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वाल्मीकि जयंती — सत्य के ज्ञान से परिचित करवाते महर्षी वाल्मीकि
वाल्मीकि को संस्कृत साहित्य का पहला महाकवि कहा जाता है। उन्होंने ही संस्कृत में पहले महाकाव्य की रचना की थी जिसे दुनिया वाल्मीकि रामायण के नाम से जानती है।
कर्मफल-यदाचरित कल्याणि ! शुभं वा यदि वाऽशुभम् । तदेव लभते भद्रे! कर्त्ता कर्मजमात्मनः ॥
भावार्थ :
मनुष्य जैसा भी अच्छा या बुरा कर्म करता है, उसे वैसा ही फल मिलता है । कर्ता को अपने कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है ।
लखनऊ : वाल्मीकि को संस्कृत साहित्य का पहला महाकवि कहा जाता है। उन्होंने ही संस्कृत में पहले महाकाव्य की रचना की थी जिसे दुनिया वाल्मीकि रामायण के नाम से जानती है। वाल्मीकि को महर्षि वाल्मीकि कहा जाता है, और ये आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। प्रथम संस्कृत महाकाव्य की रचना करने के कारण वाल्मीकि आदिकवि कहलाये। महर्षि वाल्मीकि को भगवान श्री राम के समकालीन माना जाता है। इनके वाल्मीकी बनने के पीछे कुछ दन्त कथाएं हैै। बचपन में ये बहुत शरारती थे। पर नियति को कुछ और ही मंजूर था जो इन्हे प्ररित करते हुए एक असाधारण विद्वान बना दिया।
महर्षी वाल्मीकि के काव्य रचना की प्रेरणा के बारे में उन्होंने खुद लिखा है। हुआ यूं कि एक बार महर्षि क्रौंच पक्षी के मैथुनररत जोड़े को निहार रहे थे। वो जोड़ा प्रेम में लीन था तभी उनमें से एक पक्षी को किसी बहेलिये का तीर आकर लग गया और उसकी वहीं मृत्यु हो गई। ये देख महर्षि बहुत ही दुखी और क्रोधित हुए। इस पीड़ा में महर्षि के मुख से एक श्लोक फूटा जिसे संस्कृत का पहला श्लोक माना जाता है।
मां निषाद प्रतिष्ठां त्वगम: शाश्वती: समा:।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधी: काममोहितम् ।।
महर्षि वाल्मीकि को संस्कृत का ज्ञानी कहा जाता है। उनका जन्म दिवस आश्विन मास की शरद पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। संस्कृत के विद्वान महर्षि वाल्मीकि की खास पहचान महाकाव्य रामायण की रचना से है। रामायण को पहला महाकाव्य माना जाता है।नारद जी के ज्ञान के बाद वे महर्षि बन गए। महर्षि बनने के बाद वाल्मीकि जी ने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना की।ज्ञान की प्राप्ति के बाद वो रत्नाकर वन में कई सालों तक तप करने के लिए चले गएं। कहा जाता है कि तपस्या के दौरान उनके शरीर पर चीटिंयों ने अपना घर बना लिया। इतनी तकलीफ में भी वाल्मिकी जी ने अपनी तपस्या भंग नहीं की।
उत्साह-उत्साहो बलवानार्य नास्त्युत्साहात्परं बलम् । सोत्साहस्य हि लोकेषु न किञ्चदपि दुर्लभम् ॥
भावार्थ :
उत्साह बड़ा बलवान होता है; उत्साह से बढ़कर कोई बल नहीं है । उत्साही पुरुष के लिए संसार में कुछ भी दुर्लभ नहीं है ।
वाल्मीकि जयंती — सत्य के ज्ञान से परिचित करवाते महर्षी वाल्मीकि
इस तरह नारद जी ने वाल्मीकि जी को सत्य के ज्ञान से परिचित करवाया और उन्हें राम-नाम को जपने का उपदेश भी दिया। लेकिन खास बात ये है कि वो वह 'राम' नाम का उच्चारण नहीं कर पाते थे। तब नारद जी ने उन्हें एक उपाय बताया कि वो मरा-मरा जपें। नारद जी के कहने पर महर्षि वाल्मिकी ने मरा रटते-रटते यही 'राम' हो गया। गौरतलब है कि इस बार महर्षि वाल्मिकी जयंती 5 अक्टूबर को देशभर में मनाई जाता है। इस दिन शरद पूर्णिमा भी है।
निरुत्साहस्य दीनस्य शोकपर्याकुलात्मनः । सर्वार्था व्यवसीदन्ति व्यसनं चाधिगच्छति ॥
भावार्थ :
उत्साह हीन, दीन और शोकाकुल मनुष्य के सभी काम बिगड़ जाते हैं , वह घोर विपत्ति में फंस जाता है ।