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Bharat Ki Pahli Mahila Vakil: देश की पहली महिला वकील, जिन्होंने महिलाओं के हक के लिए किया खूब संघर्ष, खुद हुई थीं लिंगभेद का शिकार
India's First Female Lawyer: देश की पहली महिला बैरिस्टर कॉर्नेलिया सोराबजी, जिन्हें खुद महिला होने के नाते अनगिनत बार लिंग भेद का शिकार होना पड़ा, उन्होंने महिलाओं के हक के लिए काफी संघर्ष किया। आइए जानें इनके बारे में।
India's First Female Lawyer Cornelia Sorabji: महिलाओं के लिए आज ऊंची ऊंची डिग्रियां हासिल करना देश-विदेश की यूनिवर्सिटी में पढ़ना और दाखिला लेना आम बात हो चुकी है। लेकिन एक दौर ऐसा भी था जब महिलाओं के लिए विद्यालय की दहलीज पार करना दूर की कौड़ी समझा जाता था। भारत के इतिहास में अब तक महिलाओं के हक दिलाने के लिए कई महिलाओं ने अहम भूमिका निभाई और जीत हासिल की। इस कड़ी में देश की पहली महिला बैरिस्टर (India's First Female Barrister) महिलाओं के हक के लिए संघर्ष करने वाली महिला कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। आइए जानते हैं कॉर्नेलिया सोराबजी के व्यक्तित्व और कृतित्व से जुड़े किस्सों के बारे में।
सिविल लॉ की परीक्षा देने वाली पहली महिला थीं कॉर्नेलिया सोराबजी
कॉर्नेलिया सोराबजी (Cornelia Sorabji) ने 1888 में बॉम्बे विश्वविद्यालय (Bombay University) से प्रथम श्रेणी की डिग्री प्राप्त की थी। जिसके उपरांत उनकी आगे की शिक्षा को जारी रखने के लिए ब्रिटिश समर्थकों ने उन्हें ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय (Oxford University) भेजने में मदद की। जहां जाकर सोराबजी सिविल लॉ की परीक्षा देने वाली पहली महिला बनीं, लेकिन 1920 तक महिलाओं को सिविल लॉ की डिग्री नहीं दी जा सकती थी, इसलिए वे स्नातक नहीं कर पाईं।
वे 1894 में भारत लौट आईं। अधिकारियों के साथ लंबे संघर्ष के बाद, वे पर्दा प्रथा में रहने वाली महिलाओं की कानूनी वकील बन गईं, जिनकी धार्मिक और सांस्कृतिक मान्यताएं उन्हें अपने परिवार के बाहर के पुरुषों से बात करने से रोकती थीं। जब ब्रिटेन में महिलाएं वोट के अधिकार के लिए अभियान चला रही थीं, तब कॉर्नेलिया सोराबजी भारत में कानून का अभ्यास करने वाली पहली महिला बनीं।
पिता के कहने पर बॉम्बे यूनिवर्सिटी में लिया दाखिला
समाज सेविका और बैरिस्टर कोर्नेलिया सोराबजी का जन्म 15 नवंबर, 1866 को महाराष्ट्र के देवलाली में एक पारसी परिवार में हुआ था। कार्नेलिया के पिता कारसेदजी, एक ईसाई मिशनरी थे और महिलाओं की शिक्षा के समर्थन में थे। उन्होंने अपने पिता के कहने पर बॉम्बे यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया। कॉर्नेलिया की मां सामाजिक कामों के लिए मशहूर थीं। कॉर्नेलिया और उनके पांच भाई-बहनों ने अपना बचपन बेल्जियम में बिताया था।
एक साल के भीतर ही 5 साल की पढ़ाई की पूरी
सोराबजी बचपन से ही पढ़ने में काफी तेज थीं। उनकी कुशाग्र बुद्धि का अंदाजा इस तरह से लगाया जा सकता है कि उन्होंने मात्र एक साल के भीतर ही पांच साल का पाठ्यक्रम पूरा कर किया साथ हो अपनी कक्षा में सबसे ज्यादा अंकों से टॉप भी किया था। इसके बावजूद उन्हें लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में स्कॉलरशिप से वंचित कर दिया गया था क्योंकि वह एक महिला थी। जिसके उपरांत उनके पिता ने उन्हें अपने पैसे से पढ़ाया।
सोराबजी ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी की एलएलबी परीक्षा के लिए खुद को प्रस्तुत किया और 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकील की परीक्षा में भाग लिया। फिर भी, उनकी सफलताओं के बावजूद, सोरबजी को वकील के तौर पर मान्यता नहीं मिली जब तक कि 1923 को महिलाओं को अभ्यास करने से रोकने वाले कानून को नहीं बदला गया था।
महिला कानूनी सलाहकार प्रदान करने के लिए सोराबजी ने की थी शुरुआत
किताब ’बिटविन द ट्वाइलाइट्स’ इनकी आत्मकथा में बयां हैं संघर्ष की कहानी
कॉर्नेलिया सोराबजी ने महिला होने के नाते अनगिनत बार लिंग भेद का शिकार होना पड़ा। इनके पास शैक्षिक योग्यता होने के बावजूद भी उन्हें एडवोकेट का ओहदा हासिल करने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। उस समय ब्रिटिश कानून में महिलाओं को वकालत करने की इजाजत नहीं थी। कार्नेलिया 1892 में नागरिक कानून की पढ़ाई के लिए विदेश गयीं और 1894 में भारत लौटीं। उस समय समाज में महिलाएं मुखर नहीं थीं और न ही महिलाओं को वकालत का अधिकार था। पर कार्नेलिया तो एक जुनून का नाम था। अपनी प्रतिभा की बदौलत उन्होंने महिलाओं को कानूनी परामर्श देना आरंभ किया और महिलाओं के लिए वकालत का पेशा खोलने की माँग उठाई।
अंततः 1907 के बाद कार्नेलिया को बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम की अदालतों में सहायक महिला वकील का पद दिया गया। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को शिथिल कर उनके लिए भी यह पेशा खोल दिया गया। इन्हीं के संघर्षों के चलते साल 1923 में जब कानून बदला तब सोराबजी ने कोलकाता में किसी महिला के तौर पर एडवोकेट प्रैक्टिस शुरू की थी।
सोरबजी ने कोलकाता में अभ्यास करना शुरू कर दिया था। हालांकि, पुरुष पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण, वह अदालत के सामने पेश करने के बजाय मामलों पर राय तैयार करने तक ही सीमित थीं। साल 1929 में वो हाईकोर्ट से रिटायर हुई थी। रिटायरमेंट के बाद अपनी किताब’बिटविन द ट्वाइलाइट्स’में अपनी आत्मकथा को दो भागों में लिखा है। जिसमें उन्होंने अपने संग्रहों की कहानी बयां की है।
वकालत के पेशे में महिलाओं के लिए बनाई जगह
1929 में कार्नेलिया हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील के तौर पर सेवानिवृत्त हुयीं पर उसके बाद महिलाओं में इतनी जागृति आ चुकी थी कि, वे वकालत को एक पेशे को अपनाकर महिला अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ने लगी थीं। 1954 में कार्नेलिया का देहावसान हो गया जब वह लंदन में थी। आज भी उनका नाम वकालत जैसे जटिल और प्रतिष्ठित पेशे में महिलाओं की बुनियाद है।
इनकी 20 साल की सेवा में, अनुमान लगाया गया है कि सोराबजी ने 600 से अधिक महिलाओं और अनाथों को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की, लेकिन इनसे कभी कोई शुल्क नहीं लिया। वकालत के पेशे में अपने जुनून और ईमानदारी से कॉर्नेलिया सोराबजी ने इतिहास के पन्नों पर एक आदर्श उदाहरण स्थापित किया है। साल 2012 में, लंदन के हाई कोर्ट कॉम्प्लेक्स में उनकी कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया गया।