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Arundhati Roy Wiki in Hindi: मैं 16 साल की थी मैंने एक सुरक्षित घर, अच्छे कपड़े और जॉनसन के बेबी लोशन की जगह अपनी आजादी को चुना-अरुंधति राय

Arundhati Roy Biography Hindi: ये अंश हैं भारत देश की प्रतिष्ठित लेखिका और समाजसेविका अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई उपन्यास ’द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के..अपनी बेबाक लेखनी और सच्चाई और हक के पाले में रहते हुए सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों से निर्भीकता के साथ भिड़ना इनकी खूबी मानी जाती है।

Jyotsna Singh
Written By Jyotsna Singh
Published on: 7 Nov 2024 12:41 PM IST
Arundhati Roy Wiki in Hindi
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Arundhati Roy Wiki in Hindi

Arundhati Roy Wiki in Hindi: बुकर अवॉर्ड विजेता पहली भारतीय महिला हैं अरुंधति रॉय....महान कहानियों का रहस्य यह है कि उनमें कोई रहस्य नहीं होता । महान कहानियाँ वे हैं जिन्हें आपने सुना है और फिर से सुनना चाहते हैं। वे कहानियाँ हैं जिनमें आप कहीं भी प्रवेश कर सकते हैं और आराम से रह सकते हैं। वे रोमांच और चालाकी भरे अंत से आपको धोखा नहीं देती हैं। वे आपको अप्रत्याशित घटनाओं से आश्चर्यचकित नहीं करती हैं। वे उतनी ही परिचित हैं जितना कि वह घर जिसमें आप रहते हैं या फिर आपके प्रेमी की त्वचा की गंध। आप जानते हैं कि उनका अंत कैसे होता है, फिर भी आप ऐसे सुनते हैं जैसे कि आप सुनते ही नहीं। इस तरह से कि हालाँकि आप जानते हैं कि एक दिन आप मर जाएँगे, आप ऐसे जीते हैं जैसे कि आप मरेंगे ही नहीं। महान कहानियों में आप जानते हैं कि कौन जीता है, कौन मरता है, किसे प्यार मिलता है, किसे नहीं। और फिर भी आप फिर से जानना चाहते हैं।

ये अंश हैं भारत देश की प्रतिष्ठित लेखिका और समाजसेविका अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई उपन्यास ’द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ के..अपनी बेबाक लेखनी और सच्चाई और हक के पाले में रहते हुए सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियों से निर्भीकता के साथ भिड़ना इनकी खूबी मानी जाती है।


भारतीय प्रसिद्ध लेखिका और समाज सेविका अरुंधति राय अपनी तुर्श लेखनी के बलपर सिर्फ अपने देश में ही नहीं वरन विदेशों तक में मजबूत पहचान रखती हैं। अरुंधति राय ने अपनी कई बेहतरीन पुस्तकों के माध्यम से साहित्य क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ी है साथ ही साहित्य के प्रति इनका अतुलनीय योगदान सराहनीय है। विभिन्न समाजिक मुद्दों पर बेधड़क बिना किसी लाग लपेट के कलम चलाने वाली ये महिला साहित्यकार अपने अथाह ज्ञान और कलम की ताकत के लिए इन्हें समाज सेविका का भी दर्जा हासिल है। एक प्रतिष्ठित लेखिका और समाज सेविका बनने तक का सफर आसान नहीं था। जिसके लिए कई बड़ी लड़ाइयां इन्हें लड़नी पड़ी हैं। हिन्दी भाषी देश की भारतीय लेखिका अरुंधति राय अंग्रेजी भाषा की सिद्ध हस्त लेखिका हैं। अरुंधति को अपने उत्कृष्ट लेखन कार्य और निस्वार्थ सामाजिक कार्यों के लिए कई बड़े अवार्ड मिल चुके हैं। इस महीने 24 नवंबर को अरुंधति राय का जन्मदिन है। इस अवसर पर आइए जानते हैं सुप्रसिद्ध उपन्यासकार और समाजसेविका अरुंधति राय के जीवन से जुड़े कई कहे अनकहे पहलुओं के बारे में....

अरुंधति रॉय का आरंभिक जीवन (Arundhati Roy Ka Jivan Parichay Hindi)

24 नवंबर सन्, 1961 में बंगाल के पूर्वोत्तर क्षेत्र में जन्मी अरुंधति की मां ईसाई थी और पिता हिंदू थे। अरुंधति का बचपन केरल के अयमानम में बीता। अरुंधति जब बेहद छोटी थी तभी उनके माता-पिता अलग हो गए थे, वे शुरू से ही अपनी मां के साथ रहीं।


अपने पिता के बारे में वे कहती हैं, “जब मैं दो साल की थी, तभी मेरे माता-पिता अलग हो गए और मैंने 24 या 25 साल की उम्र तक अपने पिता को कभी नहीं देखा।असल में मैं उन्हें नहीं जानती। वह एक शराबी थे।” उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ़ आर्किटेक्चर से आर्किटेक्चर की पढ़ाई की और प्रोडक्शन डिज़ाइनर के तौर पर काम किया। उन्होंने दो पटकथाएँ लिखी हैं, जिनमें इलेक्ट्रिक मून (1992) भी शामिल है, जिसे चैनल 4 टेलीविज़न ने कमीशन किया था। वह अपने पति, फ़िल्म-निर्माता प्रदीप कृष्ण के साथ दिल्ली में रहती हैं।

बोर्डिंग स्कूल में रहकर की पढ़ाई (Arundhati Roy Ki Shiksha Diksha)

अरुंधति ने बोर्डिंग स्कूल में रहकर हायर सेकेंडरी की पढ़ाई की, जिसके बाद दिल्ली में स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर से डिग्री हासिल की।


जिसके उपरांत अरुंधति को महसूस होने लगा की उन्हें अपनी कलम की ताकत से अपना नाम रौशन करना है और वो इसके बाद से ही अपनी लेखनी की धार को पैनी करती चली गईं। रॉय ने अपने लेखन कौशल को निखारने के साथ अपने खर्चों को मैनेज करने के लिए एरोबिक्स पढ़ाना शुरू किया।

सुख की जगह आजादी को चुना

मेहनत को ही सफलता का एक मात्र विकल्प मानने वाली अरुंधति ने अपने एक इंटरव्यू में बताया हैं कि जब वह आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए दिल्ली गयीं तो उन्होंने एक रूढ़िमुक्त बंजारे जैसी जीवन शैली के साथ शुरुआत करनी पड़ी, जिसमें दिल्ली के एक चमक दमक से डूबे इलाके में अंधेरे में डूबी एक टिन की छत के सहारे टिकी छोटी सी झोपड़ी में रह कर अपनी कलम को रौशन करना पड़ा।


वहीं रोजमर्रा के खर्च की व्यवस्था के लिए बीयर की खाली बोतलें बेचकर अपना जीवन यापन किया। वे कहती हैं ,“जब मैं 16 साल की थी मैंने एक सुरक्षित घर, अच्छे कपड़े और जॉनसन के बेबी लोशन की मूलभूत जरूरतों जगह अपनी आजादी को चुना। ”

कलम के जादू के साथ इनमें थी अभिनय की कला

अरुंधति राय की कलम में जादू के साथ इनमें अभिनय कला की भी कमी न थी। अभिनय और फिल्म स्क्रिप्ट लेखनी की कला ने इनको एक खास पहचान प्रदान की। इन्होंने कई फिल्म स्क्रिप्ट लिखी, जिन्हें उनकी पारखी अनुभूतियों और जटिल सामाजिक टिप्पणियों के लिए जाना जाता है। अंग्रेजी भाषा की धनी उस लेखिका ने इन व्हिच ’एनी गिव्स इट दोज़ वन्स’ फिल्म के लिए राइटिंग करने के साथ ही इसमें अपने अभिनय से लोगों को प्रभावित भी किया है। आपको बता दें, 2004 में पेंगुइन ने एक किताब के रूप में इन व्हिच एनी गिव्स इट दोज़ वन्स को प्रकाशित किया। इसके साथ उन्होंने इलेक्ट्रिक मून के लिए स्क्रिप्टिंग भी की है।

इस तरह हुआ इनका विवाह (Arundhati Husband)

साल 1984 में अरुंधति की मुलाकात फिल्म मेकर प्रदीप कृष्णन से हुई। जिन्होंने उन्हें अपनी फिल्म ’मैसी साहब’ में एक जनजातीय लड़की का रोल दिया। उस समय इस फिल्म को कई अवॉर्ड मिले थे। फिल्म के बाद उन्होंने प्रदीप कृष्णन से ही विवाह कर लिया।


प्रदीप कृष्ण (जन्म 1949) एक भारतीय फिल्म निर्माता, प्रकृतिवादी और पर्यावरणविद् हैं। उन्होंने तीन फ़िल्मों का निर्देशन किया है, 1985 में मैसी साहिब , 1989 में इन विच एनी गिव्स इट दोज़ वन्स और 1991 में चैनल 4 , यूके के लिए इलेक्ट्रिक मून । उनकी फ़िल्मों ने महत्वपूर्ण भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते हैं।लेकिन वे वर्तमान में एक दूसरे से अलग रहते हैं। लेकिन दोनों ने कभी तलाक नहीं लिया। उनका कहना है कि वह अपने पति और उनकी दो बेटियों को, जो अब बड़ी हो चुकी हैं, अपना ‘परिवार’ मानती हैं, भले ही वह दिल्ली में अकेली रहती हैं। अरुंधति की अपनी कोई संतान नहीं थी, एक ऐसा निर्णय जिसका उन्हें कभी पछतावा नहीं हुआ। बाद में प्रदीप कृष्णन ने फ़िल्म निर्माण छोड़ दिया, और 1995 से, एक प्रकृतिवादी और पर्यावरणविद् के रूप में काम कर रहे हैं।

फूलन देवी के लिए राजनैतिक बैकग्राउंड तैयार करने में की मदद

महिला मुद्दों की पक्षधर अरुंधति शुरुआत से ही अपने विचारों को बेधड़क खुलकर रखती आईं हैं। यहां तक ​​कि जब वह एक बड़ी लेखिका के तौर पर खुद को साबित नहीं कर पाईं थी तभी से रॉय ने अपने राजनीतिक विचारों के प्रति मुखर होकर बोलना शुरू कर दिया था।


इसी कड़ी में उन्होंने फूलन देवी के लिए राजनैतिक बैकग्राउंड तैयार करने के लिए मीडिया सपोर्ट जुटाने में मदद की थी। बैंडिट क्वीन को लेकर कई विवाद चले, जिसके बाद रॉय ने अपना पहला उपन्यास, द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स लिखा।

बनी पहली बुकर अवॉर्ड विजेता महिला साहित्यकार

उनके पहले उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ ने 1997 में फिक्शन के लिए बुकर पुरस्कार जीता । इसे जीतने वाली रॉय पहली भारतीय महिला बन गईं। दुनिया भर में इसकी छह मिलियन से ज़्यादा प्रतियाँ बिकीं। यह उपन्यास तुरंत ही बेस्टसेलर बन गया और 16 भाषाओं और 19 देशों में एक साथ प्रकाशित हुआ।


लेकिन भारत में एक सीरियाई ईसाई और एक हिंदू ’अछूत’ के बीच प्रेम संबंध के वर्णन के कारण विवाद पैदा हो गया। दक्षिण भारत के एक ग्रामीण प्रांत केरल के अयेमेनम में स्थापित यह कहानी दो जुड़वां बहनों, एस्ता और राहेल की है जिसमें एक दूसरे से 23 ​​साल अलग रहने के बाद उनके पुनर्मिलन और 1969 में उनकी अंग्रेजी चचेरी बहन सोफी मोल की आकस्मिक मृत्यु से जुड़ी घटनाओं और उनकी साझा यादों को शामिल किया गया है।

इनकी प्रमुख साहित्यिक रचनाएँ

यह कई फिक्शन शैली में लिखी गईं पुस्तकों की लेखिका भी हैं, जिनमें शामिल हैंः द कॉस्ट ऑफ लिविंग 1999, जो विवादास्पद नर्मदा घाटी बांध परियोजना के संचालन और इसके परमाणु परीक्षण कार्यक्रम के लिए भारतीय सरकार पर एक अत्यधिक आलोचनात्मक हमला है; पावर पॉलिटिक्स 2001 , निबंधों की एक पुस्तक; और द अलजेब्रा ऑफ इनफिनिट जस्टिस , जो पत्रकारिता का एक संग्रह है। द ऑर्डिनरी पर्सन्स गाइड टू एम्पायर 2004 में प्रकाशित हुई थी। उनकी नवीनतम पुस्तक द मिनिस्ट्री ऑफ़ अटमोस्ट हैप्पीनेस 2017है, जो उनका दूसरा उपन्यास है। इसे मैन बुकर पुरस्कार के लिए सूचीबद्ध किया गया था और अमेरिका में, यह नेशनल बुक क्रिटिक्स सर्कल अवार्ड के लिए फाइनलिस्ट था।


2014 में कैपिटलिज्मः ए घोस्ट स्टोरी, 2011 में काश्मीरः द केस फॉर फ़्रीडम, 2009 में लिसनिंग टू ग्रास हॉपर्सः फील्ड नोट्स फॉर डेमोक्रेसी, 2004 में थे ऑर्डिनरी प्रसेंस गाइड तो अंपायर, 1997 में द गॉड ऑफ़ स्माल थिंग्स जिसे बुकर अवॉर्ड से नवाजा गया।

समाजिक मुद्दों में सक्रियता और कानूनी अड़चनें

अरुंधति रॉय विभिन्न पर्यावरण और मानवाधिकार मुद्दों के लिए आज भी अपनी लेखनी के जरिए आवाज उठा रहीं हैं। जिस वजह से वे कई दफा खुद को भारतीय कानून और देश के मध्यम वर्ग के प्रतिष्ठान के साथ विरोधाभास झेलती हैं। अरुंधति का माओवादी समर्थित लोगों के प्रति मुखर समर्थन के लिए उनकी कड़ी आलोचना की गई है। नक्सली उग्रवादी समूहों के बारे में उनके विचार वॉकिंग विद द कॉमरेड्स (2011) नामक पुस्तक में संक्षेप में प्रस्तुत किए गए हैं । उन्होंने अपने संग्रह द कॉस्ट ऑफ़ लिविंग (1999) में भारत की विशाल जलविद्युत बांध परियोजनाओं के खिलाफ अभियान चलाया था। जब रॉय नर्मदा नदी पर बांधों के निर्माण को रोकने के प्रयासों का नेतृत्व कर रही थीं , तो परियोजना के समर्थकों ने 2001 में एक विरोध प्रदर्शन के दौरान उन पर हमला करने का आरोप लगाया। हालांकि आरोप हटा दिए गए। लेकिन अगले साल उन्हें अदालत की अवमानना ​​का दोषी ठहराया गया , क्योंकि आरोपों को खारिज करने की उनकी याचिका ने अपने अपमानजनक लहजे से सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को नाराज कर दिया था। उन पर जुर्माना लगाया गया और एक दिन की कैद की सजा सुनाई गई। इस घटना को 2002 में बनी डॉक्यूमेंट्री में दिखाया गया।


वहीं अपने बेधड़क मुखर अंदाज के कारण अरुंधति रॉय को लगातार कानूनी समस्याओं से जूझना पड़ा। 2010 में कश्मीरी स्वतंत्रता के समर्थन में टिप्पणी करने के बाद वह देशद्रोह के आरोपों से बाल-बाल बचीं। 2014 में नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री चुने जाने के बाद , वह उनकी सरकार की कटु आलोचक बन गईं। दिसंबर 2015 में उन्हें एक लेख के लिए अदालत की अवमानना ​​का नोटिस जारी किया गया था जिसमें उन्होंने एक प्रोफेसर का बचाव किया था जिसे कथित माओवादी संबंधों के लिए गिरफ्तार किया गया था। दो साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक स्थगन जारी किया, जिसने कार्यवाही को अस्थायी रूप से रोक दिया। इस दौरान रॉय विभिन्न कारणों से कानूनी कारवाइयों से जुड़ी रहीं।

रॉय बाद में कोविड-19 महामारी से निपटने के लिए भारत सरकार के तरीकों की आलोचना करने में मुखर रहीं । 2020 में उन्होंने एक प्रभावशाली निबंध लिखा , “ महामारी एक पोर्टल है “, जिसमें उन्होंने चर्चा की कि कैसे महामारी भविष्य पर पुनर्विचार करने का एक अवसर है।


बाद में उस वर्ष इसे उनके निबंध संग्रह आज़ादीः स्वतंत्रता। फासीवाद। कल्पना में शामिल किया गया।2019 में वह उन कई लोगों में शामिल थीं जिन्होंने एक खुले पत्र पर हस्ताक्षर किए थे अफ़गान महिलाओं को संयुक्त राज्य अमेरिका और तालिबान के बीच शांति वार्ता में शामिल होने का आह्वान किया गया था ।

जून 2024 में भारतीय अधिकारियों ने रॉय के विरोध में कश्मीरी स्वतंत्रता के बारे में 2010 में की गई उनकी टिप्पणियों के लिए मुकदमा चलाने की अनुमति दी। दिल्ली के वरिष्ठ अधिकारी ने मुकदमा चलाने के निर्णय में भारत के आतंकवाद विरोधी कानून, गैरकानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) का हवाला दिया । अरुंधति का मानना है कि बाज़ारवाद के प्रवाह में बहते चले जा रहे भारत में विरोध के स्वरों को अनसुना किया जा रहा है। जनविरोधी व्यवस्था के खिलाफ न्यायपालिका और मीडिया को प्रभावित करने के प्रयास नाकाम साबित हुए हैं। उन्होंने कहा, “मैं समझती हूँ हमारे लिए ये विचार करना बड़ा ही महत्वपूर्ण है कि हम कहाँ सही रहे हैं और कहाँ ग़लत। हमने जो दलीलें दी वे सही हैं।.. लेकिन कभी भी अहिंसा कारगर नहीं रही है।“

अरुंधति राय को मिले ये पुरस्कार

2017

फिक्शन के लिए मैन बुकर पुरस्कार (लॉन्गलिस्ट)

2003

सांस्कृतिक स्वतंत्रता के लिए लन्नान पुरस्कार

1997

फिक्शन के लिए बुकर पुरस्कार

बुकर पुरस्कार का इतिहास

बुकर पुरस्कार, यूनाइटेड किंगडम में आयोजित होने वाला एक अंतरराष्ट्रीय साहित्यिक पुरस्कार है। यह पुरस्कार, अंग्रेज़ी में अनुवादित और यूनाइटेड किंगडम या आयरलैंड में प्रकाशित किसी एक किताब को दिया जाता है।

बुकर अवॉर्ड की शुरुआत साल 1969 में इंग्लैंड की बुकर मैकोनल कंपनी ने की थी।

साल 1969 से 2001 तक इसे फ़िक्शन के लिए बुकर पुरस्कार कहा जाता था।

साल 2002 से 2019 तक इसे मैन बुकर पुरस्कार के नाम से जाना जाता था।

साल 2005 में अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार की शुरुआत की गई थी।

इस पुरस्कार में 50,000 पाउंड (64,000 अमेरिकी डॉलर) की राशि दी जाती है।

यह राशि लेखक और अनुवादक के बीच बराबर-बराबर बांटी जाती है।

शॉर्टलिस्ट किए गए लेखकों और अनुवादकों को सांत्वना स्वरूप 2,500 पाउंड दिए जाते हैं।

साल 2024 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार, जेनी एर्पेनबेक द्वारा लिखित और माइकल हॉफ़मैन द्वारा अनुवादित किताब कैरोस को दिया गया।



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