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क्यों मचा बवाल! जब NRC आजादी से पहले ही हो चुकी है लागू
15 अगस्त 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम अकॉर्ड को डिक्लेयर किया था। अकार्ड के अनुसार 24 मार्च 1971 की आधी रात तक असम में प्रवेश करने वाले लोग और उनकी अगली पीढ़ी को भारतीय नागरिक माना जाएगा।
रामकृष्ण बाजपेयी
नई दिल्ली : 15 अगस्त 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने असम अकॉर्ड को डिक्लेयर किया था। अकार्ड के अनुसार 24 मार्च 1971 की आधी रात तक असम में प्रवेश करने वाले लोग और उनकी अगली पीढ़ी को भारतीय नागरिक माना जाएगा। लेकिन राजीव गांधी वास्तविक अर्थों में इसे लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा सके या फिर इच्छाशक्ति का अभाव और पार्टी क्षत्रपों के दबाव के आगे मजबूर हो गए। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के अनुसार एनआरसी राजीव गांधी के कार्यकाल में हुए समझौते का ही हिस्सा है।
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1985 में केंद्र सरकार, असम सरकार, आसू और एएजीएसपी के बीच असम समझौता हुआ। असम समझौते और फिर नागरिकता अधिनियम में संशोधन के बाद विदेशियों की जो तीन कैटेगरी बांटी गयी। उनके मुताबिक पहली कैटेगरी में वे लोग थे, जो एक जनवरी 1966 से पहले असम आए। दूसरी कैटेगरी में वह लोग थे, जो एक जनवरी 1966 से 24 मार्च 1971 के बीच में असम आए। तीसरी कैटेगरी में वे लोग शामिल किये गए जो 25 मार्च 1971 के बाद असम में आए।
समझौते के मुताबिक पहली कैटेगरी को पूर्ण नागरिक माना गया। दूसरी कैटेगरी को 10 सालों तक वोटिंग अधिकार से बाहर रखा गया और तीसरी कैटेगरी वालों को देश छोड़कर जाने के लिए कहे जाने की बात आयी। लेकिन असम समझौते पर अमल का मामला उलझा रहा।
14 जुलाई, 2002 को संसद में तत्कालीन गृह राज्यमंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि भारत में 10 करोड़ 20 लाख 53 हज़ार 950 अवैध बांग्लादेशी घुसपैठिए हैं और इनमें से केवल बंगाल में ही 57 लाख हैं। जबकि 2001 की जनगणना के अनुसार प. बंगाल में डेढ़ करोड़ से अधिक बांग्लादेशी घुसपैठिये थे। यानी की तत्कालीन सरकार ने वोट बैंक के लालच में सचाई कितने गुना कम की थी यह सहज समझ में आ सकता है।
कहने की बात यह है कि असमी बनाम बाहरी का मुद्दा कोई नया नहीं है, न ही भाजपा इसे लेकर आई है, बल्कि देश की आज़ादी के बाद से यह वहाँ के ज्वलंत मुद्दों में सबसे ऊपर रहा है। वर्तमान में चर्चा में रहने वाला एनआरसी यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजंस इसी मुद्दे की देन है। असमिया बनाम बाहरी का मुद्दा तब भी इतना प्रबल था कि देश में असम ही एकमात्र राज्य था जहाँ 1951 की जनगणना के बाद एनआरसी बनाया गया था।
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आज 2019 में घुसपैठियों की संख्या कितनी भयावह हो चुकी होगी। यदि यह मान भी लिया जाए कि इन वर्षों में नई घुसपैठ नहीं हुई हालांकि यह सही नही है तब भी यहां रह रहे घुसपैठियों की आबादी बीस करोड़ से ऊपर तो ही चुकी है। जो हमारे देश की आबादी का पांचवां भाग हो सकती है।
यह देश के संसाधनों पर डाके की स्थिति है। जिस का खामियाजा यहां की निरीह जनता को भुगतना पड़ रहा है। कांग्रेस या प्रभावित राज्यों की गैर कांग्रेसी सरकारों ने वोट बैंक की राजनीति के चलते इसे नजरअंदाज किया जिसका खमियाजा आज देश भुगत रहा है।
ऐसे में यदि आज इन्हें पूर्वोत्तर के एक राज्य से खदेड़ने की तैयारी हो रही है तो इससे घुसपैठ और घुसपैठियों को संरक्षण देने वालों के पेट में मरोड़ होना लाजिमी भी है लेकिन राष्ट्रहित इस सबसे ऊपर होता है और मोदी सरकार इसी तरफ बढ़ रही है।
दरअसल असम में नागरिकता रजिस्टर पर तमाम दलों को ऐतराज नहीं है लेकिन जब इसका दायरा पूरा देश बनने लगता है तो असली दिक्कत की शुरुआत होती है।
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मोटे तौर पर घुसपैठ का मूल कारण रहा कि बांग्लादेश से लगी पूर्वोत्तर राज्यों की सीमाओं पर पर्याप्त चौकसी नहीं थी। दूसरे बोलचाल भाषा शैली में ज्यादा अंतर न होने से इधर भी बंगला उधर भी बंगला का नारा देकर राजनीति को धार दी गई। घुसपैठ को बढ़ावा दिया गया। लेकिन बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठिए असम, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बिहार, यूपी से लेकर राजधानी दिल्ली सहित अन्य प्रमुख शहरों तक पैठ बनाते गए।
भाजपा के दिल्ली प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी आज दिल्ली में भी एनआरसी लागू करने की मांग करते हैं या अन्य राज्यों से भी इसकी मांग हो तो इसमें गलत क्या है। हमें मजबूरी को समझना होगा। हालात को इससे ही समझा जा सकता है कि दिल्ली पुलिस को हर थाने में अलग बांग्लादेशी सेल बनाना पड़ गया।
आजादी मिलने के बाद कई दशकों तक देश के अधिकांश हिस्सों खासकर पूर्वोत्तर में कांग्रेस का ही शासन रहा कांग्रेसी बड़े गर्व से कहा करते थे कि जब तक 'अली और कुली' का आशीर्वाद है पार्टी की सरकारें यूं ही चलती रहेंगी। अली और कुली पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) से आने वाले घुसपैठिए थे जिनका राजनीतिक हितों के लिए सरकारी संरक्षण में खूब भरण पोषण किया गया।
आज भी नालों या पॉश कालोनियों के पास इनकी झोपड़ पट्टियां नुमायां हो जाएंगी। नाला उफनाने पर इन्हें मुआवजा और राहत भी दी जाती है। मजे की बात यह है कि इनके पास वोटर कार्ड और आधार कार्ड तक मौजूद रहता है।
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असम तो इस समस्या से कराह रहा था वहां पर मूल आबादी की पहचान खतरे में पड़ गई थी। अगर राजनीतिक नेतृत्व निर्णय लेने में थोड़ा और देर करता तो वहां के मूल निवासी अल्पसंख्यक में तब्दील हो जाते।
राजनीतिक लापरवाही का शिकार प.बंगाल भी बना जहां सबसे अधिक घुसपैठ हुई। और आज हालात इतने भयावह हो गए हैं कि यहां के मूल निवासी हाशिये पर चले गए हैं। प.बंगाल में वामपंथी शासन के दौरान 2002 में ममता बनर्जी ने घुसपैठियों का मसला जोरशोर से उठाया था और कहा था कि प.बंगाल में दो करोड़ से अधिक घुसपैठिये हैं। लेकिन सत्ता पाने के बाद आज उनकी प्राथमिकता में घुसपैठियों का मुद्दा नहीं रह गया है क्योंकि अब उन्हें भी उनमें वोट बैंक दिखाई देने लगा है।
वर्तमान में असम में जारी राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर को लेकर विपक्ष द्वारा मचाया जा रहा होहल्ला उसी मानसिकता का परिचायक और घुसपैठियों को संरक्षण देने वाला दिखाई दे रहा है। घुसपैठ और घुसपैठियों को प्रोत्साहन का उदाहरण कांग्रेस के स्वर्णकाल नेहरू युग में ही मिल जाता है।
सबसे पहले साठ के दशक में असम के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीपी. चलिहा ने इसको लेकर पंडित जवाहर लाल नेहरू को चेताया था। उस समय नेहरू अगर चेत गए होते तो भारत-पाक सीमा पर तारबंदी हो जाती और घुसपैठियों पर सख्ती से रोक लग जाती।
अफसोस की बात यह है कि प.जवाहरलाल नेहरू के दौर में घुसपैठ को बढ़ावा देने की परंपरा को उनके उत्तराधिकारियों ने सुधारने की जगह बरगद के वृक्ष की तरह जगह जगह जड़ें जमाने का मौका दिया। हालांकि असम इस दर्द से कराहता रहा लेकिन उसकी अनसुनी की जाती रही।
10 अप्रैल, 1992 को तत्कालीन मुख्यमंत्री हितेश्वर सैकिया ने भी राज्य में 30 लाख अवैध बांग्लादेशी मुस्लिम के मौजूद होने की बात कही। लेकिन उनकी बात सुनने के बजाय कांग्रेसी नेता अब्दुल मुहिब मजुमदार के नेतृत्व वाले 'मुस्लिम फोरम' ने पांच मिनट के भीतर सरकार गिरा देने की धमकी दी।
कांग्रेस फिर भयभीत हो गई। सैकिया को अनसुना कर दिया गया। इससे पहले इंदिरा गांधी संसद के माध्यम से आईएमडीटी एक्ट के तहत विदेशी पहचान के संदिग्ध व्यक्ति को ट्रिब्यूनल के सामने पेश करने का प्रावधान लेकर आईं।
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जिसमें आश्चर्यजनक रूप से 1971 को निर्धारक वर्ष मानकर 1951 से 1971 के बीच बांग्लादेश (पूर्वी पाकिस्तान) से अवैध घुसपैठ कर आए लोगों को भारत का नागरिक मान लिया गया। इसी तरह से 'असम समझौता' राजीव गांधी सरकार के लिए ऐतिहासिक मौका था लेकिन वह भी कुछ न कर सके।
एक एक्ट जो बन गया मजाक
घुसपैठ रोकने और घुसपैठियों की पहचान के लिए कांग्रेस सरकारों के समय में ही आईएमडीटी एक्ट बना लेकिन इसमें किसी घुसपैठिए की सूचना देने पर आरोपी को भारतीय होने का प्रमाण देने के बजाय शिकायतकर्ता को उसके विदेशी होने के सबूत लाने को कहा गया। बाद में 27 जुलाई, 2005 को सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने आईएमडीटी एक्ट को निरस्त कर दिया।
न्यायपालिका इसमें मामले में गंभीर रही उसने फॉरेन ट्रिब्यूनल आर्डर- 1964 के तहत ट्रिब्यूनल स्थापित करने और अवैध बांग्लादेशी घुसपैठियों को चिन्हित करने का आदेश दिया। लेकिन तत्कालीन सरकारें टालमटोल की नीति अपनाती रही।
अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय के सख्त रूख के साथ मजबूत इच्छा शक्ति का राजनीतिक नेतृत्व इस समस्या के समाधान की ओर अग्रसर है तो कांग्रेस फिर नेहरू की नीति को अपना कर इसका विरोध कर अपनी वोट बैंक की नीति का अनुसरण करती दिख रही है।