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Best Motivational Story: आत्मा व परमात्मा में भेद, ये ज्ञान आपकी ऑंखें खोल देगा

Best Motivational Story in Hindi: मान लीजिए कि आप हरिद्वार गये। वहाँ आपने हर की पौडी पर एक पवित्र नदी में स्नान किया। उस नदी का नाम है - गंगा।

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Published on: 14 July 2023 11:58 PM GMT
Best Motivational Story: आत्मा व परमात्मा में भेद, ये ज्ञान आपकी ऑंखें खोल देगा
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Motivational Story in Hindi (social media)

Best Motivational Story in Hindi: मान लीजिए कि आप हरिद्वार गये। वहाँ आपने हर की पौडी पर एक पवित्र नदी में स्नान किया। उस नदी का नाम है - गंगा। नहाने के पश्चात् आप नदी से कुछ जल लोटे में भर लेते हैं। जिस जल से आपने स्नान किया और जो लोटे में रखा वह एक ही है गंगा का ही स्वरूप् है। अब आप मार्ग पर जा रहे हैं। हाथ में लोटा है। कोई पूछता है भाई जी! इस लोटे में क्या है ? तो आप उत्तर देते हैं कि मित्र! यह गंगा जल है। आप यह नहीं कहते कि यह गंगा है? क्यो नही कहते ? तत्त्व की दृष्टि से उनमें कोई अन्तर नहीं। इसका कारण यह है कि गंगाजल इतना स्वाधीन नहीं, जितनी की स्वयं गंगा है।

ऐसे ही आत्मा व परमात्मा में तत्त्वतः कोई भेद नहीं। फिर भी दोनों अलग अलग नामों से इस लिए पुकारे जाते है कि परमात्मा स्वाधीन है आत्मा उसके अधीन लोटे में जो गंगाजल है और नदी में जो बह रहा है, उसमें कोई अन्तर है या नहीं।

यद्यपि जल तत्त्व तो दोनों में एक ही है, पर आकार की दृष्टि से कुछ भिन्नता हो गई, जो जल नदी में बह रहा था, वह स्वतन्त्र था, बाढ आने पर वह गांव के गांव भी बहा सकता था, किन्तु जो लोटे के आधीन हुआ, वह गंगा जल हो गया, उसकी शक्ति कुछ अल्प हो गई। पर यदि लोटे के उसी जल को नदी में मिला दिया जाये तो उसका आकार नदी का आकार बन जायेगा; उसकी शक्ति नदी की शक्ति बन जायेगी। नदी से जल अलग हुआ, आकार व शक्ति अल्प हुई। जल को नदी में डाला तो आकार व शक्ति विशाल हो गये।

ऐसे ही जब आत्मा स्वतन्त्र है तो परमात्मा हुआ और जब शरीर अवस्थित हुआ तो जीवात्मा कहलाने लगा। दूसरे शब्दों में आप यों भी समझें कि जीव रूपी गंगा जल शरीर रूपी लोटे के अन्दर बंध गया, वह जीवात्मा हुआ। किन्तु जो इच्छाओ विषय-वासनाओं के त्याग से तथा शरीर के ममत्त्व से रहित है (अर्थात् शरीर के रहते हुए भी जो प्रत्येक क्रिया शरणागति के आधार पर करता है) वह ब्रह्म स्वरूप बन गया। आत्मा तो आकाश के समान है। पात्र में आकार वह जीव की उपाधि पाता है तथा रूप,रंग,आकार के आधीन हो जाता है किन्तु इसी शरीर में अवस्थित होता हुआ भी जो इससे किनारा कर लेता है, देहाभिमान शून्य हो जाता है।

जो किसी का अनिष्ट सोचता तक नहीं और परोपकार में रत रहता है; वही परमात्मा स्वरूप हो जाता है।

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