेगी के मुताबिक पलायन को लेकर लोगों में तथ्यात्मक जानकारी कम है और हल्ला ज्यादा मचाया गया है। अगर पलायन हो भी रहा है तो ऐसा नहीं कि गांव के लोग दिल्ली-देहरादून ही भाग रहे हैं। वे नजदीकी कस्बों और जिलों का भी रुख कर रहे हैं। डॉ नेगी ने बताया कि पलायन आयोग इस महीने राज्य में ग्राम पंचायत स्तर पर एक अध्ययन कर रहा है ताकि असल आंकड़ों पर पलायन की समस्या को समझा जा सके। डॉ. नेगी मानते हैं कि नेपाली नागरिकों की संख्या उत्तराखंड में बढ़ी है। नेपाल की सीमा से बसों में बड़ी संख्या में नेपाली नागरिक रोजगार की तलाश में उत्तराखंड आते हैं। लेकिन आधिकारिक तौर पर अभी तक इस दिशा में कोई कार्य नहीं किया गया। न ही ऐसा करना उनकी योजना में फिलहाल शामिल है।

पलायन फैशन व देखादेखी की होड़ में

उत्तराखंड में पलायन रोकने के लिए जन जागरूकता के काम में जुटे सुधीर सुंद्रियाल इसकी कुछ और ही वजह बताते हैं। सुधीर सुंद्रियाल खुद नोएडा की एक कंपनी में काम कर वापस अपने गृह नगर पौड़ी गढ़वाल आ गए। वे खुद हॉर्टिकल्चर से जुड़े। यहां उन्होंने फूलों की खेती से अच्छी आमदनी जुटाई। लोगों को अपने ही गांव, अपने शहर में रहने और रोकने के लिए काम कर रहे सुधीर बताते हैं कि दरअसल पलायन शिक्षा, स्वास्थ्य या रोजगार के लिए नहीं हो रहा।पलायन दरअसल एक तरह का फैशन और देखा-देखी की होड़ में हो रहा है। एक दूसरे को देख कर लोग देहरादून और दिल्ली की ओर भाग रहे हैं।

वही स्कूल पौड़ी में भी है लेकिन लोग अपने बच्चों को देहरादून के उसी दर्जे के स्कूल में पढ़ाने को तैयार हैं। जितनी आमदनी उनकी अपने गृह नगर में आसानी से हो जा रही है, उतनी ही तनख्वाह की नौकरी के लिए वे दिल्ली में रहने को तैयार हैं। पौड़ी गढ़वाल में राज्य के अन्य जिलों की तुलना में अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाएं हैं, बेहतर रोजगार के संसाधन हैं लेकिन सबसे ज्यादा पलायन पौड़ी गढ़वाल से हुआ। उत्तरकाशी या चंपावत जैसे दुर्गम पर्वतीय जिलों की तुलना में पौड़ी से पलायन अधिक है। सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि नेपाली नागरिक परिवार समेत उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों मे बस रहे हैं। वे मेहनतकश हैं, बंजर खेतों को हरा भरा बना रहे हैं।

सुधीर सुंद्रियाल कहते हैं कि दरअसल महिलाओं ने पलायन कर दिया है। वे अब पहाड़ों में नहीं रहना चाहतीं। वे नहीं चाहती कि उनकी बेटियों का ब्याह पहाड़ में हो। योजना आयोग के आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं। योजना आयोग के आंकड़ों के मुताबिक उत्तराखण्ड से रोजगार के लिए प्रति एक हजार की तुलना में 151 पुरुष पलायन कर रहे हैं। जबकि प्रति हजार पर 539 (539/1000) महिलाएं रोजगार, वैवाहिक या पारिवारिक पलायन करती हैं। जिसमें सबसे अधिक दर वैवाहिक पलायन की है। इसका असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है। उत्तराखंड में लिंग अनुपात घटकर 886/1000 हो गया है। पिथौरागढ़ में बलिकाओं की संख्या 842/1000 रह गई है। योजना आयोग ने इसे खतरे की घंटी बताया।

उत्तराखंड में दोगुनी हुई मुस्लिम आबादी

2011 में जनगणना से मिले आंकड़े बताते हैं कि राज्य में मुस्लिमों की संख्या बढ़कर दोगुनी हो गई है। वर्ष 2016 में उत्तराखंड से करीब 1406 यात्री हज के लिए रवाना हुए। नियम के मुताबिक आबादी के लिहाज से 0.1 फीसद मुस्लिमों को हज पर जाने की इजाजत होती है। वर्ष 2015 में उत्तराखंड से हज जाने वाले यात्रियों की संख्या 772 थी। 2016 में 2011 की जनगणना के आधार पर हज यात्रियों की संख्या बढ़ाने की मांग की गई। 2001 की जनगणना की तुलना में 2011 में जनगणना में मुस्लिमों की संख्या करीब दो गुना हो जाने की वजह से ये संभव हुआ था। वर्ष 2011 की जनगणना में प्रदेश में मुस्लिमों की संख्या 14 लाख छह हजार के आधार पर 1406 लोगों का हज कोटा निर्धारित हुआ।

उत्तराखंड बनने के बाद 35 फीसद आबादी ने किया पलायन

जनगणना, 2011 के आंकड़े बताते हैँ कि पहाड़ में राज्य बनने के बाद करीब पैंतीस फीसदी आबादी ने अपने मूल स्थानों से पलायन किया । वर्ष 1991 से लेकर 2011 तक के आंकड़ों का विक्ष्लेषण करने पर पता चलता है कि सोलह सालों में उत्तराखंड में 32 लाख लोगों ने पलायन किया है। चुनाव आयोग के अनुसार, प्रतिदिन 246 लोग उत्तराखण्ड से रोजगार, बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं के लिये पलायन कर रहे हैं। राज्य में लगभग 968 गांव खाली हो चुके हैं ।

लगभग 1000 गांवों में 100 से कम, तथा 3900 गांवो में 50 या उससे कम लोग है । 2001 से 2011 के बीच दस सालों में उत्तराखंड की आबादी 19.17 फीसदी बढ़ी और इससे भी ज़्यादा बढ़ा पहाड़- मैदान का अंतर. ग्रामीण क्षेत्रों में आबादी में वृद्धि 11.34 फीसदी रही जबकि मैदानी क्षेत्रों में यह करीब चार गुना अधिक 41.86 फीसदी रही । वर्ष 2001 में पौड़ी की कुल जनसंख्या थी 3,66,017 जो 2011 में 3,60,442 हो गई । 10 साल में आबादी 5,575 घट गई। अल्मोड़ा में 2001 में 3,36,719 लोग रहते थे जो 2011 में 3,31,425 ही रह गए. इस तरह आबादी 5,294 घट गई।

पलायन रोकने के उपाय

राज्य सरकार पलायन रोकने के लिए तमाम योजनाओं पर कार्य कर रही है। मॉडल गांव विकसित करने, 2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने, 2022 तक राज्य के हर घर में बिजली पहुंचाने, सेल्फी फ्रॉम माई विलेज, मेरा गांव मेरा तीर्थ जैसी योजनाएं चला रही है। हॉर्टिकल्चर को बढ़ावा दे रही है। लेकिन पहाड़ों की सच्चाई ये है कि यहां बुनियादी सुविधाएं अब तक नहीं पहुंच सकीं।

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सीमा शर्मा लगभग ०६ वर्षों से डिजाइनिंग वर्क कर रही हैं। प्रिटिंग प्रेस में २ वर्ष का अनुभव। 'निष्पक्ष प्रतिदिनÓ हिन्दी दैनिक में दो साल पेज मेकिंग का कार्य किया। श्रीटाइम्स में साप्ताहिक मैगजीन में डिजाइन के पद पर दो साल तक कार्य किया। इसके अलावा जॉब वर्क का अनुभव है।

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