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राजनीति का Mega Show, पैदल मार्च से लेकर हवाई यात्रा तक का प्रचार तंत्र

देश की आजादी के बाद पहली बार जब 1952 में चुनाव हुआ तो प्रत्याशियों को अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए 06 महीने का समय दिया गया था। कहते हैं कि उस समय के लगभग 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रत्याशियों के पास साइकिल तक नहीं थी।

tiwarishalini
Published on: 17 April 2017 11:28 AM GMT
राजनीति का Mega Show, पैदल मार्च से लेकर हवाई यात्रा तक का प्रचार तंत्र
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Vijay Shankar Pankaj

लखनऊ: देश की आजादी के बाद पहली बार जब 1952 में चुनाव हुआ तो प्रत्याशियों को अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए 06 महीने का समय दिया गया था। कहते हैं कि उस समय के लगभग 90 प्रतिशत से ज्यादा प्रत्याशियों के पास साइकिल तक नहीं थी। उस समय देश में कांग्रेस पार्टी राजनीतिक रूप से जनता के बीच जानी जाती थी जबकि कहीं-कहीं सोशलिस्ट और वाममंथी दलों का रूझान था। पुराने कांग्रेसी नेता बताते हैं कि उस समय प्रचार के दौरान वे महीनों तक अपने गांव ही नहीं लौट पाते थे।

चुनाव प्रचार के लिए निकले प्रत्याशी पैदल ही कुछ सहयोगियों के साथ गांव-गांव जाते और जहां रात होती उसी गांव के किसी शुभचिंतक के वहां विश्राम कर लेते थे। फिर सुबह वैसे ही अन्य गांवों की पदयात्रा होती थी। उस समय साइकिल की सवारी कुछ जमींदारों या राजाओं को ही उपलब्ध थी। समय ने करवट ली। पहले चुनाव के 65 सालों में भारत में मजबूत होता लोकतंत्र आज प्रचार तंत्र में भी विश्व के तमाम विकसित देशों को पीछे छोड़ रहा है।

हालात यह हैं कि अमेरिका जैसे देशों की ब्रांडिंग करने वाली इंटरनेशनल लेवल की कई कंपनियां अब भारत के राष्ट्रीय से लेकर राज्य स्तरीय चुनावी दलों एवं नेताओं के लिए प्रचार से लेकर राजनीतिक एजेंडे तक सेट कर रही है। साल 2015 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग करने में प्रशांत किशोर (पीके) का नाम उभरा।

जो भारतीय राजनीति में जीत का मसौदा तैयार करते थे। बिहार विधानसभा चुनाव में नितीश कुमार की जीत का भी श्रेय पीके को ही मिला, लेकिन कांग्रेस और सपा के लिए पीके का फ़ॉर्मूला कारगर साबित नहीं हुआ। इसीलिए कहा जाता है कि भारतीय जनमानस विश्व के अन्य देशों से विरल है।

यहां अशिक्षा होते हुए भी व्यावहारिक रूप से भारतीय जनमानस काफी निर्णयात्मक होता है। देश में हुए तमाम चुनावों के निर्णयों ने भारतीय जनमानस की लोकतांत्रिक परिपक्वता का एहसास समय-समय पर कराया है। साल 1977 में कांग्रेस के गढ़ रायबरेली से तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हार और बाहरी राज नारायण की अविश्वसनीय जीत ने भारतीय लोकतंत्र और भारतीय जनमानस की परिपक्वता का ही एहसास कराया था।

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देश में आपातकाल लागू होने के बाद हुए चुनाव में नसबंदी के खिलाफ जनमानस को उद्वेलित करने वाले एक नारे ने पूरे उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। उस समय गांव-गांव में बच्चों की टोलियों में किए जाने वाले प्रचार से लेकर छोटी-छोटी जनसभाओं में भी यह नारा काफी चर्चित हुआ था। रायबरेली से कांग्रेस के एक विधायक थे, उन्हीं से यह नारा चला !! 'कहा रहे रामनाथ ... जब कटत रहे ...!!

भारतीय चुनावी प्रक्रिया में 60-70 के दशकों में प्रत्याशी गांव-गांव में अपने समर्थकों के माध्यम से शाम को बच्चों और अन्य कार्यकर्ताओं के माध्यम से टोलियां निकाल कर प्रचार करते थे। तब जनसभाओं में माइक की व्यवस्था होने लगी थी। प्रत्याशियों के लिए माइक की बुकिंग कराना बहुत ही कठिन काम होता था और तमाम लोगों को समय पर माइक भी नहीं मिल पाता था। गांवों की टोलियों में तरह-तरह के नारे लगते थे ... गली-गली में शोर है... 'विरोधी प्रत्याशी का नाम' चोर है। गली-गली में चाकू है....विरोधी प्रत्याशी डाकू है। ऐसे नारों को लेकर कई बार गांवों कें एक-दूसरे के समर्थकों में मारपीट भी हो जाती है। इस तरह के ज्यादातर नारे कम्युनिस्ट पार्टी वाले लगाते थे।

इस दौर में जनसंघ में राजनीतिक पार्टी के रूप में अपना वर्चस्व कायम कर चुकी थी। तब तक सांसदों एवं विधायकों के लिए आय का कोई स्रोत नहीं था। विभिन्न दलों के प्रत्याशियों की जनता में छवि और पार्टी की स्थिति के अनुरूप जनता से चुनाव लड़ाने के लिए चंदा मिलता था और पूरा खर्च उसी से चलता था। कई प्रत्याशी तो ऐसे होते थे जिन्हें उनकी लोकप्रियता में इतना चंदा मिल जाता था कि चुनाव बाद काफी दिनों तक उनके परिवार का भी खर्चा चल जाता था। इस चुनावी महाभारत में जमींदार और राजाओं की बढ़ती रूचि से प्रचार और

कार्यकर्ताओं के लिए पैसे की जरूरतें पूरी होनी लगीं। इन जमींदारों के यहां समर्थक प्रचारकों के लिए भोजन और खर्च के नाम पर पैसा दिया जाने लगा। कुछ समर्थकों को गांवों में जाने के लिए साइकिलें भी दी जाने लगीं। 1980 और 1985 के चुनाव में कांग्रेस ने पहली बार चुनाव को गति देने और कार्यकर्ताओं को अन्य दलों पर हावी करने के लिए नोट की थैली खोली। प्रत्याशियों को उनकी हैसियत के अनुसार जीपें दी गईं तो पैसा देकर समर्थकों को साइकिल बंटवाई गई। 1980 के लोकसभा चुनाव में हर कांग्रेस प्रत्याशी को 50 हजार तो विधानसभा के प्रत्याशी को 15 हजार रुपए दिए गए। बाद के चुनाव में यह धनराशि बढ़ती गई।

हालांकि कांग्रेस संगठन में भ्रष्टाचार ऐसा बढ़ा कि प्रत्याशियों को दिए जाने वाली धनराशि में ही ऊपर से बंदरबांट शुरू हो गई। इसके बाद धीरे-धीरे सभी दलों ने अपने प्रत्याशियों को चुनावी सहयोग देना शुरू किया। आज हालात यह हैं कि कांग्रेस और बीजेपी के टिकट दावेदारों 80 प्रतिशत ऐसे लोग होते हैं जो पार्टी फंड हासिल करने के लिए टिकट मांगते है और उसमें से काफी धनराशि बचा लेते हैं। वर्तमान में प्रत्याशियों को पैसा देने में बीजेपी सबसे आगे है।

बसपा ही एकमात्र यूपी में ऐसी पार्टी है जो प्रत्याशियों को पैसा न देकर उनसे पार्टी फंड में पैसा लेती है। चर्चा तो यह है कि अब कुछ दलों ने लोकसभा प्रत्याशियों को एक से दो करोड़ और विधानसभा के प्रत्याशियों को 50-50 लाख रुपए दिए। इसमें प्रत्याशियों के खाते में उतनी ही धनराशि दी गई जो चुनाव आयोग की निर्धारित सीमा में था जबकि अन्य धनराशि ब्लैक मनी के रूप में नकद दी गई। इस धनराशि का बंटवारा करने वाले भी गाढ़ी कमाई कर लेते हैं।

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केंद्र में कांग्रेस की नरसिंह राव सरकार ने सांसदों के लिए विकास निधि का गठन किया। उसके बाद कई राज्यों में विधायन निधि की व्यवस्था हु़ई। इसी के साथ राजनीतिज्ञों को चुनावी फंड के रूप में जनता से चंदा मिलना बंद हो गया और इसके विपरीत अब कार्यकर्ता भी प्रचार के लिए संसाधन के रूप में गाड़ी और अन्य संसाधनों के साथ ही नकद पैसे की भी मांग करने लगे हैं। सांसद और विधायक निधि ने राजनेताओं के समक्ष ठेकेदारों का घेरा डाल दिया। साल 1990 तक जहां तमाम सांसदों और विधायकों के पास कोई गाड़ी नहीं होती थी, आज गाड़ियों के कारवां चलते हैं। अब तो पार्षद और ग्राम प्रधान भी बड़ी-बड़ी गाड़ियों से ही चलते हैं।

अब सांसद और विधाायक यह कहते हुए गर्व महसूस करते हैं कि उनके चुनाव में 10 करोड़ और उससे ज्यादा पैसा खर्चा हुआ। सोचिए भारत का लोकतंत्र कितना धनाढ्य हुआ है कि साल 1952 में चवन्नी से चुनाव लड़ाने वाले सांसद आज 10 से 20 करोड़ रुपए खर्च कर रहे हैं। भारतीय लोकतंत्र की इस चुनावी प्रक्रिया को बीजेपी के नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने सोने का और कलेवर दिया है। आज माइक लेकर जनसभाएं नहीं होती। चर्चा तो यह होती है कि किस दल के कितने नेता हवाई दौरा कर रहे हैं। जनसभाओं के लिए कितनी हाइटेक-4 डी व्यवस्था की गई है। रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए कितने संसाधन लगाए गए हैं और कौन सी रैली का खर्चा कितने करोड़ रुपए आया।

राजनीतिक दल इसका कोइ लेखा-जोखा नहीं देते। असल में उनके पास भी इसका हिसाब नहीं होता। कुछ धनराशि पार्टी अपने खाते से देती है तो कुछ टिकटार्थियों की लंबी जेबों पर ही जाता था। नेताओं की इस माया का प्रदर्शन जनता पर भारी पड़ता है और जनता की गाढ़ी कमाई की तमाम परियोजनाएं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाती हैं। गरीबी और मुफलिसी से शुरू हुआ भारत का लोकतंत्र आज प्रचार तंत्र में अमेरिका जैसे धनाढ्य देश को भी पीछे छोड़ रहा है।

यही वजह है कि नरेंद्र मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिनके विदेशों में सबसे ज्यादा फैंस है। अब केवल दिल्ली और गुजरात के सूरत में ही मोदी-मोदी के नारे नहीं लगते बल्कि अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन में भी मोदी-मोदी की धूम है।

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tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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