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Bharat Ki Pahli Mahila Doctor: रुखमाबाई राउत, भारत की पहली महिला जिन्होंने कानूनी रूप से तलाक प्राप्त किया
Bharat Ki Pahli Mahila Doctor Rukhmabai Raut: रुखमाबाई राउत भारत की पहली हिंदू महिला जिन्होंने कानूनी रूप से तलाक हासिल किया। अगर वह आज के समय में अधिक लोकप्रिय होतीं, तो वे कट्टर नारीवादियों के लिए प्रेरणा की प्रतीक होतीं। आइए जानें उनके बारे में।
India's First Divorcee And Female Doctor: भारतीय इतिहास में रुखमाबाई राउत (Rukhmabai Raut) का नाम साहस और महिला अधिकारों की लड़ाई के लिए स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। 19वीं शताब्दी के सामाजिक बंधनों और पितृसत्तात्मक व्यवस्था में उन्होंने जिस तरह से अपनी स्वतंत्रता और अधिकारों की लड़ाई लड़ी, वह भारत में महिला सशक्तिकरण (Women Empowerment In India) का प्रारंभिक अध्याय है। रुखमाबाई न केवल कानूनी रूप से तलाक प्राप्त करने वाली पहली हिंदू महिला थीं, बल्कि उन्होंने भारत की महिलाओं के अधिकारों के प्रति जागरूकता लाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनकी कहानी उस युग की सामाजिक व्यवस्था, न्यायिक प्रणाली और महिलाओं की स्थिति को समझने के लिए एक प्रेरणादायक मार्गदर्शन है।
अगर रुखमाबाई राउत आज के समय में अधिक लोकप्रिय होतीं, तो वे कट्टर नारीवादियों के लिए प्रेरणा की प्रतीक होतीं। भारत की पहली हिंदू महिला जिन्होंने कानूनी रूप से तलाक हासिल किया, उनके बारे में आज हम उतनी चर्चा नहीं करते जितनी होनी चाहिए।
1885 में रुखमाबाई का मामला भारतीय कानूनी इतिहास में मील का पत्थर था। उन्होंने एक अवांछित विवाह के खिलाफ संघर्ष किया और तलाक की मांग की। अंततः, यह मामला क्वीन विक्टोरिया तक पहुंचा, जिन्होंने उनके विवाह को भंग कर दिया। इस घटना ने 1891 के आयु सहमति अधिनियम (Age of Consent Act) और बाल विवाह प्रथा के उन्मूलन के लिए मार्ग प्रशस्त किया। यह ऐतिहासिक तलाक केवल उनकी प्रेरक जिंदगी का एक परिचय था। वह भारत की पहली महिला डॉक्टरों (Rakhmabai India's First Female MD) में से एक बनीं, जिन्होंने पश्चिमी चिकित्सा का अभ्यास किया।
रुखमाबाई राउत का प्रारंभिक जीवन (Rukhmabai Raut Biography In Hindi)
रुखमाबाई भीमराव राउत का जन्म 22 नवंबर, 1864 को मुंबई में हुआ था। उनकी मां भी एक बालिका वधू थीं, जिनका विवाह 14 वर्ष की उम्र में हुआ और 15 वर्ष की उम्र में रुखमाबाई का जन्म हुआ। उनकी मां के पहले पति की मृत्यु हो गई, जिसके बाद उन्होंने डॉक्टर सखाराम अर्जुन राउत से पुनर्विवाह किया। डॉक्टर सखाराम ने रुखमाबाई को शिक्षा प्राप्त करने और सामाजिक सुधार के प्रति प्रेरित किया।
11 वर्ष की आयु में रुखमाबाई का विवाह 19 वर्षीय दादाजी भीकाजी से कर दिया गया। हालांकि, रुखमाबाई ने ससुराल जाने से इनकार कर दिया और अपने सौतेले पिता के समर्थन से पढ़ाई जारी रखी। विवाह के नौ साल बाद, 1884 में, दादाजी ने रुखमाबाई को अपने साथ रहने की मांग की। रुखमाबाई ने इनकार कर दिया, और यह इनकार भारत के कानूनी इतिहास के सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक बन गया।
ऐतिहासिक तलाक का मामला (Rukhmabai Raut Historical Divorce Case In India)
रुखमाबाई का समाज की अपेक्षाओं को नकारना और एक अवांछित विवाह के खिलाफ खड़ा होना एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई का कारण बना। 'दादाजी भीकाजी बनाम रुख्माबाई' मामले में, बॉम्बे हाई कोर्ट में 'पुनर्स्थापन के वैवाहिक अधिकार' को लेकर मुकदमा दर्ज हुआ। न्यायमूर्ति रॉबर्ट हिल पिन्हे ने इसे खारिज कर दिया, यह कहते हुए कि रुखमाबाई को जबरदस्ती उस विवाह में नहीं रहना चाहिए जिसमें वह एक बालिका के रूप में शामिल हुई थीं।
मुकदमे की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति रॉबर्ट हिल पिन्हे ने दादाजी की याचिका को खारिज कर दिया। उनका मानना था कि रुखमाबाई को उस विवाह में बांधकर रखना अन्यायपूर्ण होगा, जो उनके बचपन में तय हुआ था। लेकिन दादाजी ने इस फैसले को चुनौती दी।
1887 में न्यायमूर्ति फर्हन ने दादाजी के पक्ष में फैसला सुनाया और रुखमाबाई को यह आदेश दिया कि वे या तो अपने पति के साथ रहें या छह महीने की जेल की सजा भुगतें। रुखमाबाई ने जेल जाना चुना, जिससे यह मामला राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बन गया। रुखमाबाई के इस साहसिक कदम ने समाज को दो भागों में बांट दिया। एक ओर रूढ़िवादी वर्ग था, जो दादाजी के पक्ष में खड़ा था, जबकि दूसरी ओर सुधारवादी वर्ग था, जिसने रुखमाबाई का समर्थन किया। समाज सुधारक बेहरामजी मलबारी और रमाबाई रानाडे जैसे कई प्रमुख नेताओं ने रुखमाबाई के पक्ष में आवाज उठाई।
रुखमाबाई ने भी अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए लेखन का सहारा लिया। उन्होंने 'ए हिंदू लेडी' के छद्म नाम से ‘द टाइम्स ऑफ इंडिया’ में लेख लिखे, जिनमें उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और बाल विवाह के दुष्परिणामों पर प्रकाश डाला। उनके लेखन ने न केवल भारत में बल्कि ब्रिटेन में भी लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
लेखन और सामाजिक प्रभाव
रुखमाबाई ने अपने लेखों के माध्यम से जनसमर्थन प्राप्त करना शुरू किया। उन्होंने 'ए हिंदू लेडी' के छद्म नाम से द टाइम्स ऑफ इंडिया के लिए लिखा। इन लेखों के माध्यम से उन्होंने लैंगिक समानता, महिला अधिकार और सामाजिक सुधार जैसे मुद्दों पर प्रकाश डाला।
उनके लेखन ने न केवल लोगों का ध्यान आकर्षित किया, बल्कि रुखमाबाई को एक शिक्षित और सशक्त महिला के रूप में प्रस्तुत किया। उनकी इस छवि के कारण 'रुखमाबाई संरक्षण समिति' का गठन हुआ, जिसमें बेहरामजी मलबारी और रमाबाई रानाडे जैसे प्रमुख नेता शामिल थे।
क्वीन विक्टोरिया का हस्तक्षेप
रुखमाबाई के लेखन और उनकी कहानी ब्रिटिश शासकों तक पहुंची। क्वीन विक्टोरिया ने इस मामले में हस्तक्षेप किया और रुखमाबाई के पक्ष में फैसला सुनाया। 1888 में यह मामला सुलझा, और रुखमाबाई को दादाजी से अलग कर दिया गया। यह फैसला महिलाओं के अधिकारों की दिशा में एक बड़ी जीत थी।
शिक्षा और चिकित्सा करियर (Rukhmabai Raut Education And Medical Career)
तलाक के बाद, रुखमाबाई ने शिक्षा के प्रति अपने जुनून को आगे बढ़ाया। उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ मेडिसिन फॉर वीमेन में दाखिला लिया और 1893 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद वह भारत लौट आईं और 35 वर्षों तक सूरत के महिला अस्पताल की प्रमुख रहीं।
बाल विवाह के खिलाफ रुखमाबाई की लड़ाई का महत्व
रुखमाबाई की लड़ाई अन्य सामाजिक सुधारकों से अलग थी। उन्होंने अदालत में बाल विवाह के खिलाफ जो तर्क दिए, वे उस समय के लिए असामान्य थे। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि बाल विवाह लड़कियों की शिक्षा और मानसिक विकास को बाधित करता है।
उनका मानना था कि महिलाओं को आत्म-सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जीने का अधिकार है। उनकी यह लड़ाई न केवल व्यक्तिगत थी, बल्कि पूरे समाज में महिलाओं के अधिकारों के लिए एक मील का पत्थर साबित हुई। रुखमाबाई राउत ने उस युग में महिला स्वतंत्रता और गरिमा की बात की, जब यह अवधारणा लगभग अस्तित्व में नहीं थी। उनका जीवन यह दिखाता है कि एक व्यक्ति कैसे समाज में बदलाव ला सकता है।
1955 में उनके निधन के बावजूद, उनकी विरासत आज भी जीवित है। बालिका वधू से लेकर भारत की अग्रणी महिला डॉक्टर बनने तक, उनकी यात्रा अनगिनत महिलाओं को प्रेरित करती है। रुखमाबाई राउत का जीवन साहस, आत्मनिर्भरता और सामाजिक परिवर्तन का प्रतीक है। उनका योगदान भारत में महिला अधिकार आंदोलन के इतिहास में हमेशा अमूल्य रहेगा।
रुखमाबाई राउत की कहानी एक ऐसे युग की कहानी है जब महिलाओं के पास न तो आवाज थी और न ही अधिकार। उन्होंने अपने साहस और दृढ़ संकल्प से यह साबित किया कि एक महिला की शक्ति समाज को बदलने की क्षमता रखती है। उनकी कानूनी लड़ाई और सामाजिक योगदान भारतीय समाज में महिला सशक्तिकरण की नींव रखने वाले प्रमुख स्तंभों में से एक है। उनकी कहानी को हमें न केवल याद रखना चाहिए, बल्कि नई पीढ़ी को प्रेरित करने के लिए इसे साझा भी करना चाहिए।