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बहुत याद आएंगे उत्तराखंड आंदोलन के महान योद्धा बमराड़ा

raghvendra
Published on: 23 Feb 2018 7:55 AM GMT
बहुत याद आएंगे उत्तराखंड आंदोलन के महान योद्धा बमराड़ा
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देहरादून: उत्तराखंड आंदोलन के महान योद्धा और ताउम्र संघर्षशील रहे वयोवृद्ध आंदोलनकारी बाबा मथुरा प्रसाद बमराड़ा खामोशी से इस दुनिया को विदा कह गए। 80 वर्षीय बाबा बमराड़ा का पिछले डेढ़ साल से दून अस्पताल में इलाज चल रहा था। मूल रूप से पौड़ी जनपद निवासी बमराड़ा न सिर्फ उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन में कई बार भूख हड़ताल पर रहे बल्कि राज्य गठन के बाद भी गैरसैंण को स्थाई राजधानी बनाने को लेकर संघर्षरत रहे। अफसोस की बात है कि ऐसे महान आंदोलनकारी अंतिम संस्कार चंदा लेकर किया गया। ताउम्र संघर्षरत रहे बाबा बमराड़ा इस बात से दुखी थे कि जिन उद्देश्यों को लेकर अलग राज्य का गठन हुआ और आंदोलनकारियों ने शहादतें दीं, वो उद्देश्य राज्य गठन के 17 साल बाद भी पूरे नहीं हो सके। पिता की बीमारी व आर्थिक तंगी के दौरान भी उनके बेरोजगार पुत्र ने स्वाभिमानी पिता के नक्शे कदम पर चलते हुए कभी भी कहीं हाथ नहीं फैलाया।

बाबा बमराड़ा उन आंदोलनकारियों में से थे जो अलग राज्य गठन की मांग को लेकर 1994 से पहले से आंदोलनरत थे। उत्तराखंड बनने के बाद उन जैसे आंदोलनकारी की घोर उपेक्षा हुई है। सत्ता में आई राजनीतिक पार्टियों ने तो उन्हें नजरअंदाज किया। उत्तराखंड क्रांति दल और आंदोलनकारी संगठनों के लिए भी उनकी कोई अहमियत नहीं रही। बाबा बमराड़ा किस हाल में हैं, किस तरह जीवन यापन कर रहे हैं, इसकी सुध किसी ने नहीं ली। उस उत्तराखंड क्रांति दल ने भी नहीं जो खुद को इस राज्य के निर्माण का सूत्रधार कहता है।

बमराड़ा का जन्म 1941 में ब्रिटिश गढ़वाल के इडवाल्स्यु पट्टी के ग्राम पडियां में हुआ था। मां परमेश्वरी का निधन होने पर पिता कुलानंद बमराड़ा ने उनका लालन पालन किया। बचपन में वह गांव के पास किशौली प्राथमिक स्कूल में पढ़े। बाद में उनके पिता ने संस्कृत की पढाई के लिए मथुरा भेजा। वह फिल्मों में भाग्य आजमाना चाहते थे। लिहाजा, मुंबई में एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियो घूमे, मगर बात नहीं बनी। 1967 में उनके पिता ने उनके लिए फिर दिल्ली में चश्मे की दुकान खोली। लेकिन किस्मत ने साथ नहीं दिया। चश्मे की दुकान में आग लग गई। 1969 में जिस समय वह दिल्ली आए उत्तराखंड की कई संस्थाएं संस्कृति और लोकमंचों पर काम कर रही थीं। इसी समय एक बार रेडियो में एक ऐसा रूपक आया था, जिसमें गहने चुराने वाले पात्र को गढ़वाल के एक जिले का बताया गया था। इस पर दिल्ली में पहाड़ के जो लोग थे उन्होंने ऐतराज जताया और प्रदर्शन किया।

बाबा बमराड़ा के जीवन पर वरिष्ठ पत्रकार ललित मोहन कोठियाल ने संघर्षनामा एक राज्य आंदोलनकारी शीर्षक से पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने कहा है कि इस घटना से ही बाबा बमराड़ा के मन में उत्तराखंड के सरोकारों के प्रति भावना जागी। वह सक्रिय होकर अलग राज्य की बात करने लगे थे। उन्हें लगा कि अलग राज्य की मांग को तेज करने के लिए दिल्ली नहीं, बल्कि पहाड़ों में अलख जगानी पड़ेगी। सो, वे पहाड़ों की ओर लौट आए और अपना पूरा जीवन उत्तराखंड के लिए समर्पित कर दिया। अपनी युवास्था के दौर में वे कुछ समय संघ के मुखपत्र पांचजन्य से भी जुड़े।

बाबा बमराड़ा उत्तराखंड राज्य आन्दोलन के शुरूआती दौर के सिपाहियों में रहे। राज्य के लिये वे पहली बार 1973 में दिल्ली में जेल गये। जलूस निकालने पर निषेधाज्ञा तोडऩे के आरोप में पुलिस ने तब जिन 45 लोगों को गिरफ्तार कर तिहाड़ जेल भेजा था, उनमें वे भी एक थे। राज्य आन्दोलन को पहाड़ में लाने का श्रेय भी बमराड़ा को ही है।

इमरजेंसी के बाद हुए लोकसभा चुनावों में नानाजी देशमुख मथुरा प्रसाद बमराड़ा को गढ़वाल सीट से जनसंघ का सांसद प्रत्याशी बनाने के इच्छुक थे। मगर सीएफडी नेता एचएन बहुगुणा को पहाड़ से जनता पार्टी पार्टी के प्रत्याशियों के चयन की जिम्मेदारी मिलने पर बमराड़ा का नाम कट गया। बमराड़ा ने पौड़ी को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। उन्होंने 1980 के बाद स्थानीय बेरोजगारों के लिए नेता कुंजबिहारी नेगी के साथ अनेक आन्दोलनों में भागीदारी की। वे बाबा बमराड़ा के नाम से लोकप्रिय हो गये। इस बीच उत्तराखंड क्रांति दल का भी गठन हुआ, मगर बमराड़ा ने ‘उत्तराखण्ड रक्षा मंच’ का स्वतंत्र अस्तित्व बनाये रखा। राज्य की माँग को लेकर उन्होंने दो बार संसद व दो बार विधान सभा का चुनाव लड़ा। राज्य बन जाने के बाद भी बाबा बमराड़ा धारा 371 को लागू करने, मूल निवास, परिसीमन आदि के मुद्दे उठाते रहे। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर तंग होने के कारण चुनाव नहीं जीत सके।

उक्रांद के नेता सुनील ध्यानी और राज्य आंदोलनकारी मंच के महामंत्री रामलाल खंडूरी का कहना है कि बाबा बमराड़ा का जीवन बहुआयामी था। बाबा बमराड़ा जैसे आंदोलनकारियों के कारण ही उत्तराखंड आंदोलन धार पाया था। स्व. इंद्रमणि बडोनी के साथ वह कदम से कदम मिलाकर आंदोलन से जुड़े रहे। उत्तराखंड कांग्रेस के मुख्य प्रचार समन्वयक एवं पूर्व राज्य मंत्री धीरेन्द्र प्रताप ने भी उनके निधन पर शोक जताया।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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