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Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक चुनाव और लिंगायत – जानिए क्या है इस समुदाय का महत्त्व

Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक विधानसभा चुनाव में भाजपा का फ़ोकस दो समुदाय- लिंगियात और वोक्कालिगा पर है क्योंकि इनके ठोस समर्थन से चुनावी नैया पार हो जायेगी।

Neelmani Laal
Published on: 19 April 2023 6:58 PM IST
Karnataka Assembly Election 2023: कर्नाटक चुनाव और लिंगायत – जानिए क्या है इस समुदाय का महत्त्व
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भाजपा का कर्नाटक के दो समुदाय लिंगायत और वोक्कालिगा पर वोट के लिए फ़ोकस

Karnataka Assembly Election 2023: जाति ने हमेशा भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव भी इससे अलग नहीं हैं। इस राज्य में सभी राजनीतिक दल विभिन्न जाति समूहों को अपने पक्ष में करने की पुरजोर कोशिशें कर रहे हैं। सत्तासीन भारतीय जनता पार्टी का फोकस राज्य के दो प्रभावशाली समुदायों - लिंगायत और वोक्कालिगा पर है क्योंकि इनके ठोस समर्थन से चुनावी नैया पार हो जायेगी अन्यथा काफी मुश्किल होगी। वोक्कालिगा समुदाय कर्नाटक के केवल छह जिलों में पाए जाते हैं, जबकि लिंगायत राज्य भर में मौजूद हैं।

भाजपा को रहा है समर्थन

राजनीतिक रूप से लिंगायत लगभग हर प्रमुख राजनीतिक दल में पाए जाते हैं। लेकिन समुदाय के तौर पर लिंगायत 1990 के दशक से भाजपा का समर्थन करते रहे हैं और हाल के वर्षों में भाजपा के लिए उनका समर्थन काफी बढ़ा है। 1918 से 1969 तक लिंगायत कांग्रेस पार्टी में हावी रहे। 1956 से 1969 तक, कांग्रेस के चार मुख्यमंत्री लिंगायत समुदाय से थे - एस. निजलिंगप्पा, बीडी जट्टी, एसआर कांथी और वीरेंद्र पाटिल। 1969 से 1983 तक कांग्रेस के विभाजन के बाद लिंगायत राजनीतिक रूप से तितर बितर हो गए लेकिन 1983 से 1989 तक जनता पार्टी में लिंगायतों का दबदबा रहा और राज्य में दो लिंगायत मुख्यमंत्री -एसआर बोम्मई और जेएच पटेल रहे थे। अब लिंगायत भाजपा में दबदबा रखते हैं और भाजपा के शासन में तीन लिंगायत मुख्यमंत्री बने हैं - बीएस येदियुरप्पा, जगदीश शेट्टार और बीएस बोम्मई।

लिंगायतों का प्रसार

लिंगायत कर्नाटक के उत्तरी, मध्य और कुछ दक्षिणी जिलों में फैले हुए हैं। उत्तरी जिलों में लिंगायतों की आबादी एक तिहाई से अधिक है। दक्षिणी जिलों में, वे मैसूर, चामराजनगर, शिमोगा और हासन को छोड़कर बहुत कम फैले हैं। लिंगायतों की कुल जनसंख्या भारत में लगभग तीन करोड़ है जिसमें कर्नाटक में 1.5 करोड़, महाराष्ट्र में 1.09 करोड़, तेलंगाना में लगभग 50 लाख और शेष तमिलनाडु, केरल, गुजरात और मध्य प्रदेश में हैं। इस समुदाय ने मुस्लिम आक्रमणकारियों और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। और पूर्व में कूर्ग, केलाडी, पुंगनूर और मैसूर जैसे कई लिंगायत राज्य थे।

लिंगायत का उदय

लिंगायत 12वीं सदी के समाज सुधारक बासवन्ना के अनुयायी हैं, जो भक्ति आंदोलन से प्रेरित थे। राजा बिज्जल द्वितीय के दरबार में एक कोषाध्यक्ष, उन्होंने ब्राह्मण अनुष्ठानों और मंदिर पूजा को खारिज कर दिया और एक ऐसे समाज की परिकल्पना की जो जातिविहीन, भेदभाव से मुक्त हो, और जहां पुरुषों और महिलाओं के लिए समान अवसर हों। बासवन्ना की प्रमुखता समय के साथ विश्व स्तर पर बढ़ी है लेकिन उनके अनुयायियों की प्रथाओं में काफी बदलाव आया है। उदाहरण के लिए, लिंगायतों के भीतर अब 99 उप-संप्रदाय हैं, जिनका मुख्य लक्ष्य कभी जाति व्यवस्था का उन्मूलन था।

प्रमुख उप-संप्रदायों में पंचमसालिस, गनिगा, जंगमा, बनजीगा, रेड्डी लिंगायत, सदर, नोनाबा और गौड़-लिंगायत शामिल हैं। इस विषय के जानकारों का कहना है कि ये सभी उप-संप्रदाय जन्म, विवाह और मृत्यु के समय एक ही तरह की रस्में निभाते हैं। उदाहरण के लिए, लिंगायतों के बीच मृतकों को बैठने की स्थिति में दफनाया जाता है। समुदाय के सदस्य अपने इष्ट लिंग को अपने गले में चांदी के बक्से में लटका कर रखते हैं। जहां ये उप-संप्रदाय भिन्न हैं, उनके पारंपरिक व्यवसायों में है।

कुछ जगहों पर वीरशैव और लिंगायत शब्दों का इस्तेमाल एक-दूसरे के लिए किया जाता है, लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक वीरशैव हिंदू धर्म से अधिक प्रभावित हैं, इसलिए दोनों के बीच कई अंतर हैं। इसके अलावा, लिंगायत अपनी उत्पत्ति बसवन्ना को मानते हैं, जबकि माना जाता है कि वीरशैव शिव के लिंगम से पैदा हुए थे। लिंगायतों के पास इष्ट लिंग है और मानते हैं कि शिव एक निराकार इकाई हैं, वीरशैवों का मानना है कि शिव एक वैदिक देवता हैं। वीरशैवों के विपरीत, लिंगायत वैदिक साहित्य में विश्वास नहीं करते हैं और बासवन्ना के वचनों (शिक्षाओं) का पालन करते हैं। बासवन्ना के 12वीं शताब्दी के वचन विभिन्न दक्षिणी राज्यों में खो गए या बिखर गए, जिसके बाद कई ग्रंथों ने वीरशैवों और लिंगायतों को एक छतरी के नीचे जोड़ दिया।

अलग मत

एक मत ये है कि आठवीं से 11वीं शताब्दी ई. भारतीय सामाजिक-धार्मिक इतिहास में महान परिवर्तनों का काल था। भारत में बौद्ध धर्म विलुप्त होने के कगार पर था। जैन धर्म का पतन हो रहा था। यह अफ़ग़ान मुसलमानों जैसे गजनी के मुहम्मद और बाद में मुहम्मद घोरी के हमलों का भी दौर था। 12वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में इन उथल पुथल के दौर में कर्नाटक के वर्तमान विजयपुरा जिले के छोटे से शहर बागेवाड़ी में बसव नामक एक ब्राह्मण लड़के का जन्म हुआ। उनके पिता बागवाड़ी अग्रहार (एक विशेष ब्राह्मण बस्ती) के प्रमुख थे। बसवा, जिसे बसवन्ना भी कहा जाता है, ने कालांतर में धार्मिक सुधारों और वैकल्पिक धर्म की आवश्यकता महसूस की। इस प्रकार लिंगायत मत का जन्म वैदिक धर्म के विरुद्ध विद्रोह के रूप में हुआ।

अलग धर्म

18वीं शताब्दी तक, कर्नाटक, महाराष्ट्र और तेलंगाना में एक हजार से अधिक लिंगायत मठ स्थापित किए गए थे। लिंगायतों के लिए अलग धार्मिक स्थिति की मांग 1891 में शुरू हुई। 1871 की जनगणना में लिंगायत हिंदू धर्म के बाहर एक अलग धर्म थे। मैसूर में जनगणना के अधीक्षक एडब्ल्यूसी लिंडसे द्वारा उन्हें जैनियों के साथ अलग से समूहबद्ध किया गया था। लेकिन दूसरी जनगणना में मैसूर के दीवान सी. रंगाचारलू ने लिंगायतों को हिंदुओं के शूद्र समूह से मिला दिया। इससे सभी लिंगायत नाराज हो गए और 1891 में तीसरी जनगणना से पहले एक बड़ा आंदोलन शुरू हो गया। बाद में 1940 के दशक में, बॉम्बे प्रेसीडेंसी में अलग धर्म की स्थिति के लिए दूसरा आंदोलन शुरू हुआ। अलग धर्म की स्थिति की तीसरी मांग 2017 में नए सिरे से और भव्य तरीके से शुरू हुई। यह अब तक व्यवस्थित तरीके से जारी है। आज लिंगायत समुदाय अनेकता में एकता का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें कई प्रमुख जातियों का प्रतिनिधित्व करने वाले कई विभाजन हैं जो लिंगायत मुख्यधारा में विलय हो गए हैं।

चुनावी समीकरण

2018 के चुनावों में, कांग्रेस ने 38 फीसदी वोट जीते, जो भाजपा से 1.5 फीसदी अधिक थे। करीब 28 सीटों पर पार्टी ने 10,000 से कम मतों के अंतर से जीत हासिल की। जानकारों का कहना है कि अगर लिंगायत वोटों का थोड़ा भी नुकसान होता है, तो भी भाजपा के लिए इन सीटों पर जीत हासिल करना मुश्किल हो सकता है। लगभग 17-20 फीसदी वोट शेयर के साथ लिंगायत लगभग 150 निर्वाचन क्षेत्रों में एक मजबूत ताकत हैं।

Neelmani Laal

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