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उत्तराखंड में होली रंगों से ज्यादा गीत-संगीत से खेलने की परंपरा
वर्षा सिंह
देहरादून: उत्तराखंड में होली रंगों से ज्यादा गीत-संगीत से खेलने की परंपरा रही है। होली यानी शाम से ही गीत-संगीत की महफिलें। हारमोनियम, ढोल, ढफली पर फूटते सुरों के रंग। क्या अवधी, क्या ब्रज, उत्तराखंड की होली में सब भाषाओं के शब्द घुले मिले रस-रंग लेकर आते हैं।
कुमाऊं की खड़ी और बैठकी होली बहुत मशहूर है। खड़ी होली में महिलाएं और पुरुष गोल घेरा बनाकर गाते हैं और नृत्य करते हैं। खड़ी होली आमतौर पर मंदिरों में या घर के आंगन में खेली जाती है। जबकि बैठकी होली यानी महिला-पुरुष की टोलियां घरों में इकट्ठा होती हैं और रात भर गीत-संगीत की परंपरा चलती है। पुरुषों की बैठकी अलग लगती है और महिलाओं की बैठकी अलग।
बैठकी होली रागों में निबद्ध होती है। पुरुष लोग शाम सात बजे से आधी रात तक और कई बार भोर तक होली गाते हैं। राग के समय के अनुसार ये होलियां गायी जाती हैं। जैसे भैरवी सुबह के समय गाई जाती है। यमन राग पर आधारित होली शाम के समय गाई जाती है। ठुमरी गाते हैं। तीव्र राग पर होली के सुर ज्यादा चढ़ते हैं। जैसे काफी राग पर आधारित...चंद्र बदन खोलो द्वार तिहारे मनमोहन खड़े...। काफी राग और मालकौस राग पर होली के गीत खूब चढ़ते हैं।
अल्मोड़ा की लेखिका भारती पांडे कुमाऊंनी होली के बारे में बताती हैं कि दिसंबर में पौष महीने के पहले इतवार से होली शुरू हो जाती है। क्योंकि पहाड़ों में इस दौरान काम नहीं होता। गेहूं की बुवाई की जा चुकी होती है। इस दौरान कुछ और खेती-बाड़ी नहीं होती। तो समय व्यतीत करने के लिए लोग बैठकी कर गीत-संगीत की मधुर यात्रा पर निकल पड़ते हैं इस दौरान प्रकृति से संबंधित गीत गाए जाते हैं।
‘आयो नवल बसन्त सखी ऋतुराज कहायो, पुष्प कली सब फूलन लागी, फूल ही फूल सुहायो’
राग बागेश्वरी में
‘अजरा पकड़ लीन्हो नन्द के छैयलवा अबके होरिन में’
शिवरात्रि के समय शिव मंदिर में शिव की होली गाते हैं। कुमाऊं में इस दौरान बागेश्वर के बागनाथ मंदिर की विशेष मान्यता रहती है।
शिव के मन मांहि बसे काशी’,
‘जय जय जय शिव शंकर योगी’
फिर अष्टमी में देवी के मंदिर में होली गायी जाती है। यहां से लोग घर-घर में होली गाना शुरू करते हैं।
रंग एकादशी के दिन हर घर से चीर यानी रंग बिरंगे कपड़े के टुकड़े इक_ा करते हैं। मेहुल की लकड़ी में कपड़ों की चीर बांधते हैं। एक चीर भोलेनाथ के नाम की होती है। लोग अपने कुल देवता और इष्ट देवता के नाम की चीर बांधते हैं। सफेद, पीली और लाल चीर देवताओं के नाम पर बांधी जाती है। इसके अलावा भी सभी रंगों की चीर बांधते हैं। इस चीर को घर घर घुमाया जाता है और गीत गाए जाते हैं। जैसे
कोई बांधे चीर हो रघुनंदन राजाजी...दामोदर बांधों चीर हो रघुनंद राजा जी
या
करले अपण सिंगार राधिका, तेरे अंगना होली आय गई
आय गई दिन रात राधिका, तेरे अंगना होली आय गई
होली का समय जैसे जैसे नजदीक आता है बैठकी और खड़ी होली परवान चढऩे लगती है। लोग एक दूसरे को रंग गुलाल लगाते हैं फिर होली के गीत गाते हैं। खासतौर पर देवर-भाभी, जेठानी-देवरानी, जीजा-साली के रंग गुलाल खेलने की परंपरा है।
कुमाऊंनी होली और इसके गीत 150-200 वर्ष पुराने चंद शासन के समय से चले आ रहे हैं। पहले दरबारों में गीत गाए जाते थे। इसलिए होली के गीतों में दरबारी छाप भी दिखती है। ऊर्दू शब्द भी आते हैं। ब्रज और अवध के गीत तो पहाड़ों में गाए ही जाते हैं। कुमाऊंनी होली की एक और ख़ास बात यहां का स्वांग है। पुरुषों की पोशाक पहन कर महिलाएं स्वांग करती हैं, इन स्वांग में कई बार सामाजिक कुरीतियों पर कटाक्ष भी किए जाते हैं।
कुमाऊं की तरह ही गढ़वाल की होली में भी गीत-संगीत ज्यादा रचा-बसा है। गढ़वाल की होली दरवाजे दरवाजे जाकर गा-गाकर संगीत की तान छेडऩी की होली है। पहाड़ी टोपी पहने पुरुष और पारंपरिक पोशाक में महिलाएं ढपली की थाप पर गोल घेरे में नाचती हैं। एक दूसरे को सुरों की तान देते हैं। उत्तराखंड की धाद संस्था के स्थापक लोकेश नवानी कहते हैं कि होली के एक महीन पहले बसंत पंचमी से ही उत्सव के रंग छाने शुरु हो जाते थे। गढ़वाल में बसंत पंचमी के दिन मेहुल पौधे की टहनी काटकर जमीन में गाड़ देते थे। उस पर रंग बिरंगे कपड़ों की झंडियां लगाते थे। फिर गीत-संगीत के दौर शुरू हो जाते। होलिका दहन तक ये गीत संगीत की महफिले जमतीं। गढ़वाल में रंगों से होली खेलने की परंपरा नहीं थी। होली मतलब सामूहिक गीत-संगीत, नृत्य।