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Motivational Story: संसार में परिवर्तन ही सार है
Motivational Story: मनुष्य को विचार करना चाहिये कि क्या सुख चाहने से सुख मिल जायगा और दुःखों का नाश हो जायगा? सुख की इच्छा करने से न तो सुख मिलता है और न दुःख मिटता है।
Motivational Story: भोगों की अनित्यता एवं दुखरूपता के कारण विवेकी मनुष्य उनमें नहीं रमता। वस्तु, व्यक्ति और क्रिया के सम्बन्ध से होने वाला सुख दु:खों का कारण है। सुख के भोगी को नियम से दु:ख भोगना ही पड़ता है। सुख की आशा, कामना और भोग से वास्तव में सुख नहीं मिलता, प्रत्युत दुःख ही मिलता है। भोगों का संयोग अनित्य है और वियोग नित्य है। मनुष्य अनित्य को महत्त्व देकर ही दुःख पाता है। उसको विचार करना चाहिये कि क्या सुख चाहने से सुख मिल जायगा और दुःखों का नाश हो जायगा? सुख की इच्छा करने से न तो सुख मिलता है और न दुःख मिटता है।
दुःख को मिटाने के लिये सुख की इच्छा करना दुःख की जड़ है। एक दुःख का भोग होता है और एक दुःख का प्रभाव होता है। जब मनुष्य दुःख का भोग करता है, तब उसमें सुख की इच्छा उत्पन्न होती है और जब उस पर दुःख का प्रभाव होता है, तब सुख की इच्छा मिट जाती है, उससे अरुचि हो जाती है। दुःख के भोग से मनुष्य दुःखी होता है और दुःख के प्रभाव से वह दुःख से ऊँचा उठता है। दुःख के प्रभाव से वह दुःख में तल्लीन न होकर उसके कारण पर विचार करता है कि मेरे को दुःख क्यों हुआ?
विचार करने पर उसको पता लगता है कि सुखा सक्ति के सिवाय दुःख का और कोई कारण है नहीं, था नहीं, होगा नहीं और हो सकता ही नहीं।परिस्थिति भी दुःख का कारण नहीं है; क्योंकि वह बेचारी एक क्षण भी टिकती नहीं। कोई प्राणी भी दुःख का कारण नहीं है; क्योंकि वह हमारे पुराने पापों का नाश करता है और आगे विकास करता है। संसार भी दुःख का कारण नहीं है; क्योंकि जो भी परिवर्तन होता है,वह हमें दुःख देने के लिये नहीं होता, प्रत्युत हमारे विकास के लिये होता है।
परिवर्तन न हो तो विकास कैसे होगा? परिवर्तन के बिना बीज का वृक्ष कैसे बनेगा? रज-वीर्य का शरीर कैसे बनेगा? बालक से जवान कैसे बनेगा? मूर्ख से विद्वान् कैसे बनेगा? रोगी से नीरोग कैसे बनेगा? तात्पर्य है कि स्वाभाविक परिवर्तन विकास करने वाला है। संसार में परिवर्तन ही सार है।परिवर्तन के बिना संसार एक अचल, स्थिर चित्र की तरह ही होता। अतः परिवर्तन दोषी नहीं है, प्रत्युत उसमें सुख बुद्धि करना दोषी है। भगवान् भी दुःखके कारण नहीं हैं, क्योंकि वे आनन्दघन हैं, उनके यहाँ दुःख है ही नहीं।
न तेषु रमते बुधः विवेकी मनुष्य भोगों में रमण नहीं करता; क्योंकि भोगों की कामना विवेकियों की नित्य वैरी है— ज्ञानिनो नित्यवैरिणा
अविवेकी को भोग अच्छे लगते हैं; क्योंकि दोषों में गुणबुद्धि अविवेक से ही होती है। सभी भोग दोष जनित होते हैं।अन्तः करण में कोई दोष न हो तो कोई भोग नहीं होता। दोष विवेकी को ही दीखता है।इसलिये वह भोगों में रमण नहीं करता अर्थात् उनसे सुख नहीं लेता। विवेकी मनुष्य उस वस्तुको नहीं चाहता, जो सदा उसके साथ न रहे। अपने विवेक से वह इस सत्य को स्वीकार कर लेता है कि मिली हुई कोई भी वस्तु, व्यक्ति, योग्यता और सामर्थ्य मेरी नहीं है और मेरे लिये भी नहीं है। इतना ही नहीं, अनन्त सृष्टि में कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो मेरी हो और मेरे लिये हो। प्यारी-से-प्यारी वस्तु भी सदा के लिये मेरी नहीं है, सदा मेरे संसार में परिवर्तन ही सार हैरहने वाली नहीं है। इसलिये विवेकी मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि जो वस्तु और व्यक्ति सदा मेरे साथ रहने वाले नहीं हैं,उनके बिना मैं सदा के लिये प्रसन्नता से रह सकता हूँ।