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संघ मुख्यालय में प्रणब दा के 'कहे के मायने' और उनका विश्लेषण
संजय तिवारी
कई दिनों से चर्चा में रही पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का बहु प्रतीक्षित सम्बोधन देश - दुनिया ने सुना। प्रणब दा ने यकीनन भारत को उसी सम्पूर्णता में व्याख्यायित किया जिस रूप में उनके भाषण से पूर्व संघ प्रमुख मोहन भागवत ने इसे रखा था। दादा का विषय स्पष्ट था। राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्र भक्ति उनके व्याख्यान का आधार था। उन्होंने इन्ही तीन शब्दों की व्याख्या में समग्र भारतीयता को रेखांकित किया। यह भी सन्देश दे दिया कि भारत में 7 धर्म,22 भाषाएँ और 1600 बोलियां हैं। ऐसे में एक धर्म ,एक भाषा का सिद्धांत यहाँ संभव नहीं है। यह वसुधैवकुटुम्बकम का देश है। पूर्व राष्ट्रपति ने जिस रूप में भारत को प्रस्तुत किया वह हूबहू वैसा ही था जिस रूप में मोहन भागवत ने देश की अवधारणा उनके व्याख्यान से प्रस्तुत किया था। एक वाक्य में यह कहा जा सकता है कि प्रणब दा के जरिये संघ अपने फलक को सर्व स्वीकार्य और विस्तृत बनाने में काफी हद तक सफलता पा ली। वन्देमातरम से प्रणब दा के व्याख्यान का समापन ऐतिहासिक है।
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पूर्व राष्ट्रपति और 43 साल से कांग्रेस नेता प्रणब मुखर्जी गुरुवार को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के मुख्यालय पहुंचे। उन्होंने संघ के संस्थापक केशव राव बलिराम हेडगेवार को श्रद्धांजलि दी। उन्हें भारत माता का महान बेटा बताया। इस दौरान सरसंघचालक मोहन भागवत उनके साथ मौजूद रहे। प्रणब मुखर्जी ने आरएसएस चीफ मोहन भागवत से राष्ट्रपति भवन छोड़ने से पहले चार बार मुलाकात की है। दोनों के बीच पहली मुलाकात उस वक्त हुई थी जब वह राष्ट्रपति थे। राष्ट्रपति रहते प्रणब दा ने भागवत को राष्ट्रपति भवन में दोपहर भोज के लिए भी आमंत्रित किया था। इसके बाद दो बार राष्ट्रपति भवन छोड़ने के बाद दोनों के बीच मुलाकात हुई है। इस साल के शुरू में प्रणब मुखर्जी ने प्रणब मुखर्जी फाउंडेशन के प्रारंभ होने के अवसर पर संघ के शीर्ष नेताओं को बुलाया था।
यहाँ यह भी ध्यान देने की बात है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तृतीय वर्ष वर्ग के विदाई समारोह में प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व प्रभावशाली व्यक्त्यिों को आमंत्रित करता रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी 25 दिसम्बर 1934 को वर्धा में आयोजित संघ के समारोह में मुख्य अतिथि के तौर शामिल हुये थे। 1939 के पूना में आयोजित राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तृतीय वर्ष वर्ग के विदाई समारोह में बाबासाहेब डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर मुख्य अतिथि थे। 03 नवम्बर 1977 को पटना में आयोजित संघ के तृतीय वर्ष वर्ग के विदाई समारोह में लोकनायक जयप्रकाश नारायण मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुये थे। 2014 में श्री श्री रविशंकर व कर्नाटक के धर्मस्थल मन्दिर के धर्माधिकारी डॉ. विरेन्द्र हेगड़े 2015 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तृतीय वर्ष वर्ग के विदाई समारोह में शामिल हो चुके हैं।
दर असल प्रणब मुखर्जी जन्मजात कांग्रेसी रहे हैं इस कारण उनकी यह यात्रा ज्यादा चर्चा में रही । उनकी बेटी तक ने उनकी इस यात्रा पर सवाल उठाये।कांग्रेस का मानना है कि प्रणब दा पार्टी से पूछे बिना राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे कट्टर विचारधारा वाले संगठन के कार्यक्रम में कैसे जा सकते हैं। लेकिन अपनी धुन के पक्के प्रणब दा ने संघ के कार्यक्रम में शामिल हो कर यह साफ़ कर दिया कि अब उनका कद पार्टियों से ऊपर उठ चुका है। वे किसी दल विशेष के बंधन में बंधे नहीं रह सकते हैं। लेकिन यह भी ध्यान देने की बात है कि प्रणब दा के इस व्याख्यान और संघ मुख्यालय की उनकी यात्रा के दूरगामी परिणाम अवश्य मिलेंगे। खास तौर पर ऐसे समय जब पश्चिम बंगाल में चुनाव होने है , इस समारोह में नेता जी के पोते की सपरिवार उपस्थिति भी अपना प्रभाव छोड़ेगी।
राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता पर बात करने आया हूँ : प्रणब मुखर्जी
मैं आज यहां राष्ट्र , राष्ट्रवाद और राष्ट्रीयता की अवधारणा के बारे में अपनी बात साझा करने आया हूं। इन तीनों को आपस में अलग-अलग रूप में देखना मुश्किल है। देश यानी एक बड़ा समूह जो एक क्षेत्र में समान भाषाओं और संस्कृति को साझा करता है। राष्ट्रीयता देश के प्रति समर्पण और आदर का नाम है।भारत खुला समाज है। भारत सिल्क रूट से जुड़ा हुआ था। हमने संस्कृति, आस्था, आविष्कारों और महान व्यक्तियों की विचारधारा को साझा किया है। बौद्ध धर्म पर हिंदुओं का प्रभाव रहा है। यह भारत, मध्य एशिया, चीन तक फैला। मैगस्थनीज आए, हुआन सांग भारत आए। इनके जैसे यात्रियों ने भारत को प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था, सुनियोजित बुनियादी ढांचे और व्यवस्थित शहरों वाला देश बताया।’’
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यूरोप के मुकाबले भारत में राष्ट्रवाद का फलसफा वसुधैव कुटुंबकम से आया है। हम सभी को परिवार के रूप में देखते हैं। हमारी राष्ट्रीय पहचान जुड़ाव से उपजी है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में महाजनपदों के नायक चंद्रगुप्त मौर्य थे। मौर्य के बाद भारत छोटे-छोटे शासनों में बंट गया। 550 ईसवीं तक गुप्तों का शासन खत्म हाे गया। कई सौ सालों बाद दिल्ली में मुस्लिम शासक आए। बाद में इस देश पर ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1757 में प्लासी की लड़ाई जीतकर राज किया।’’
ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्रशासन का संघीय ढांचा बनाया। 1774 में गवर्नर जनरल का शासन आया। 2500 साल तक बदलती रही राजनीतिक स्थितियों के बाद भी मूल भाव बरकरार रखा। हर योद्धा ने यहां की एकता को अपनाया। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा था- कोई नहीं जानता कि दुनियाभर से भारत में कहां-कहां से लोग आए और यहां आकर भारत नाम की व्यक्तिगत आत्मा में तब्दील हो गए।’’
1895 में कांग्रेस के सुरेंद्रनाथ बैनर्जी ने अपने भाषण में राष्ट्रवाद का जिक्र किया था। महान देशभक्त बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूंगा।’’
''हमारी राष्ट्रीयता को रूढ़वादिता, धर्म, क्षेत्र, घृणा और असहिष्णुता के तौर पर परिभाषित करने का किसी भी तरह का प्रयास हमारी पहचान को धुंधला कर देगा। हम सहनशीलता, सम्मान और अनेकता से अपनी शक्ति प्राप्त करते हैं और अपनी विविधता का उत्सव मनाते हैं। हमारे लिए लोकतंत्र उपहार नहीं। बल्कि एक पवित्र काम है। राष्ट्रवाद किसी धर्म, जाति से नहीं बंधा।’’
‘‘पचास साल के अपने सार्वजनिक जीवन के कुछ सार आपके साथ साझा करना चाहता हूं। देश के मूल विचार में बहुसंख्यकवाद और सहिष्णुता है। ये हमारी समग्र संस्कृति है जो कहती है कि एक भाषा, एक संस्कृति नहीं, बल्कि भारत विविधता में है। 1.3 अरब लोग 122 भाषाएं और 1600 बोलियां बोलते हैं। 7 मुख्य धर्म हैं। लेकिन तथ्य, संविधान और पहचान एक ही है- भारतीय।’’
‘‘मेरा मानना है कि लोकतंत्र में देश के सभी मुद्दों पर सार्वजनिक संवाद होना चाहिए। विभाजनकारी विचारों की हमें पहचान करनी होगी। हम सहमत हो सकते हैं, नहीं भी हो सकते। लेकिन हम विचारों की विविधता और बहुलता को नहीं नकार सकते।’’
‘‘जब कभी किसी महिला या बच्चे के साथ बर्बरता होता है, तो देश का नुकसान होता है। हिंसा से डर का भाव आता है। हमें शारीरिक-मौखिक हिंसा को नकारना चाहिए। लंबे वक्त तक हम दर्द में जिए हैं। शांति, सौहार्द्र और खुशी फैलाने के लिए हम संघर्ष करना चाहिए।’’
‘‘हमने अर्थव्यवस्था की बारीक चीजों और विकास दर के लिए अच्छा काम किया है। लेकिन हमने हैप्पिनेस इंडेक्स में अच्छा काम नहीं किया है। हम 133वें नंबर पर हैं। संसद में जब हम जाते हैं तो गेट नंबर 6 की लिफ्ट के बाहर लिखा है- जनता की खुशी में उसके राजा की खुशी है। ...कौटिल्य ने लोकतंत्र की अवधारणा से काफी साल पहले जनता की खुशी के बारे में कहा था।’’
''गांधी जी ने कहा था कि हमारा राष्ट्रवाद आक्रामक, ध्वंसात्मक और एकीकृत नहीं है। डिस्कवरी ऑफ इंडिया में पं. नेहरू ने राष्ट्रवाद के बारे में लिखा था- मैं पूरी तरह मानता हूं कि भारत का राष्ट्रवाद हिंदू, मुस्लिम, सिख, इसाई और दूसरे धर्मों के आदर्श मिश्रण में है।''
भारत में जन्मा हर व्यक्ति भारत पुत्र : मोहन भागवत
''प्रणब जी से हम परिचित हुए। सारा देश पहले से ही जानता है। अत्यंत ज्ञान और अनुभव समृद्ध आदरणीय व्यक्तित्व हमारे साथ है। हमने सहज रूप से उन्हें आमंत्रण दिया है। उनको कैसे बुलाया और वे क्यों जा रहे हैं। ये चर्चा बहुत है।''
''हिंदू समाज में एक अलग प्रभावी संगठन खड़ा करने के लिए संघ नहीं है। संघ सम्पूर्ण समाज को खड़ा करने के लिए है। विविधता में एकता हजारों वर्षों से परंपरा रही है। हम यहां पैदा हुए इसलिए भारतवासी नहीं हैं। ये केवल नागरिकता की बात नहीं है। भारत की धरती पर जन्मा हर व्यक्ति भारत पुत्र है।''
''हमारी इसी संस्कृति के अनुसार इस देश में जीवन बने। सारे भेद-स्वार्थ मिटाकर सुख-शांति पूर्ण संतुलित जीवन देने वाला प्राकृतिक धर्म राष्ट्र को दिया जाए ऐसा करने में अनेक महापुरुषों ने अपनी बलि भी दे दी।''
''किसी राष्ट्र का भाग्य बनाने वाले व्यक्ति, विचार, सरकारें नहीं होते। सरकारें बहुत कुछ कर सकती हैं, लेकिन सबकुछ नहीं कर सकती हैं। देश का समाज अपने भेद मिटाकर, स्वार्थ को तिलांजलि देकर देश के लिए पुरुषार्थ करने के लिए तैयार होता है तो सारे नेता, सारे विचार समूह उस अभियान का हिस्सा बनते हैं और तब देश बदलता है।''
''आजादी से पहले सभी विचारधाराओं वाले महापुरुषों की चिंता थी कि हमारे विचार से कुछ भला होगा, लेकिन सदा के लिए बीमारी नहीं खत्म होगी। डॉ. हेडगेवार सभी कार्यों में सक्रिय कार्यकर्ता थे। उनको अपने लिए करने की कोई इच्छा नहीं थी। वे सब कार्यों में रहे। कांग्रेस के आंदोलन में दो बार जेल गए, उसके कार्यकर्ता भी रहे। समाजसुधार के काम में सुधारकों के साथ रहे। धर्म संस्कृति के संरक्षण में संतों के साथ रहे।''
''हेडगेवार जी ने 1911 में उन्होंने सोचना शुरू किया। उन्होंने विजयादशमी के मौके पर 17 लोगों को साथ लेकर कहा कि हिंदू समाज उत्तरदायी समाज है। हिंदू समाज को संगठित करने के लिए संघ का काम आज शुरू हुआ है। ये जो हमारी दृष्टि है, हमसब एक हैं। किसी किसी को एकदम समझ आता है, किसी को समझ में नहीं आता है। किसी को मालूम होते हुए भी वो उल्टा चलते हैं। किसी को तो मालूम भी नहीं है।''
''भारत में दुश्मन कोई नहीं है। सबकी माता भारत माता है। 40 हजार साल से सबके पूर्वज समान हैं। सबके जीवन के ऊपर भारतीय संस्कृति के प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलते हैं। इस सत्य को संकुचित भेद छोड़कर स्वीकार कर लें। भारतीयता के सनातन प्रवाह को स्वीकार करते जाएं। संघ को समाज में नहीं, समाज का संगठन करना है।''
''संघ लोकतांत्रिक है। इसी व्यवहार से स्वभाव बनता है। समाज का हर व्यक्ति अध्ययन और विचार करके नहीं चलता। वो उस वातावरण के हिसाब से चलता है, जो बनता है। वातावरण बनाने वाले लोग चाहिए। तात्विक चर्चा हमारा समाज नहीं करता। तत्व की चर्चा करने जाएंगे तो विषयों को लेकर मतभेद होगा। हर ऋषि अलग-अलग बात बताता है। अनुयाई वैसे ही चलते हैं।''