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Happy Fathers Day 2018: पूरी जिंदगी भी नाकाफी है पिता के प्रति आभार जताने के लिए
पूनम नेगी
लखनऊ: पिता! यह शब्द एक ऐसे अनमोल रिश्ते का अहसास कराता है जिसके बिना जिन्दगी की कल्पना नहीं की जा सकती। एक ऐसा पवित्र रिश्ता जिसका मुकाबला किसी और रिश्ते के साथ नहीं किया जा सकता। वह पिता ही होता है जो अपने बच्चों की हर ख्वाहिश को पूरा करने कोशिश में अपनी पूरी जिंदगी लगा देता है।
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बचपन में छोटी से छोटी चीज से लेकर जवान होने तक हमारी हर मांग को पूरा करता है पिता। पिता साथ होता है तो बच्चे को कोई असुविधा या असुरक्षा महसूस ही नहीं होती। पिता की छत्रछाया में बड़ी से बड़ी परेशानी छोटी आैर सहज लगने लगती है।
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खासतौर पर बच्चियों के पहले रोल मॉडल और रीयल हीरो तो उनके पिता ही होते हैं। तभी तो हर लड़की अपने भावी जीवन साथी के रूप में अपने पिता का अक्स खोजती है। पिता पास होते हैं तो उसे भरोसा हो जाता है कि अब कोई भी नापाक इरादे उसे छू नहीं सकेंगे।
माता-पिता का स्थान सर्वोपरि
यूं तो हमारी सनातन संस्कृति में माता-पिता का स्थान सदा से ही सर्वोपरि रहा है किन्तु बीते कुछ सालों में वैश्वीकरण के गहराते प्रभाव में हमारे यहां भी विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय दिवसों के आयोजन का चलन खासा लोकप्रिय हो चला है। पाश्चात्य संस्कृति की रस्मों का अनुसरण करते हुए आज हम सब भी अपने पिता को खास फील कराने के लिए "फादर्स डे" का सैलिब्रेशन करते हैं।
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उन्हें थैंक्स बोलते हैं, गिफ्ट देते हैं, पार्टी या स्पेशल लंच -डिनर का आयोजन कर उनके साथ कुछ समय बिताते हैं। मगर, अगले ही दिन से सब कुछ फिर पूर्ववत हो जाता है। गंभीरता से सोचिए कि जो पिता हमारे जीवन का सबसे बड़ा संबल है, उसके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए महज एक दिन! क्या यह तरीका उचित है ! पिता के प्रति प्यार, आभार व खुशी जताने के लिए एक दिन को क्या पूरी जिंदगी भी नाकाफी है।
पिता घर का गौरव
यदि मां घर की रौनक होती है तो पिता घर का गौरव। मां के आंचल में प्यार और भावनाओं का खजाना होता है तो पिता के पास पुरुषार्थ व संयम। भले ही मां हमारे स्वाद और सेहत का दोनों का ध्यान रख प्यार से हमारे लिए भोजन बनाती है मगर उस भोजन की व्यवस्था का दारोमदार पिता के कंधों पर ही टिका होता है।
छोटी-मोटी चोट चपेट लगने पर भले ही हमारे मुंह से सहसा "उई मां" या "ओह मां" निकले लेकिन जीवन में कोई भी बड़ी आपदा या परेशानी सामने आ पड़ने पर मुंह से प्राय: "बाप रे" शब्द ही निकलता है। जहां एक ओर मां प्रेम, करुणा, वात्सल्य व दया की प्रतिमूर्ति होती है वहीं पिता घना छायादार वट वृक्ष जो स्वयं धूप में रहकर भी सम्पूर्ण परिवार को अपनी शीतल छाया में संरक्षित रखता है। बच्चों को अनुशासन में रहना सिखाता है।
पिता के होते हैं कई रूप
बचपन में गलतियों पर टोकने, बाल बढ़ाने, दोस्तों के साथ घूमने और टीवी देखने के लिए डांटने वाले पिता की छवि हमारे बालमन में भले ही हिटलर की रही हो लेकिन जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं हम समझने लगते हैं कि पिता के उस कठोर व्यवहार के पीछे हमारा हित ही था।
सचमुच पिता के कई रूप होते हैं। कभी वह सख्त बनकर हमें कठिनाइयों से लड़ना सिखाता है तो कभी दोस्त बनकर हमारी खुशियों में शामिल हो जाता है। कभी मां का प्यार भी देता है तो कभी शिक्षक बनकर गलतियां भी बताता है। बच्चे के लिए तमाम कठिनाईयों सहने के बाद भी पिता के चेहरे पर कभी शिकन नहीं आती। शायद इसीलिए पिता को ईश्वर का रूप माना जाता है। कहते हैं मां के चरणों में स्वर्ग होता है, मां के बिना जीवन अधूरा होता है लेकिन पिता हमारे जीवन का आकाश है।
जीवन के संघर्षों से मोर्चा लेना सिखाता है पिता
जीवन तो मां से मिल जाता है लेकिन जीवन के संघर्षों से मोर्चा लेना, थपेड़ों से निपटना पिता ही सिखाता है। घर की देहरी से बाहर निकल कर जिंदगी की पाठशाला में यथार्थ के धरातल पर जब बच्चा चलना शुरू करता है तो उसके कदमों की निगरानी पिता की निगाहें ही करती हैं। कहां चलें, कहां रुकें लड़खड़ाने पर कैसे संभलें, यह सब समझाने का काम पिता ही करता है।
कहीं भी रहें, कभी भी जाएं, अगर पिता साथ हैं तो एक आश्वस्ति का भाव मन में रहता है, "हमें किस बात की चिंता, पापा तो साथ हैं।" पापा, डैडी, पिता जी, बाबू जी, अब्बू नाम चाहे किसी भी नाम से पुकारें, यह विश्वास सिर्फ पिता ही दे सकता है। "फादर्स डे" के मौके पर आइए आपको अवगत कराते हैं "पिता" की शख्सियत पर कुछ अनमोल विचारों से -
"उनका" बेटा होना गर्व की बात: सुनील शास्त्री
पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का जिक्र आते ही आज भी हर सच्चे राष्ट्रभक्त का सिर श्रद्धा से झुक जाता है। सरकारें भले ही उस शख्सियत को भूल गई हों लेकिन लोग उन्हें नहीं भूले। बहुत कम नेताओं को ऐसी शोहरत, प्यार और सम्मान मिल पाता है। उनका बेटा होना मेरे लिए गर्व की बात है। यह कहना है शास्त्री जी के बेटे सुनील शास्त्री का।
वे कहते हैं, बाबू जी के "जय जवान-जय किसान" की प्रासंगिकता आज भी बनी हुई है। बाबूजी जब तक जिंदा रहे, देश को आत्मनिर्भर बनाने की उन्होंने हर संभव कोशिश की। देश में खाद्य अकाल को देखते हुए उन्होंने जब एक वक्त का खाना छोड़ने का आह्वान किया तो सबसे पहले हमारे परिवार को इस व्रत से जोड़ा। कई दिन तक हमारे परिवार ने एक समय का खाना ही खाया। वे देश के प्रधानमंत्री थे लेकिन कक्ष से बाहर निकलते समय हमेशा अपने कमरे की लाइट खुद बंद करते थे ताकि ऊर्जा का जरा भी अपव्यय न हो।
घायल सैनिकों को देखने जाते थे लाल बहादुर शास्त्री
जब वह प्रधानमंत्री थे तो युद्ध के दौरान दिल्ली आर्मी अस्पताल में घायल सैनिकों को देखने जाते थे। एक दिन मुझे भी अपने साथ ले गये। मैंने देखा कि बाबूजी एक जख्मी सैनिक के माथे पर हाथ रखकर उससे बातें कर रहे थे। बाबूजी ने उनसे कहा, तुम तो देश के बहादुर सैनिक हो, तुम्हारी आंखों में ये आंसू क्यों? उसका उत्तर था कि मैं इसलिए नहीं रो रहा कि जिंदा रहूंगा या नहीं, बल्कि रो इसलिए रहा हूं कि प्रधानमंत्री मेरे सामने हैं और मैं उठकर सैल्यूट भी नहीं दे पा रहा हूं।
बाबूजी की आंखों में मैंने उस दिन पहली बार आंसू देखे। बहुत संयमित था उनका जीवन। वे पांच बजे सुबह उठ जाते थे। कुछ देर टहलते थे। सुबह उठकर खुद दो कप चाय बनाते और पहली चाय मां के साथ पीते थे। वे बहुत सादा खाना खाते। लौकी, दाल, रोटी और कोई मौसमी फल। बाबूजी से हमने दो बातें खासतौर पर सीखीं। पहली हमेशा सच बोलना और दूसरा अपने देश को बहुत प्यार करना।
यादों में हमेशा जीवित रहेंगे "बाबूजी": अमिताभ बच्चन
बाबूजी भले ही आज हमारे साथ नहीं हैं लेकिन मेरी यादों में वे हमेशा रहेंगे। मेरे पिता जी मेरे दिल में बसे हैं। मुझे जब भी उनकी याद आती है, मैं उनकी तस्वीर से बातें कर लेता हूं। उस वक्त मुझे ऐसा लगता है, जैसे वह मेरी बात सुन रहे हैं। वे मेरे आदर्श हैं। उनकी कही हर बात में कोई ना कोई शिक्षा होती थी।
फिर चाहे उनकी कविताएं हों या लेख। बाबू जी, वही लिखते थे जो अपने जीवन में अनुभव करते थे। यह कहना है सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का अपने पिता के बारे में। अमिताभ कहते हैं," मुझे बाबूजी की एक बात हमेशा याद आती है। वह बीमार चल रहे थे और मैं अपनी फिल्मों की शूटिंग में बिजी रहता था, उस वक्त बाबूजी मुझसे कहते थे, "बेटा दिन में एक बार हमारे पास आ जाया करो, तुम्हें देख लेते हैं तो एक तसल्ली सी मिलती है।"
मुझे बाबूजी की कई सारी कविताएं आज भी याद हैं-जीवन की आपाधापी में... और जो बीत गई सो बात गई... जैसी उनकी कविताओं ने मेरा हमेशा मार्गदर्शन किया है। मैंने बाबूजी को एक वेबसाइट समर्पित की है, जिसमें उनकी सभी रचनाएं उपलब्ध हैं । बच्चन कहते हैं, वो जमाना थोड़ा अलग था। उस दौर में हर रिश्ते की अपनी एक गरिमा थी लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज मैं और अभिषेक पिता-पुत्र कम और दोस्त ज्यादा हैं।
भारत रत्न घनश्यामदास बिरला का पुत्र बसंत कुमार को लिखा पत्र
"चि. बसंत! मैं अपने अनुभव की कुछ बातें लिख रहा हूं। उसे भविष्य में बड़े और बूढ़े होकर भी बार बार पढ़ना। संसार में मनुष्य जन्म दुर्लभ है, जो मनुष्य जन्म पाकर भी अपने शरीर का दुरुपयोग करता है, वह पशु से भी बदतर है। ध्यान रखना कि हमारे पास जो भी धन है, तन्दुरुस्ती है, साधन हैं, उनका उपयोग सेवा के लिए ही हो, तब तो वे साधन सफल होंगे अन्यथा वे शैतान के औजार बन जाएंगे। धन किसी के पास सदा के लिए नही रहता, इसलिए धन का उपयोग मौज मस्ती और शौक के लिए कभी न करना बल्कि उसका उपयोग सेवा के लिए ज्यादा से ज्यादा करना।
जितना धन हमारे पास में है, उसे अपने ऊपर कम से कम खर्च करना बाकी जनकल्याण और दुखियों का दुख दूर करने हेतु व्यय करना। अपनी संतान को भी यही उपदेश देना कि धन शक्ति है, इस शक्ति के नशे में किसी पर अन्याय हो जाना संभव होता है। हमे ध्यान रखना है की अपने धन के उपयोग से किसी पर अन्याय ना हो। यदि हमारे बच्चे मौज-शौक, ऐश-आराम करने वाले होंगे तो पाप करेंगे और हमारे व्यापार को चौपट करेंगे।
ऐसे नालायकों बच्चों को धन विरासत में कभी न देना। धर्म और संस्कारों को कभी न भूलना, वे ही हमे अच्छी बुद्धि देते है। अपनी पांचो इन्द्रियों पर काबू रखना, वरना यह तुम्हें डुबो देगी। अपनी दिनचर्या पर विशेष ध्यान रखना। जिस व्यक्ति का न उठने का समय है, न सोने का समय है उससे हम किसी बड़ी सफलता की उम्मीद नहीं रख सकते।
नित्य नियम से योग-व्यायाम अवश्य करना। स्वास्थ्य के अभाव में सुख-साधनों का कोई मूल्य नहीं। स्वास्थ्य रूपी सम्पदा की रक्षा हर हाल में करना। भोजन को दवा समझकर खाना। स्वाद के वश होकर खाते मत रह जाना। जीने के लिए खाना, न कि खाने के लिए जीना।''
तुम्हारा पिता,
घनश्यामदास बिड़ला