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कैराना , नूरपुर - विपक्ष के एकजुट होने से भाजपा के सारे दांव फेल
अंशुमान तिवारी
लखनऊ: गोरखपुर व फूलपुर उपचुनाव के बाद सूबे की कैराना लोकसभा व नूरपुर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव के नतीजों से साफ है कि भाजपा के सारे दांव यहां फेल हो गए। गठबंधन प्रत्याशियों ने इन दोनों सीटों पर भाजपा को आसानी से शिकस्त दे दी। इस चुनाव का संदेश साफ है कि प्रदेश में भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज गयी है। भाजपा का धर्म का कार्ड भी नहीं चला और संयुक्त विपक्ष के दोनों मुस्लिम उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे। 2019 के आम चुनाव में विपक्षी गठबंधन से लडऩे के लिए भाजपा को काफी मशक्कत करनी होगी। लोकसभा की तीनों सीटों पर हुए उपचुनाव में भौगोलिक पक्ष भी काफी महत्वपूर्ण है। गोरखपुर ठेठ पूरब, फूलपुर मध्य और कैराना ठेठ पश्चिम की लोकसभा सीटें हैं।
भाजपा को तीनों सीटों पर हार झेलनी पड़ी। मतलब साफ है कि भाजपा विरोधी लहर पूरे सूबे में तेजी पकड़ रही है। सूबे में योगी सरकार बनने के बाद मतदाताओं पर भाजपा की पकड़ कमजोर पड़ती दिख रही है। कैराना व नूरपुर सीट बचाने के लिए योगी और भाजपा ने कई चालें चलीं मगर सियासत की बिसात पर कोई भी चाल काम नहीं आई। कैराना में आरएलडी उम्मीदवार तबस्सुम हसन और नूरपुर विधानसभा सीट पर सपा के प्रत्याशी नईमुल हसन विजयी रहे।
कैराना , नूरपुर - विपक्ष के एकजुट होने से भाजपा के सारे दांव फेल
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नहीं दिखा जिन्ना मुद्दे का असर
कैराना और नूरपुर उपचुनाव की घोषणा के बीच ही अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में जिन्ना की तस्वीर पर बीजेपी सांसद की चिट्ठी के बाद बवाल मच गया। भाजपा नेता जिन्ना के मुद्दे को हवा देने में जुटे थे। जानकारों का कहना है कि जिन्ना के मुद्दे के बहाने भाजपा इन दो सीटों पर ध्रुवीकरण की फिराक में थी। ध्रुवीकरण के सहारे ही भाजपा 2014 के लोकसभा चुनाव व 2017 के विधानसभा चुनाव में मैदान मार चुकी थी। यही कारण है कि जिन्ना का मुद्दा मीडिया ही नहीं बल्कि भाजपा नेताओं की सभाओं में भी खूब गूंजा मगर भाजपा की ये कोशिशें सफल नहीं हो सकीं। इसी का नतीजा है कि पार्टी को कैराना और नूरपुर में हार का मुंह देखना पड़ा।
भारी पड़ी गन्ना किसानों की नाराजगी
कैराना में गन्ना किसानों का मुद्दा भी भाजपा के लिए भारी पड़ा। आरएलडी अध्यक्ष अजीत सिंह और जयंत चौधरी ने महागठबंधन की प्रत्याशी तबस्सुम हसन की चुनावी सभाओं में इस मुद्दे को जोरशोर से उठाया। जानकारी के मुताबिक 18 मई तक चीनी मिलों ने कुल 1778.49 करोड़ रुपये के गन्ना की खरीद की है मगर इस सीजन में किसानों को भुगतान के तौर पर एक पैसा भी नहीं मिला है। गन्ना पश्चिमी यूपी के किसानों की मुख्य उपज है। गन्ने का मूल्य न मिलने से किसानों में भाजपा सरकार के खिलाफ नाराजगी थी।
इस नाराजगी ने भी इस चुनाव में असर दिखाया। कैराना की छह चीनी मिलों में चार मिलों की मालिक निजी कंपनियां हैं जबकि दो सहकारी क्षेत्र में हैं। योगी सरकार गन्ना किसानों की नाराजगी का असर जानती थी और यही कारण है कि उसने प्राइवेट क्षेत्र वाली चीनी मिलों पर दबाव डाला कि वे पूरे क्षेत्र के किसानों का गन्ना लें मगर भुगतान न मिलने से गन्ना किसानों की नाराजगी नहीं दूर हो सकी। इसी नाराजगी को भुनाने के लिए अजीत सिंह और जयंत ने अपनी सभाओं में गन्ना और जिन्ना का डायलॉग बोलकर गन्ने के बकाए के मुद्दे को उठाया। चुनावी नतीजे के बाद जयंत चौधरी ने कहा भी कि कैराना में जिन्ना का मुद्दा हार गया जबकि गन्ना जीत गया।
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फेल हुआ ध्रुवीकरण का दांव
कैराना में आरएलडी प्रत्याशी तबस्सुम हसन की जीत से माना जा रहा है कि जाटों और मुस्लिमों ने एक होकर वोट किया। भाजपा के लिए तबस्सुम हसन की जीत से कहीं ज्यादा बड़ा संदेश यह है कि जाट और मुसलमान एक साथ आ गए। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बारे में माना जाता रहा है कि भाजपा को इस बेल्ट में तभी कामयाबी मिलेगी जब जाट और मुस्लिम दोनों अलग-अलग वोट करें।
कैराना , नूरपुर - विपक्ष के एकजुट होने से भाजपा के सारे दांव फेल
इस चुनाव में ये कसौटी थी कि दंगों के बाद क्या जाट वापस आ सकता है, क्या वो मुसलमान के साथ राजी होगा? इसलिए राजनीतिक जानकारों का कहना है कि ये रिजल्ट भाजपा के लिए एक सीट से हारने से कहीं ज्यादा बड़ा संदेश है। भाजपा ने उपचुनाव से पहले जाट समुदाय को अपने साथ जोड़े रखने के लिए बड़ा दांव चला। योगी सरकार की ओर से मुजफ्फरनगर दंगे के आरोपियों के ऊपर से केस हटाने तक की बात कही गयी। इसके अलावा भाजपा की ओर से मुजफ्फरनगर दंगा पीडि़तों के कैंपों के पास पीएसी कैंप स्थापित कराने की बात भी कही गई थी। भाजपा की लगातार कोशिश के बावजूद ध्रुवीकरण का दांव फेल हो गया। जाट समुदाय ने बीजेपी पर भरोसा जताने के बजाए आरएलडी की मुस्लिम उम्मीदवार पर भरोसा जताया। दूसरे शब्दों में कहें तो कैराना के चुनावी नतीजों ने दंगों पर बंटवारे वाली राजनीति को नकार दिया है।
रालोद को मिली संजीवनी
कैराना में विपक्ष के चुनावी अभियान को मुख्य रूप से जयंत चौधरी ने चलाया। रालोद के लिए यह चुनाव करो या मरो की स्थिति वाले थे। रालोद लोकसभा, विधानसभा, राज्यसभा और विधानपरिषद में बिना सदस्यों वाली पार्टी थी। अगर जाट और मुसलमान एक होकर कैराना नहीं जीतते तो अजीत और जयंत के राजनीतिक जीवन पर सवालिया निशान लग जाता। माना जा रहा है कि कैराना ने चरण सिंह की विरासत को जीवित करने का अवसर दिया है। यह भी कहा जा रहा है कि योगी के उस भाषण से भी जाटों में गुस्सा था जिसमें उन्होंने कहा था कि भाजपा ने बाप-बेटे (अजित सिंह-जयंत चौधरी) को गली-गली में वोटों की भीख मांगने के लिए मजबूर कर दिया है। इलाके के लोगों का कहना है कि जाटों ने इस बयान को अपनी अस्मिता से जोड़ा क्योंकि अभी भी जाटों का चौधरी चरण सिंह के परिवार से भावनात्मक लगाव है।
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योगी पर उठने लगे सवाल
तीन लोकसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में हार के बाद भाजपा में भी योगी को लेकर सवाल उठने लगे हैं। भाजपा को अगले साल मोदी के चेहरे पर लोकसभा चुनाव में उतरना है। विपक्षी दलों के एकजुट होने के बाद भाजपा के लिए यूपी की लड़ाई कठिन हो गयी है और देश की सियासत में यूपी को नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। पिछले चुनाव में भी दिल्ली की गद्दी पर मोदी को बिठाने में यूपी की बड़ी भूमिका थी। भाजपा को यहां से 71 सीटें मिली थीं जबकि अपना दल ने दो सीटें जीती थीं। ऐसे में भाजपा को यहां से 73 सीटों की ताकत मिली थी। अगले चुनाव में मोदी खुद क्रीज पर होंगे और ऐसे में यूपी भाजपा के अंदर बड़े बदलाव की संभावना दिख रही है। कैराना में योगी ने दो सभाएं कीं मगर वे भाजपा को नहीं जिता पाए। ऐसे में उन्हें हार की तोहमत तो झेलनी ही पड़ेगी। जानकारों का कहना है कि संगठन व सरकार में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा। प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र नाथ पांडे की सक्रियता व स्वीकार्यता को लेकर सवाल उठ रहे हैं। विपक्षी दलों की एकजुटता के बाद आए तीन लोकसभा सीटों के नतीजे भाजपा के लिए खतरे की घंटी माने जा रहे हैं। अब सभी को इस बात का इतंजार है कि भाजपा इससे क्या नसीहत लेती है।
कैराना
रालोद तब्बसुम हसन 481182
भाजपा मृगांका सिंह 436564
नूरपुर
सपा नईमुल हसन 94875
भाजपा अवनीश सिंह 89213
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