×

पुण्यतिथि पर विशेष : विपक्ष के लिए चुनौती का हिमालय थीं इंदिरा गांधी

वह गुड़िया थीं। वो प्रियदर्शिनी थीं। अंग्रेजों के खिलाफ बनीं बच्चों की वानर सेना की नायिका थीं। मोतीलाल की नातिन थीं। पं. जवाहर लाल नेहरु की बेटी थीं। वो फिरोजगांधी की पत्नी थीं। राजीव और संजय की माता थीं। वो सोनिया और मेनका की सास थीं। वो राहुल, प्रियंका और वरूण की दादी थीं। हां, इंदिरा गांधी थीं।

tiwarishalini
Published on: 31 Oct 2017 3:44 AM IST
पुण्यतिथि पर विशेष : विपक्ष के लिए चुनौती का हिमालय थीं इंदिरा गांधी
X

sanjay tiwari संजय तिवारी

वह गुड़िया थीं। वह प्रियदर्शिनी थीं। अंग्रेजों के खिलाफ बनीं बच्चों की वानर सेना की नायिका थीं। मोतीलाल की नातिन थीं। पं. जवाहर लाल नेहरु की बेटी थीं। वह फिरोज गांधी की पत्नी थीं। राजीव और संजय की माता थीं। वह सोनिया और मेनका की सास थीं। वह राहुल, प्रियंका और वरूण की दादी थीं। हां, वह इंदिरा गांधी थीं। सरदार वल्लभ भाई पटेल भारत के लौह पुरुष तो इंदिरा भारत की लौह महिला थीं। विश्व की महिलाओं के लिए रोल इंदिरा रोल मॉडल थीं। प्रतिपक्ष के नेता अटल बिहारी के लिए 1971 में साक्षात दुर्गा थीं। वह जो भी थीं, अद्भुत थीं। शक्ति स्वरूप थीं। जिद्दी थीं। कड़ी थीं। सक्षम प्रशासक थीं। संवेदनशील वक्ता थीं। दूरदर्शी थीं और विपक्ष के लिए सर्वदा चुनौती का हिमालय थीं। वह इंदिरा गांधी थीं। भारत की तत्कालीन पीएम और विश्व में भारत की महिलाओं की शक्ति स्वरूप का प्रतिनिधित्व करने वाली सुंदर और शानदार छवि थीं इंदिरा गांधी।

31 अक्टूबर 1984 भारत के इतिहास का वह काला अध्याय है जब इंदिरा गांधी को उन्हीं के दो अंगरक्षकों ने गोलियां से छलनी किया था। इंदिरा गांधी की हत्या यकीनन कहीं न कहीं भारत की हत्या थी। क्योंकि भारत में अभी तक कोई दूसरी इंदिरा नहीं दिखाई दी। वैचारिक प्रतिबद्धता और विरोध बिल्कुल अलग बातें हैं। शासन सत्ता और राजनीति बिल्कुल अलग। दोनों को जोड़ा नहीं जा सकता। हर शासक में यदि कुछ खूबियां होती हैं तो खामियां भी होती हैं, लेकिन इतिहास उसी की गाथा गाता है जिसकी खूबियां आने वाली पीढिय़ों को खलती हैं। पीढिय़ां उसे मिस करती हैं। इंदिरा गांधी भारतीय इतिहास की वही शख्सियत हैं जिनको मिस तो सभी करते हैं चाहे उनकी पार्टी के लोग हों या विपरीत विचार वाले।

इंदिरा गांधी की राजनीतिक यात्रा और भारत के विकास में उनके योगदान को न तो नकारा जा सकता है और न ही उसकी अनदेखी की जा सकती है। उनके बिना भारत का आधुनिक इतिहास बनता ही नहीं है। जिस दिन उनकी हत्या हुई थी उसी दिन वह ब्रिटिश अभिनेता पीटर उस्तीनोवा को आएरिस्ट टेलीविजन के लिए एक इंटरव्यू दे रही थीं। यह सब फिल्माया जा रहा था। इसी दौरान वह उस छोटे गेट से आगे बढ़ रहीं थीं जहां सतवंत और बेयंत पहरा दे रहे थे। दोनों ने उन पर तीन राउंड गोलियां चलाईं और स्टेन कार्बाइन का उपयोग कर 22 राउंड फायरिंग करते रहे। वहां मौजूद अंगरक्षकों ने बेयंत सिंह को गोली मारी और सतवंत सिंह को भी गोली मारकर अरेस्ट कर लिया।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देश में जो हालात पैदा हुए उसके बारे में यहां उल्लेख करना उचित नहीं है। यह जरूर उचित लगता है कि उनकी राजनीतिक यात्रा को ठीक से समझने का प्रयास किया जाए। क्योंकि उनकी राजनीतिक यात्रा केवल एक राजनीतिज्ञ की यात्रा नहीं थी, बल्कि भारत के निर्माण की दिशा में कुछ ऐसे महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की भी यात्रा थी, जिनका संबंध सीधे देश के भविष्य से जुड़ा हुआ था। जिसमें राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, घरेलू नीति, परमाणु कार्यक्रम, हरित क्रांति जैसे अनगिनत कार्यक्रम शामिल थे। गरीबी हटाओ का उनका नारा और 20 सूत्रीय आर्थिक कार्यक्रमों की चर्चा अभी भी होती रहती है।

इंदिरा गांधी के कार्यकाल में आपातकाल एक ऐसे धब्बे के रूप में शामिल हुआ जिसकी चर्चा के बिना उनके कार्यकाल को पूरा नहीं किया जा सकता। महज 27 साल के स्वाधीन भारतीय लोकतंत्र पर आपातकाल थोपना शायद उनके जीवन की सबसे बड़ी गलती थी। इसका खामियाजा भी उन्हें भुगतना पड़ा। अपने निधन से ठीक 2 साल पहले इंदिरा गांधी ने एक राष्ट्रीय पत्रिका को बहुत लंबा इंटरव्यू दिया था। जिसमें उन्होंने अपने जीवन के कई अंतरंग पहलुओं को सार्वजनिक किया था।

इस इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि मैं 16 साल की थी, जब फिरोज ने मुझे प्रपोज किया। वे मुझे तब तक प्रपोज करते रहे, जब तक मैं मान नहीं गई। फिरोज मेरी जिंदगी में इकलौते आदमी थे। अपने बच्चों का मैंने बहुत ख्याल रखा है। कभी उन्हें किसी को छूने तक नहीं दिया। जिंदगी में बहुत-सी मुश्किलें और तकलीफें आई हैं। मेरा मानना है कि आप अपनी खुशी तो दूसरों के साथ बांट सकते हैं, लेकिन गम नहीं। वह आपको अकेले ही संभालना पड़ता है। मुझे लगता है कि मैंने खुद को पूरी तरह अकेले ही संभाला है।

इसी इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि आजादी की लड़ाई और राजनीति की बातों में मैं इतनी मगन थी कि एक आम किशोरी की तरह मन में कभी भावनाएं उठी ही नहीं। मेरी कोई सहेली नहीं थीं। बस कजिन्स थे, जो लड़के थे। स्कूल में कुछ लोगों से दोस्ती थी, पर लड़कियों वाली गॉसिप से नफरत थी। मुझे पेड़ पर चढऩे जैसे खेल पसंद थे। सबसे ज्यादा खुश मैं अपने माता-पिता के साथ होती थी, क्योंकि उनके साथ रहने के अवसर कम मिलते थे। जब पिता जेल से बाहर होते, तो मुझे बहुत खुशी होती थी। मुझे पहाड़ों पर जाना भी बहुत पसंद था।

इंदिरा की बुआ कृष्णा हठी सिंह ने अपनी किताब 'डियर टू बीहोल्ड' में लिखा कि भारत ने एक महिला को राष्ट्र की मुखिया के रूप में चुना। इस पर दुनिया दंग थी। जब वह पहली बार यूएस गईं, तो अमरीकन प्रेस उनके महिला मुखिया होने से सम्मोहित थी।

इंदिरा ने कहा था कि मैं जो हूं पिता की वजह से। बचपन में मैंने कभी भी देश का मुखिया बनने का सपना नहीं देखा था। मैं जो कुछ बनी, मेरे पिता ने बनाया। दरअसल, हर इंसान पूरे वक्त कहीं न कहीं से, किसी न किसी से कुछ न कुछ सीखता रहता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। मेरे लिए हर वो शख्स हीरो था, जिसने देश की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी। जब मेरी मां की मौत हुई, मैं बस 19 साल की थी।

यह भी पढ़ें ... ये है PM मोदी की काशी का वो अस्पताल जहां खुद आती थीं इंदिरा गांधी, आज पड़ा है बीमार

इंदिरा गांधी किस तरह भारत की राजनीति में स्थापित हुई और देश की जरुरत बन गईं. इस यात्रा पर थोड़ी निगाह डालना जरुरी लगता है। जब भारत का पहला आम चुनाव 1951 में समीपवर्ती हुआ, वह अपने पिता एवं अपने पति जो रायबरेली निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे थे, दोनों के प्रचार प्रबंध में लगी रहीं। फिरोज ने अपने प्रतिद्वंदिता चयन के बारे में नेहरू से सलाह मशविरा नहीं किया था और यद्दपि वह निर्वाचित हुए, दिल्ली में अपना अलग निवास का विकल्प चुना। फिरोज ने बहुत ही जल्द एक राष्ट्रीयकृत बीमा उद्योग में घटे प्रमुख घोटाले को उजागर कर राजनैतिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाकू होने की छवि को विकसित किया। जिसके परिणामस्वरूप नेहरू के एक सहयोगी, वित्त मंत्री, को इस्तीफा देना पड़ा। तनाव की चरम सीमा की स्थिति में इंदिरा अपने पति से अलग हुईं। हालांकि, 1958 में उप-निर्वाचन के थोड़े समय के बाद फिरोज़ को दिल का दौरा पड़ा, जिसने नाटकीय ढ़ंग से उनके टूटे हुए वैवाहिक बंधन को चंगा किया।

कश्मीर में उन्हें स्वास्थोद्धार में साथ देते हुए उनकी परिवार निकटवर्ती हुई। 8 सितंबर,1960 को जब इंदिरा अपने पिता के साथ एक विदेश दौरे पर गईं थीं, तब फिरोज़ की मृत्यु हुई। इस बीच 1959 और 1960 के दौरान इंदिरा ने चुनाव लड़ा और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। उनका कार्यकाल घटनाविहीन था। वो अपने पिता के कर्मचारियों के प्रमुख की भूमिका निभा रहीं थीं।

पंडित नेहरू का देहांत 27 मई, 1964 को हुआ और इंदिरा ने नए पीएम लाल बहादुर शास्त्री की प्रेरणा पर चुनाव लड़ा और तत्काल सूचना और प्रसारण मंत्री के लिए नियुक्त हो, सरकार में शामिल हुईं। हिन्दी के राष्ट्रभाषा बनने के मुद्दे पर दक्षिण के गैर हिन्दी भाषी राज्यों में दंगा छिड़ने पर वह चेन्नई गईं। वहां उन्होंने सरकारी अधिकारियों के साथ विचार विमर्श किया। समुदाय के नेताओं के गुस्से को प्रशमित किया। प्रभावित क्षेत्रों के पुनर्निर्माण प्रयासों की देखरेख की। अब वह समय आया जिसने भारत की राजनीति की दिशा बदल दी।

जब 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध चल रहा था, इंदिरा श्रीनगर सीमा क्षेत्र में उपस्थित थी। हालांकि, सेना ने चेतावनी दी थी कि पाकिस्तानी अनुप्रवेशकारी शहर के बहुत ही करीब तीब्र गति से पहुंच चुके हैं। उन्होंने अपने को जम्मू या दिल्ली में पुनःस्थापन का प्रस्ताव नामंजूर कर दिया और उल्टे स्थानीय सरकार का चक्कर लगाती रहीं और संवाद माध्यमों के ध्यानाकर्षण को स्वागत किया।

ताशकंद में सोवियत मध्यस्थता में पाकिस्तान के अयूब खान के साथ शांति समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही लालबहादुर शास्त्री का निधन हो गया। तब कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष के. कामराज ने शास्त्री के आकस्मिक निधन के बाद इंदिरा गांधी के पीएम बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।

यह भी पढ़ें ... 31 अक्टूबर, जयंती पर विशेष : सरदार पटेल एकता के सूत्रधार

1966 में जब गांधी पीएम प्रधानमंत्री बनीं, कांग्रेस दो गुटों में विभाजित हो चुकी थी। इंदिरा गांधी के नेतृत्व में समाजवादी और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में रूढीवादी। मोरारजी देसाई उन्हें "गूंगी गुड़िया" कहा करते थे। 1967 के चुनाव में आंतरिक समस्याएं उभरी। जहां कांग्रेस ने लगभग 60 सीटें खोकर 545 सीटों वाली लोकसभा में 297 सीट प्राप्त की। उन्हें देसाई को भारत के भारत के डिप्टी पीएम और वित्त मंत्री के रूप में लेना पड़ा। 1969 में देसाई के साथ अनेक मुददों पर असहमति के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस विभाजित हो गई। उन्होंने समाजवादियों एवं साम्यवादी दलों से समर्थन पाकर अगले दो सालों तक शासन चलाया।

उसी साल जुलाई 1969 को उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। 1971 में बांग्लादेशी शरणार्थी समस्या हल करने के लिए उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान की ओर से, जो अपनी स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, पाकिस्तान पर युद्ध घोषित कर दिया। 1971 के युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के अधीन अमेरिका अपने सातवें बेड़े को भारत को पूर्वी पाकिस्तान से दूर रहने के लिए यह वजह दिखाते हुए कि पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ एक व्यापक हमला विशेष रूप सेकश्मीर के सीमाक्षेत्र के मुद्दे को लेकर हो सकती है। चेतावनी के रूप में बंगाल की खाड़ी में भेजा। यह कदम प्रथम विश्व से भारत को विमुख कर दिया था और पीएम इंदिरा गांधी ने अब तेजी के साथ एक पूर्व सतर्कतापूर्ण राष्ट्रीय सुरक्षा और विदेश नीति को नई दिशा दी।

भारत और सोवियत संघ पहले ही मित्रता और आपसी सहयोग संधि पर हस्ताक्षर किए थे। जिसके परिणामस्वरूप 1971 के युद्ध में भारत की जीत में राजनैतिक और सैन्य समर्थन का पर्याप्त योगदान रहा। लेकिन, जनवादी चीन गणराज्य से परमाणु खतरे तथा दो प्रमुख महाशक्तियों की दखलंदाजी में रूचि भारत की स्थिरता और सुरक्षा के लिए अनुकूल नहीं महसूस किए जाने के मद्दे नजर, गांधी का अब एक राष्ट्रीय परमाणु कार्यक्रम था।

उन्होंने नए पाकिस्तानी राष्ट्रपति ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को एक सप्ताह तक चलने वाली शिमला शिखर वार्ता में आमंत्रित किया था। वार्ता के विफलता के करीब पहुँच दोनों राज्य प्रमुख ने अंततः शिमला समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके तहत कश्मीर विवाद को वार्ता और शांतिपूर्ण ढंग से मिटाने के लिए दोनों देश अनुबंधित हुए। स्माइलिंग बुद्धा के अनौपचारिक छाया नाम से 1974 में भारत ने सफलतापूर्वक एक भूमिगत परमाणु परीक्षण राजस्थान के रेगिस्तान में बसे गाँव पोखरण के करीब किया। शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए परीक्षण का वर्णन करते हुए भारत दुनिया की सबसे नवीनतम परमाणु शक्तिधर बन गया।

इंदिरा गांधी की सरकार को उनकी 1971 के जबरदस्त जनादेश के बाद प्रमुख कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। कांग्रेस पार्टी की आंतरिक संरचना इसके असंख्य विभाजन के फलस्वरूप कमजोर पड़ने से चुनाव में भाग्य निर्धारण के लिए पूरी तरह से उनके नेतृत्व पर निर्भरशील हो गई थी। गांधी का सन् 1971 की तैयारी में नारे का विषय था गरीबी हटाओ। यह नारा और प्रस्तावित गरीबी हटाओ कार्यक्रम का खाका, जो इसके साथ आया, गांधी को ग्रामीण और शहरी गरीबों पर आधारित एक स्वतंत्र राष्ट्रीय समर्थन देने के लिए तैयार किए गए थे। इस तरह उन्हें प्रमुख ग्रामीण जातियों के दबदबे में रहे राज्य और स्थानीय सरकारों एवं शहरी व्यापारी वर्ग को अनदेखा करने की अनुमति रही थी। और, अतीत में बेजुबां रहे गरीब के हिस्से, कम से कम राजनातिक मूल्य एवं राजनातिक भार, दोनों की प्राप्ति में वृद्धि हुई।

राज नारायण (जो बार बार रायबरेली संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से लड़ते और हारते रहे थे) द्वारा दायर एक चुनाव याचिका में कथित तौर पर भ्रष्टाचार आरोपों के आधार पर 12 जून, 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के लोक सभा चुनाव को रद्द घोषित कर दिया। इस प्रकार अदालत ने उनके विरुद्ध संसद का आसन छोड़ने तथा छह वर्षों के लिए चुनाव में भाग लेने पर बैन का आदेश दिया। प्रधानमन्त्रीत्व के लिए लोक सभा (भारतीय संसद के निम्न सदन) या राज्य सभा (संसद के उच्च सदन) का सदस्य होना अनिवार्य है।

इस प्रकार, यह निर्णय उन्हें प्रभावी रूप से कार्यालय से पदमुक्त कर दिया। जब गांधी ने फैसले पर अपील की, राजनैतिक पूंजी हासिल करने को उत्सुक विपक्षी दलों और उनके समर्थक, उनके इस्तीफे के लिए, सामूहिक रूप से चक्कर काटने लगे। ढेरों संख्या में यूनियनों और विरोधकारियों द्वारा किये गए हड़ताल से कई राज्यों में जनजीवन ठप्प पड़ गया। इस आन्दोलन को मजबूत करने के लिए, जयप्रकाश नारायण ने पुलिस को निहत्थे भीड़ पर सम्भब्य गोली चलाने के आदेश का उलंघन करने के लिये आह्वान किया। कठिन आर्थिक दौर के साथ साथ जनता की उनके सरकार से मोहभंग होने से विरोधकारिओं के विशाल भीड़ ने संसद भवन तथा दिल्ली में उनके निवास को घेर लिया और उनके इस्तीफे की मांग करने लगे।

आपातकाल (1975-1977)

इंदिरा गांधी ने व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के पदक्षेप स्वरुप, अशांति मचानेवाले ज्यादातर विरोधियों के गिरफ्तारी का आदेश दे दिया। तदोपरांत उनके मंत्रिमंडल और सरकार द्वारा इस बात की सिफारिश की गई की राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद फैले अव्यवस्था और अराजकता को देखते हुए आपातकालीन स्थिति की घोषणा करें। तदनुसार, अहमद ने आतंरिक अव्यवस्था के मद्देनजर 26 जून 1975 को संविधान की धारा- 352 के प्रावधानानुसार आपातकालीन स्थिति की घोषणा कर दी।

कुछ ही महीने के भीतर दो विपक्षी दल शासित राज्यों गुजरात और तमिल नाडु पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया जिसके फलस्वरूप पूरे देश को प्रत्यक्ष केन्द्रीय शासन के अधीन ले लिया गया। मतदाताओं को उस शासन को मंज़ूरी देने का एक और मौका देने के लिए गांधी ने 1977 में चुनाव बुलाए। भारी सेंसर लगी प्रेस उनके बारे में जो लिखती थी, शायद उससे गांधी अपनी लोकप्रियता का हिसाब निहायत ग़लत लगायी होंगी। वजह जो भी रही हो, वह जनता दल से बुरी तरह से हार गयीं। लंबे समय से उनके प्रतिद्वंद्वी रहे देसाई के नेतृत्व तथा जय प्रकाश नारायण के आध्यात्मिक मार्गदर्शन में जनता दल ने भारत के पास "लोकतंत्र और तानाशाही" के बीच चुनाव का आखरी मौका दर्शाते हुए चुनाव जीत लिए। इंदिरा और संजय गांधी दोनों ने अपनी सीट खो दीं और कांग्रेस घटकर 153 सीटों में सिमट गई (पिछली लोकसभा में 350 की तुलना में) जिसमे 92 दक्षिण से थीं।

देसाई पीएम बने और 1969 के सरकारी पसंद नीलम संजीव रेड्डी गणतंत्र के राष्ट्रपति बनाये गए। इंदिरा गांधी को जबतक 1978 के उप -चुनाव में जीत नहीं हासिल हुई, उन्होंने अपने आप को कर्महीन, आयहीन और गृहहीन पाया। 1977 के चुनाव अभियान में कांग्रेस पार्टी का विभाजन हो गया: जगजीवन राम जैसे समर्थकों ने उनका साथ छोड़ दिया। कांग्रेस (गांधी) दल अब संसद में आधिकारिक तौर पर विपक्ष होते हुए एक बहुत छोटा समूह रह गया था। गठबंधन के विभिन्न पक्षों में आपसी लडाई में लिप्तता के चलते शासन में असमर्थ जनता सरकार के गृह मंत्री चौधरी चरण सिंह कई आरोपों में इंदिरा गांधी और संजय गांधी को गिरफ्तार करने के आदेश दिए, जिनमे से कोई एक भी भारतीय अदालत में साबित करना आसन नहीं था। इस गिरफ्तारी का मतलब था इंदिरा स्वतः ही संसद से निष्कासित हो गई। परन्तु यह रणनीति उल्टे अपदापूर्ण बन गई। उनकी गिरफ्तारी और लंबे समय तक चल रहे मुकदमे से उन्हें बहुत से वैसे लोगों से सहानुभूति मिली जो सिर्फ दो वर्ष पहले उन्हें तानाशाह समझ डर गए थे।

एक छोटे अंतराल के बाद, उन्होंने अपना प्रारंभिक समर्थन वापस ले लिया और राष्ट्रपति रेड्डीने 1979 की सर्दियों में संसद को भंग कर दिया। अगले जनवरी में आयोजित चुनावों में कांग्रेस पुनः सत्ता में वापस आ गयी भूस्खलन होने जैसे बहुमत के साथ / महाभीषण बहुमत के साथ. यह निश्चित ही इंदिरा के व्यक्तित्व का करिश्मा था। इंदिरा गांधी को (1983 - 1984) लेनिन शान्ति पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया और सोवियत संघ ने 1984 में उन पर डाक टिकट जारी किया।

विश्व साहित्य में इंदिरा गांधी

उनकी हत्या का उल्लेख जिक्रटॉम क्लेन्सि द्वारा अपने उपन्यास एक्जीक्यूटिव ऑर्डर्स में किया गया है। यद्यपि कहीं भी नाम का उल्लेख नहीं मिलता है, रोहिंतों मिस्त्री के ऐ फाईन बैलेंस में इंदिरा गांधी ही स्पष्ट रूप से पीएम है।

सलमान रुशदी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रन में इंदिरा, जिन्हें सारे उपन्यास में "दा विडो" बुलाया जाता है, स्वयं जिम्मेदार है अपने अविस्मरनीय चरित्र के पतन के लिए। इंदिरा गाँधी का यह चित्रण, इसमे उनके एवं उनकी नीतिओं, दोनों के रूखे प्रदर्शन से कुछ खेमों में विवादित है।

शशि थरूर की दा ग्रेट इंडियन नोवेल में प्रिय दुर्योधन का चरित्र साफ़ साफ़ इंदिरा गाँधी को संदर्भित करता है। "आंधी", गुलज़ार द्वारा निर्देशित एक हिन्दी चलचित्र (फीचर फ़िल्म) है, जो आंशिक रूप से इंदिरा की जिंदगी के कुछ घटनाओं, विशेष रूप से उनकी (सुचित्रा सेन द्वारा फिल्माया गया) उनके पति के साथ कठिन संबंध (संजीव कुमार द्वारा फिल्माया गया), का काल्पनिक अनुकरण है।

यन्न मार्टेल के लाइफ ऑफ़ पाई में 1970 के दशक के मध्य में भारत के राजनितिक माहौल का जिक्र करते समय "श्रीमती गाँधी" नाम से इंदिरा गाँधी का कई बार उल्लेख किया गया है।



tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

Next Story