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Allahabad Ki Tawaif Janki Bai: इलाहाबाद की वो तवायफ, जिसे एक हादसे ने बना दिया था छप्पन छुरी

Allahabad Ki Tawaif Janki Bai Story in Hindi: प्रयागराज की एक मशहूर तवायफ थीं, जिनकी गायकी का जादू इस कदर था कि लोग सुबह-शाम का भान खो बैठते थे। लेकिन एक हादसे ने उन्हें छप्पन छुरी नाम से मशहूर कर दिया। आइए जानते हैं उनके बारे में।

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 9 Feb 2025 2:41 PM IST
Allahabad Ki Tawaif Janki Bai Life History 
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Allahabad Ki Tawaif Janki Bai Life History 

Chappan Churi Kon Thi: प्राचीन भारतीय समाज में तवायफों का एक महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वे न केवल नृत्य और संगीत की कला में निपुण थीं, बल्कि संस्कृति और साहित्य के संरक्षण में भी उनका योगदान उल्लेखनीय था। ऐसी ही एक प्रसिद्ध तवायफ थीं जानकी बाई (Janki Bai), जिन्हें ‘छप्पन छुरी’ (Chappan Churi) के नाम से जाना जाता है। उनकी कहानी साहस, संघर्ष और कला की उत्कृष्टता का प्रतीक है।

जानकी बाई के बारे में (Tawaif Janki Bai Ke Bare Mein)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

जानकी बाई का जन्म 1880 में वाराणसी (बनारस) में हुआ था। उनकी माता मानकी देवी थीं। जानकी के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता ने परिवार को छोड़ दिया, जिसके कारण उनकी माँ को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी के चलते, मानकी देवी ने जानकी के साथ इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) का रुख किया, जहाँ उन्हें एक कोठे पर शरण मिली।

जानकीबाई 1910 में प्रयागराज आ गई थीं। पार्वती नामक एक महिला के प्रभाव में आकर उनका परिवार यहां आया था। वे चौक घंटाघर के पास एक मकान में रहती थीं। जानकी बाई ने प्रारंभिक संगीत की शिक्षा मंदिरों में ली, जहां भजन और कीर्तन होते थे। वे काशी के मंदिरों में भजन कीर्तन सुनकर उन्हें गुनगुनाने लगीं। उनकी मधुर आवाज ने लोगों को मोहित कर लिया। उनकी मां ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और शास्त्रीय संगीत के उस्तादों से उन्हें विधिवत शिक्षा दिलवाई।

बारह वर्ष की उम्र में, जानकी बाई ने एक संगीत प्रतियोगिता में भाग लिया और बनारस के प्रख्यात गायक रघुनंदन दुबे को पराजित किया। यह उनकी संगीत यात्रा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव था।

संगीत की शिक्षा और प्रारंभिक करियर (Janki Bai Love For Music)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

इलाहाबाद में रहते हुए, जानकी बाई ने शास्त्रीय संगीत में गहन प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनकी मधुर आवाज और गायन की शैली ने उन्हें शीघ्र ही प्रसिद्धि दिलाई। वह विभिन्न महफिलों में गाने लगीं और उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी। उनकी आवाज की मिठास और गायन की गहराई ने श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

ब्रिटिश किंग के साथ मुलाकात

जानकी बाई की ख्याति न केवल भारत में, बल्कि विदेशों में भी फैल चुकी थी। कहा जाता है कि ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम भी उनकी गायकी के प्रशंसक थे। जब किंग जॉर्ज पंचम भारत आए, तो उन्होंने जानकी बाई के गायन का आनंद लिया और उनकी कला की सराहना की। इस मुलाकात ने जानकी बाई की अंतर्राष्ट्रीय ख्याति को और बढ़ाया।

जानकी बाई ने अपनी कला के माध्यम से समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया। उन्होंने न केवल संगीत के क्षेत्र में उत्कृष्टता हासिल की, बल्कि समाज के कमजोर वर्गों की मदद के लिए भी कार्य किए। उनकी कहानी ने कई महिलाओं को प्रेरित किया और यह दिखाया कि कठिन परिस्थितियों के बावजूद, दृढ़ संकल्प और मेहनत से सफलता हासिल की जा सकती है।

गायकी का जादू

जानकी बाई की गायकी का जादू इस कदर था कि लोग सुबह-शाम का भान खो बैठते थे। कहा जाता है कि एक बार इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में जब उन्होंने गीत गाया, तो उनका चबूतरा चांदी के सिक्कों से पट गया। जब गिनती की गई, तो कुल 14,070 रुपये निकले थे।

यह उनकी लोकप्रियता का प्रमाण था। जानकीबाई उत्तर भारत और मध्य भारत की प्रमुख रियासतों के संगीत आयोजनों में हिस्सा लेती थीं। उनके गानों की चर्चा पूरे भारत में थी। वे एक दिन के गायन के लिए एक हजार रुपये से अधिक लेती थीं, हालांकि धार्मिक समारोहों और मंदिरों में वे निशुल्क गाती थीं।

जानकीबाई केवल गायिका ही नहीं, बल्कि शायरा भी थीं। वे अपने लिखे गाने खुद गाती थीं। उनकी गजलों का एक संग्रह 'दीवाने-जानकी' 1915 के आसपास प्रकाशित हुआ था।

1911 में, प्रयागराज के जॉर्जटाउन में आयोजित एक विशाल संगीत समारोह में जानकीबाई ने प्रसिद्ध गायिका गौहरबानो को निर्णायक रूप से पराजित किया था। इस आयोजन में उन्होंने रात 12 बजे से लेकर 4 बजे तक लगातार गायन किया।

भारत की पहली महिला ग्रामोफोन गायिका (India's First Female Gramophone Singer)

1907 के आसपास, जानकी बाई इलाहाबादी उर्फ ‘छप्पन छुरी’ ने ग्रामोफोन कंपनी के लिए गाना रिकॉर्ड किया। जानकी बाई भारत की पहली महिला थीं, जिनकी आवाज़ ग्रामोफोन पर रिकॉर्ड की गई। इतिहासकार विक्रम संपत के अनुसार, उनकी आवाज़ लगभग दो दशक तक ग्रामोफोन इंडस्ट्री पर राज करती रही।

पहली रिकॉर्डिंग के लिए उन्हें 250 रुपये मिले, और आगे चलकर उनकी फीस 5000 रुपये तक पहुंच गई। वे फारसी, उर्दू, संस्कृत और अंग्रेज़ी भाषाओं में पारंगत थीं। उन्होंने कई गज़लें लिखीं, जिनका संग्रह 'दीवान-ए-जानकी' के नाम से प्रकाशित हुआ था।

जानकी बाई के प्रसिद्ध गीत (Janki Bai Popular Songs List)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

जानकी बाई ठुमरी और दादरा गायन में दक्ष थीं। उनके द्वारा गाए गए गीत ‘गुलनारों में राधा प्यारी बसे’ और ‘समधी देखो बांका निराला है रे’ जैसे गीत बेहद लोकप्रिय हुए। इसके अलावा, उनके कुछ सदाबहार गीत इस प्रकार हैं:-

‘रंग महल के 10 दरवाजे’

‘नहीं भूलरे तुम्हारी सूरतिया रामा’

‘मतवाले नैनवां जुल्म करें’

जब वे गाती थीं, तो महफिल में मौजूद श्रोता श्रृंगार रस में डूब जाते थे।

पहली मुलाकात: जब रामानंद दुबे हुआ मंत्रमुग्ध

एक दिन, जानकी बाई महफिल में ‘जमुना तट श्याम खेलें होरी’ गा रही थीं। उनकी मधुर आवाज़ सुनने के लिए भारी भीड़ जमा थी। तभी एक व्यक्ति, जो न बहुत बूढ़ा था और न ही बहुत जवान, महफिल में आया। वह अंग्रेज़ों का सैनिक रामानंद दुबे था। पान, इत्र और जाम का आनंद लेते हुए वह तकिए के सहारे बैठकर गाने का लुत्फ़ उठा रहा था।

उस समय जानकी बाई मात्र आठ वर्ष की थीं। रामानंद उनकी सुरीली आवाज़ से इतना प्रभावित हुआ कि उसने नोटों को उनके सिर के चारों ओर घुमाकर पास रखी चांदी की नक्काशीदार थाली में डाल दिया। इसके बाद, वह जानकी की मां के पास गया और कहा, "इसकी नथ उतराई नहीं हुई है, लेकिन जब होगी, तो मैं ही इसका नथ बाबू बनूंगा।"

नथ उतराई: तवायफ़ बनने की एक रस्म

'नथ उतराई' कोठे में रहने वाली लड़की के जीवन की एक महत्वपूर्ण रस्म थी। इस रस्म में लड़की को दुल्हन की तरह सजाया जाता था और उसकी नाक में एक बड़ी नथ पहनाई जाती थी, जो उसके कौमार्य का प्रतीक मानी जाती थी। यह रस्म पूरी होने के बाद लड़की फिर कभी नथ नहीं पहनती थी।

जानकी की मां को रामानंद की यह बात नागवार गुजरी। उन्होंने समझाया कि उनकी बेटी एक कलाकार है, लेकिन रामानंद अपनी जिद पर अड़ा रहा। बार-बार वही बात कहने पर जानकी की मां नाराज हो गईं और अपनी बेटी से कहा कि वह एक शीशा लेकर सिपाही के सामने खड़ी हो जाए। जानकी को कुछ समझ नहीं आया, फिर भी उसने वैसा ही किया।

जानकी की बात सुनकर रामानंद दुबे अपमानित महसूस करने लगा। उसने कसम खाई कि वह जानकी का चेहरा बर्बाद करके रहेगा। कुछ समय बाद, वह वापस लौटा। लेकिन इस बार उसके हाथ में तलवार थी। उसने जानकी पर कई वार किए, जिससे उनका चेहरा क्षत-विक्षत हो गया। इस हमले में उनके शरीर पर 56 घाव हो गए। इस घटना के बाद जानकी बाई पर्दे के पीछे से गाने लगीं और तभी से उन्हें ‘छप्पन छुरी’ के नाम से पुकारा जाने लगा।

रीवा दरबार में अद्वितीय सम्मान

एक बार जानकी बाई को मध्य भारत की रीवा रियासत के दशहरा समारोह में गाने के लिए बुलाया गया। उन्होंने पर्दे के पीछे से गाना शुरू किया। उनकी गायकी से मोहित होकर महाराजा ने आदेश दिया कि पर्दा हटाया जाए, ताकि वे कलाकार का चेहरा देख सकें। लेकिन जानकी ने साफ़ इनकार कर दिया। उन्होंने कहा, "मेरी आवाज़ ही मेरी पहचान है, चेहरा नहीं।"

महाराजा जानकी की इस बात से बेहद प्रभावित हुए और उन्हें अपने दरबार में स्थान देने की पेशकश की। लेकिन जानकी बाई ने यह प्रस्ताव भी ठुकरा दिया। उनका कहना था, "मेरी आत्मा इलाहाबाद में बसती है।" यही कारण था कि वे हमेशा अपने नाम के साथ ‘इलाहाबादी’ जोड़ती थीं।

अंतिम सफर

18 मई, 1934 को जानकी बाई का निधन हो गया। उनकी मृत्यु के साथ ही भारतीय संगीत के एक स्वर्णिम अध्याय का अंत हो गया। जानकी बाई अकेली ऐसी शख्सियत नहीं थीं, जिन्होंने अपने नाम में इलाहाबाद को शामिल किया। मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी भी इसी परंपरा का हिस्सा थे। जानकी जब भी कोई गज़ल या कविता लिखतीं, तो वह अकबर इलाहाबादी से राय जरूर लेती थीं।

समाज सेवा में योगदान

जानकी बाई समाज सेवा में भी अग्रणी थीं। वे गरीबों और जरूरतमंदों की खुलकर मदद करती थीं। बेसहारा बच्चों की शिक्षा और अनाथ लड़कियों की शादी में वे सहायता करती थीं। उनका दयालु स्वभाव और उदारता उन्हें अन्य गायिकाओं से अलग बनाती थी।

जानकी बाई की जीवन यात्रा संघर्षों और उपलब्धियों से भरी थी। उनकी संगीत साधना, अद्वितीय आत्मसम्मान और कला के प्रति समर्पण ने उन्हें भारतीय संगीत के इतिहास में अमर बना दिया।



Shreya

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