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Vijay Diwas: आजाद भारत की महान् उपलब्धि 16 दिसंबर 1971
Vijay Diwas: विजय हमारी हुई क्यों कि हथियारों से अधिक, हथियारों के पीछे खड़ा आदमी महत्वपूर्ण होता है
Vijay Diwas: 16 दिसंबर 1971 के दिन हम सब एक नये देश बांग्लादेश के जन्म के गवाह बने थे। वैश्विक परिस्थितियां विपरीत थीं।चीन व अमेरिका में नये सम्बंध विकसित हो रहे थे।वह कीसिंगर की कूटनीति का दौर था।25 मार्च को ढाका में पाकिस्तानी सेना की भीषण हिंसा के बाद पूर्वी पाकिस्तान जैसे रातोंरात दूसरा देश बन गया था। जिस तरह से लगातार नरसंहार, बलात्कार का अभियान चला वैसा किसी भी सेना ने अपने नागरिकों के साथ न किया होगा।तीस लाख बंगालियों का नृसंश नरमेध हुआ।प्रतिकार व प्रतिक्रियाओं ने बांग्लादेश को जन्म दिया।
पाकिस्तान का दुर्भाग्य उसके साथ साथ चला।व्यवस्था लोकतंत्र की थी पर वे अपना संविधान तक न बना सके।हिंदू विधिमंत्री योगेंद्र नाथ मंडल को देश छोड़कर भागना पड़ा। प्रधानमंत्री लियाकत अली की आर्मी हेडक्वार्टर में हत्या हो गयी।नौकरशाही व सेना के गठजोड़ के शासन के बाद 1958 से जनरल अय्यूब खान का सैन्य शासन आ गया।जनरल याह्या खान सैन्य शासक थे ।जब पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार निष्पक्ष चुनाव हुए।शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग का नेशनल एसेंबली में पूर्ण बहुमत आ गया।मुजीबुर्रहमान भुट्टो व सेना के लिए बतौर प्रधानमंत्री अस्वीकार्य थे।पाकिस्तानी सेना की आम नागरिकों पर की जा रही अत्याचार की कथाओं ने भारतीय जन मानस को हिला कर रख दिया।
इंदिरा गांधी ने जनरल मानेक शा को सैन्य कार्यवाही का निर्देश तो दिया।लेकिन लक्ष्य क्या है ? परिभाषित नहीं किया गया।इस सैन्य कार्यवाही के राजनैतिक व सैन्य लक्ष्य नियत नहीं किये गये।क्या लक्ष्य बढ़ते जा रहे शरणार्थियों के लिए पूर्वी पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में बसा देने तक सीमित था ? क्या बंगालियों को स्वायत्तता दिलाना हमारा लक्ष्य था ? बांग्लादेश की आजादी से हमारी मूल कश्मीर समस्या का भी कोई समाधान था ? क्या पश्चिमी मोर्चे पर बड़े लक्ष्य की आवश्यकता नहीं थी ?हमारे राजनैतिक मानस की सोच अपने को पाकिस्तान के बराबर का देश मानने तक सीमित रही है।हमारे अहिंसक नेतृत्व के लिए सेना एक बोझ थी।नेहरूजी ने कश्मीर युद्ध में युद्धविराम कराने के बाद तीन लाख की सेनाओं में एक लाख को रिटायर कर घर भेजने का निर्णय ले लिया था।
पचास हजार को भेज भी दिया था।विरोध बढ़ा तब कहीं जाकर शेष सैनिकों का घर जाना रुक सका।नेहरू के लिए युद्वविराम के बाद कश्मीर कोई समस्या था ही नहीं।ऐसी परिस्थितियों में हम सेनाओं के मनोबल की कल्पना कर सकते हैं।युद्धविराम न थोप दिया गया होता तो यही सेना कश्मीर मुक्त करा लेती, उसके साथ ऐसा व्यवहार समझ से परे है।कैबिनेट की बैठक में जनरल मानेक शा ने पूर्वी पाकिस्तान में तत्काल सैन्य कार्यवाही से यह कह कर मना कर दिया कि हम अभी तैयार नहीं हैं।क्रोध में आकर इंदिरा जी ने बैठक स्थगित कर दी जो अपरान्ह में दुबारा नियत की गयी।बहरहाल, मानेक शा ने कैबिनेट को रणनैतिक पक्ष से अवगत कराया।तैयारियों के बाद नवंबर के अंतिम सप्ताह से हमारी सेनाएं पूर्वी पाकिस्तान में तीन दिशाओं से प्रवेश करने लगी थीं।लक्ष्य था ढाका !
मानेक शा जैसा नेतृत्व था तो सैन्य मनोबल में कोई कमी नहीं थी।विक्रांत एयरक्राफ्ट कैरियर, रिपेयर के बीच में ही आकर बंगाल मोर्चे पर हाजिर था।उसके सी हाक व एलिजे फाइटर्स विमानों ने काक्स बाजार व चटगांव के बंदरगाहों को अपने आक्रमणों से अक्षम कर दिया।पिस्टन इंजन से चलने वाले बीते जमाने के उन फाइटर्स ने अपनी अपेक्षाओं से बढ़ कर काम किया।अंततः विजय हमारी हुई क्यों कि हथियारों से अधिक, हथियारों के पीछे खड़ा आदमी महत्वपूर्ण होता है।विश्व अवगत था लेकिन नैतिकता व मानवीयता के आधार पर भी कोई बांग्लादेशियों के समर्थन हमारे साथ नहीं आया।विश्व के देशों, अमेरिका व संयुक्त राष्ट्रसंघ के लिये लाखों बंगालियों का नरसंहार जैसे कोई मुद्दा ही नहीं था।
हमारी सेनाएं अपने अभियान में थीं।इंदिरा गांधी वैश्विक कूटनीतिक दबावों को अपनी क्षमतानुसार झेल रही थीं।विश्वास था कि हमारी विजय होगी तो फिर यही दुनिया बदल जायेगी।संसार सफलता का साथी होता है।उधर ढाका का घेर कसता जा रहा था।निक्सन- कीसिंगर की कूटनीति-रणनीति असफल हो रही थी।वे डर रहे थे कि बांग्लादेश में आत्मसमर्पण होते ही भारत कहीं पश्चिमी पाकिस्तान को लक्ष्य न बना ले।वे दोनों परेशानहाल, रूस पर दबाव बनाने में लगे थे।सुरक्षा परिषद के युद्धविराम के प्रस्तावों को सोवियत रूस लगातार वीटो कर रहा था।निक्सन ने तो चीन को भी उकसा कर भारत के विरुद्ध सेनाएं भेजने का अनुरोध किया।बाजी उनके हाथ से निकलती जा रही थी।
उस दिन जनरल गंधर्व नागरा ने जनरल नियाजी को संदेश भेजा, 'प्रिय अब्दुल्ला, तुम अपने को हमारे हवाले कर दो।हम तुम्हारा खयाल रखेंगे।’ नियाजी को पाकिस्तान से झूठे आश्वासन आ रहे थे।जनरल नागरा नियाजी को पाकिस्तान में अपने मिलिटरी अटैची रहने वाले दिनों से जानते थे।नियाजी के सामने असंभव सी परिस्थितियां हैं।जनरल जैकब अचानक ढाका पहुंच जाते हैं. 'कोई फायदा नहीं है जनरल साब।सरेंडर करें, आपका खयाल रखा जाएगा.' कोई रास्ता नहीं है. फिर सहमति बनती है।नियाजी के लिए जनरल अरोड़ा का संदेश है।नियाजी की हिचकियां बंध जाती है।वह कहता है, ' पिंडी में बैठे हरामजादों ने मरवा दिया.' यह एक बड़ी स्वीकारोक्ति थी।
अपनी यूनिट 65 फील्ड रेजीमेंट के जवानों से मैंने ढाका विजय के बहुत से किस्से सुने थे कि किस तरह हमने अपनी तोपों को नौ हिस्सों में खोल कर कभी खेतों की पगडंडियों से, कभी खच्चरों से, कभी रिक्शों तांगों से चले. गन पोजीशनों में पहुंचे, तोपें जोड़ी, मोर्चे लगाये, गोले दागे फिर खोल कर आगे चल पड़े।यह उनका 'फायर एण्ड मूव' था। दब्बी चल, दब्बी चल. हमारी पलटन की 'वार क्राई' 'चढ़ जा छोरे ' जबरदस्त जोश भरने वाला नारा था। वे बताते कि किस तरह हमने ढाका में पहले पहल गोले दागे।किस तरह रात रात रेल की पटरियों पर टैंकों के पीछे तोपखाना चला।क्या हुआ जब गन पोजीशन पर हमला आ गया।रजाकारों के द्वारा किये गये अत्याचारों की खून खौला देने वाले वृत्तांत भी बहुतायत से थे।पाकिस्तानियों के लिये जबरदस्त घृणा थी।
हमारे यहां विदेश व रक्षा नीतियों को भूराजनैतिक विमर्श के बगैर चलाना, एक बड़ा संकट रहा है।राष्ट्रीय हित की सोच व शत्रुबोध तो अब विकसित हो रहा है।वरना हम अपने हितों को भूले वैश्विक शांति का झंडा लगाये आदर्शवाद के ऊंचे आकाश में उड़ते रहे थे।तीन युद्धों के बाद भी हमारी आंखें नहीं खुली थीं।आज जैसी गंभीरता है वह 1947-48 के प्रथम कश्मीर युद्ध के बाद ही आ जानी चाहिए थी।हमारा यह मान लेना कि बांग्लादेश अलग हो जाने से पाकिस्तान कोई समस्या न रहेगा, एक गलती थी। शिमला समझौता ? जो मिला वह वार्ता में गंवा दिया।पाकिस्तान को निर्बाध आणविक शस्त्र बनाने देना, हमारी सबसे बड़ी गलतियों में से एक है।सवाल हमारे दृष्टिकोण, शत्रुबोध व हमारी प्रतिबद्धताओं का है ।जिसके अभाव में किसी देश का एक बन पाना ही संभव नहीं है।1971 एक महान् विजय थी जो प्रतिफलों को गवां देने की कथा बन कर गयी !
( लेखक पूर्व सैनिक व पूर्व आईएएस अफ़सर रहे हैं।)