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लंदन में फॉल सीजन का है अद्भुत नजारा, यहां रात को सूरज देखने का अपना है मजा
लंदन : अक्टूबर का महीना विदेशों में खास होता है, क्योंकि यहां का नजारा पर्यटकों को बहुत लुभाता है। पेड़ों की हरियाली बदलकर पीली या लाल रंग की चादर ओढ़ लेती हैं। ये नजारा बहुत खूबसूरत होता है। इसे यहां फॉल सीजन कहते हैं। इस अनुपम नजारे से तो किसी को भी प्यार हो जाए। यानी आप इसे फॉल इन लव सीजन भी कह सकते हैं। अब ठंड ने दक्षिणी ध्रुव पर दस्तक दे दी है ऐसे में दिनभर सूरज की किरणें लुका-छिपी का खेल खेलती हैं। उत्तरी अमेरिका, कनाडा, ग्रेट ब्रिटेन, उत्तरी यूरोप, रूस, चीन, जापान में नज़ारा लगभग ऐसा ही होता है जहां बर्फबारी की संभावना होती है वहां इस मौसम में पेड़ों के पत्तों का रंग आकर्षक हो जाता है। Newstrack.com के लिए फॉल सीजन पर लंदन से मधु चौरसिया की रिपोर्ट...
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फॉल सीजन या लव सीजन
नवंबर मध्य तक ये सारे पत्तें झड़ जाते हैं और फिर ठंड समाप्त होने के बाद हरियाली के साथ नई कोपलें आती है और साल भर के दस महीने ये हरियाली रहती हैं और बस दो महीने ये नजारा ऐसा देखने को मिलता है।
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6 महीने नहीं निकलता सूरज
दुनिया में कई देश ऐसे भी हैं जहां सर्दियों में सूरज की किरणें 6 महीने पहुंचती ही नहीं और गर्मियों में ६ महीने सूरज डूबता ही नहीं, जी हां आपने सही सुना, उत्तरी ध्रुव को गर्मियों में अर्ध रात्रि का सूर्य (मिडनाइट सन) और ध्रुवीय रात(पोलर नाइट) भी कहा जाता है। कोई भी व्यक्ति दिन के किसी भी समय खड़े होकर सूरज को क्षीतिज पर घड़ी की उल्टी दिशा में अपने चारों ओर घूमते देख सकता है। जो लोग देश दुनिया की सैर करते हैं उन्हें तो इसकी जानकारी है, लेकिन आज भी एक बड़ा वर्ग इस जानकारी से अछूता है।
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डे लाइट सेविंग
डे लाइट सेविंग की अप्रैल 2016 में 100वीं वर्षगांठ थी। जर्मनी को पहला देश माना जाता है जिसने 30अप्रैल 1916 इसे पूर्ण रूप से लागू किया था। लेकिन अमेरिका के बेंजामिन फ्रेंकलिन ने 1784 में इस कॉन्सेप्ट को प्रपोज किया था। वहीं 1895 में न्यूजीलैंड के जॉर्ज हडसन ने इसका प्रस्ताव रखा था। उसके बाद केनेडा में भी 1908 में इसे लागू किया गया था।
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किताबों में तो हम सब ने ऐसा ही पढ़ा है, लेकिन जब आप हकीकत में इसे महसूस करते हैं तो ये काफी इंटरेस्टिंग लगता है। समय का ये जंप सर्दियों में सितंबर से नवंबर के बीच होता है और गर्मियों में मार्च से अप्रैल के बीच होता है। यानी अलग- अलग देश इसे अलग-अलग समय पर लागू करते हैं। जैसे ब्रिटेन में ब्रिटिश समर टाइम (BST) एक घंटा पीछे अक्टूबर के आखरी रविवार को किया जाता है और घड़ी एक घंटा आगे मार्च के आखिरी रविवार को होता है। गर्मियों में जून के वक्त यहां कम से कम 16 घंटे 40 मिनट तक सूर्य की रोशनी मिलती है, जबकि दिसंबर में सिर्फ ७ घंटे ४० मिनट का दिन होता है। मतलब गर्मियों में दिन लंबे, रातें छोटी, जबकि सर्दियों में रातें लंबी और दिन छोटे होते हैं।
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आज भी बदलते हैं घड़ी के टाइम
आज के युग में तो सब कुछ इलेक्टॉनिक हो गया है इसलिए हमें घड़ी को आगे या पीछे नहीं करना पड़ता। हालांकि कुछ दीवार घड़ियों को बदलनी पड़ती है, लेकिन अंदाजा लगाइए जब घड़ियां चाबियों वाली हुआ करती होंगी, तब इन्हें बदलना कितना मुश्किल होता होगा। ब्रिटेन में आज भी बड़ी- बड़ी दीवार घड़ियों का चलन है और उनका समय भी हाथ से बदला जाता है। बकिंघम पैलेस में ३०० से भी ज्यादा ऐंटीक घड़ियों का कलेक्शन है जिसे हमेशा मेन्टेन रखा जाता है।
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जब मैं पहली बार यूरोप आई तो मैंने देखा रात के १० बजे तक सू्रज चमक रहा था देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ। हालांकि लोग सड़कों पर कम ही दिख रहे थे। वहां के मूल निवासी समय पर उठते और समय पर सो भी जाते हैं उनकी दिनचर्या में सूरज की रौशनी उन्हें प्रभावित नहीं करती। जबकि हमारे लिए ये नया अनुभव था।
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अक्टूबर में दीवार घड़ी खरीद कर लाई कुछ दिनों तक तो सही चली घड़ी लेकिन अक्टूबर के आखिरी सप्ताह मेरी घड़ी एक घंटा आगे चलने लगी। फोन की घड़ी तो सही थी। मैंने सोचा शायद बैट्री ख़राब हो गई है। मैं घड़ी को वापस शॉप में ले जाकर दिखाने की सोच रही थी। फिर याद आया। ओह, नहीं घड़ी ख़राब नहीं हुई यहां तो समय बदल गया है।
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6 बजे मार्केट हो जाते हैं बंद
जिन देशों में डे लाइट इफैक्ट होता है वहां काम के घंटे भी निर्धारित होते हैं। ऐसे देशों में सुबह के ८ बजे दुकानें खुलतीं हैं और शाम के ६ बजते ही बंद कर दी जाती हैं। चाहे वो दोपहर क्यों न प्रतीत हो रहा हो। शुरू-शुरू में आदत थी। भारत में हम शाम के समय शॉपिंग के लिए निकलते थे पर जब ब्रिटेन आई तो यहां शाम के समय या तो दुकाने बंद मिलती थीं या बंद होने वाली होती थीं। कुछ रेस्टोरेंट और फूड़ शॉप को ही लेट नाइट ओपनिंग की अनुमति मिलती है।
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पुराने जमाने में डे लाइट के फायदे और नुकसान दोनों थे। DST लागू करने का उद्देश्य काम के घंटे के बाद सूर्य के प्रकाश का फायदा उठाना था और ऊर्जा को संरक्षित करना था, लेकिन इसके साथ ही बाहर काम करने वालों के लिए दिन लंबा होना मतलब काम के घंटे का बढ़ जाना भी था। इसलिए ये कॉन्सेप्ट लोगों के हित के लिए लागू किया गया।
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लोग करते हैं इस डे को भी एंजॉय
इसका ज्यादा असर ध्रुव के आस पास के देशों में देखने को मिलता है। यूरोपीय देशों में DST को ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, स्पेन, इटली,बुलगारिया, नॉर्वे, स्विटजरलैंड आदि देश लागू करते हैं जबकि रूस, आइसलैंड, अर्मेनिया और बेलारूस इसे नहीं अपनाते। वहीं अमेरिका में अलग-अलग टाइम जोन में अलग अलग दिन इसे अपनाया जाता है। नॉर्थ अमेरिका के कई देश,साउथ अमेरिका के कुछ देश, यूरोप के कई देश, मिडिल ईस्ट के कुछ देश, न्यूजीलैंड और साउथ इस्ट ऑस्ट्रेलिया के कुछ देश इसे अपनाते हैं, जबकि ज्यादातर एशियाई और अफ्रीकी देशों में डे लाइट का ज्यादा असर देखने को नहीं मिलता।
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स्कूलिंग और ऑफिस के लोगों को होती है परेशानी
बच्चों को डे लाइट की वजह से काफी परेशानी होती है। सुबह उन्हें स्कूल जाना होता है, लेकिन सुबह के आठ बजे तक कई बार अंधेरा रहता है । ऐसे में उन्हें उठाना बेहद मुश्किल होता है और जब उनके स्कूल से लौटने का टाइम होता है तो तीन बजे शाम के आसपास ही अंधेरा शुरू हो जाता है। ऐसे में उनके पास काफी कम समय होता है अपने डेली रूटीन के लिये। ऑफिस जानेवालों के लिये भी सुबह उठना बेहद मुश्किल होता है। दिन छोटा होने की वजह से काम पर भी प्रभाव पड़ता है। वहीं गर्मियों में इसके विपरित होता है। लंबा दिन होने की वजह से दिनभर बच्चों को काफी कुछ करने का वक्त होता है। सुबह के चार बजे ही उजाला हो जाता है और रात भी देर से होती है। शाम को स्कूल से लौटने के बाद भी उनके पास काफी वक्त होता है। वही ऑफिस जानेवालों के लिए भी काफी वक्त होता है। शाम 6 बजे ऑफिस बंद होने का जब समय होता है तो लगता है जैसे दोपहर में ही घर जाने का समय हो गया है।