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पीठ में हो दर्द तो न करें नजरअंदाज, बन सकता है परेशानी का सबब

Admin
Published on: 21 April 2016 3:26 PM GMT
पीठ में हो दर्द तो न करें नजरअंदाज, बन सकता है परेशानी का सबब
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कानपुर: अनियमित खानपान और भागदौड़ भरी जिंदगी के बीच तेजी से उभर रही पीठ दर्द की समस्या को आमतौर पर लोग अधिक गंभीरता से नहीं लेते हैं। डॉक्टर्स का मानना है कि शुरुआती दौर में दर्द को नजरअंदाज करना उम्र बढने के साथ बड़ी परेशानी का सबब बन सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के एक सर्वेक्षण के अनुसार देश में 30 साल की उम्र से ऊपर का हर 5वां व्यक्ति किसी न किसी वजह से पीठ दर्द की समस्या से जूझ रहा है। डॉक्टर्स इसके लिये रोड एक्सीडेंट की बढती आवृत्ति के अलावा लॉन्ग ड्राइविंग और कंप्यूटर पर एक ही पोजीशन में घंटों बैठकर काम करने की आदत समेत अन्य फैक्टर्स को जिम्मेदार मानते हैं।

कानपुर के लाला लाजपत राय हॉस्पिटल में अस्थि रोग विभाग के सीनियर डॉक्टर रोहित नाथ ने कहा कि कुछ सालों में पीठ दर्द से ग्रसित मरीजों विशेषकर युवा वर्ग की तादाद में उल्लेखनीय इजाफा हुआ है।

उनके पास हर रोज बैकपेन से ग्रसित कई मरीज ऐसे आते हैं जिन्हें सालों पहले कोई चोट लगी थी या उनकी नियमित दिनचर्या में लंबी दूरी तक मोटरसाइकिल चलाना, कंप्यूटर पर देर तक काम करने का बोझ और फास्टफूड का अत्यधिक सेवन आदि शामिल था।

डॉ. रोहित ने बताया कि शहरों में ट्रैफिक के बढ़ते बोझ के कारण आए दिन होने वाले एक्सीडेंट में खासी बढ़ोतरी हुई है। जबकि स्पीड ब्रेकर्स की बढ़ती तादाद, लैपटाप और मोबाइल को घंटो एक अवस्था में बैठकर निहारने की प्रवृत्ति, जंक फूड के व्यापक इस्तेमाल से बढ़ता मोटापा हड्डियों पर अतिरिक्त बोझ डाल रहे हैं।

इसके अलावा स्कूली बच्चों के कंधो पर भारी भरकम बैग और युवाओं के लैपटॉप बैग हड्डी की समस्या को बढ़ावा दे रहे हैं।

डॉ. नाथ ने बताया कि हड्डी रोग के शुरुआती लक्षण पता चलते ही इसे एक्सर्साइज़ और दवाइयों की मदद से दूर किया जा सकता है। मगर डॉक्टर्स के परामर्श में लेटलतीफी या विशेष लक्षणों पर सर्जरी ही आखिरी विकल्प साबित होती है।

मेरूदंड (स्पाइनल कॉर्ड) यानी रीढ़ की हड्डी कशेरूका और उनके बीच डिस्क से बनी हैं जिनके बीच में कोशिकाएं (सेल्स) होती हैं। मेरूदंड दिमाग से लेकर पीठ के निचले हिस्से तक जाती हैं। पीठ में होने वाला दर्द आम तौर पर मांसपेशियों, तंत्रिका, हड्डियों, जोड़ों या रीढ़ की अन्य संरचनाओं में महसूस किया जाता है।

इस दर्द को अक्सर गर्दन दर्द, पीठ के ऊपरी हिस्से के दर्द, पीठ के निचले हिस्से के दर्द या टेलबोन के दर्द (रीढ़ के आखिरी छोर की हड्डी) में विभाजित कर सकते हैं। यह लगातार या कुछ अंतराल पर भी हो सकता है।

डॉक्टर ने बताया कि बैकपेन की सर्जरी युवा, अधेड या बुजुर्गो के लिये अलग-अलग हो सकती है। इनके लिये एक सी चिकित्सीय पद्धति (मेडिकल मेथड) कारगर नही होगी। मसलन युवाओं में आमतौर पर पीठ दर्द के पीछे डिस्क प्रोलेप्स कारण होता है।

जबकि 40 से 60 साल के उम्र के लोगों में स्पांडलाइटिस, कैनाल स्टेनोसिस की समस्या पाई जाती है। जबकि बुजुर्गों की हड्डी में चूने की कमी से आमतौर पर आस्टियोपोरोसिस और पीठ के पीछे ज्वाइंट में गठिया यानी आस्टियो आर्थाइटिस की बीमारी होती है।

डॉ. नाथ ने बताया कि डिस्क प्रोलेप्स या स्लिपड डिस्क की समस्या से ग्रसित मरीज को हफ्तों तक कमर के नीचे दर्द बना रहता है। हर 2 वर्टेब्रे के बीच में एक डिस्क होती है। डिस्क के अंदरूनी हिस्से को न्यूक्लियस और बाहरी को एन्यूलस कहते हैं।

न्यूक्लियस में विकार होने से नर्व रूट पर पड़ने वाले दबाव के कारण मरीज को असहनीय दर्द का अनुभव होता है। विशेष प्रकार की एक्सर्साइज़ और दवाइयों से आराम नही मिलने पर सर्जरी के जरिये डिस्क एक्सिजन किया जाता है। जिससे मरीज कुछ ही समय में पहले की तरह स्वस्थ हो जाता है।

उन्होने बताया कि साइटिका के मामले में कमर के निचले भाग में मरीज को असहनीय दर्द होता है। स्पांडलाइटिस में डिस्क का अंदरूनी हिस्सा यानी न्यूक्लियस सूख जाता है जबकि कैनाल स्टेनोसिस में नर्व सिकुड जाती है। तीनों ही मामलों में मरीज की सर्जरी कर कैनाल वाइडनिंग के जरिये इलाज किया जाता है।

डॉ. नाथ ने बताया कि उम्र बढ़ने के साथ-साथ सर्जरी जटिल होती जाती है। बुजुर्गो मे आस्टियो आर्थराइटिस के ज्यादा प्रभावित डिस्क को फ्यूजन के जरिए निकाल दिया जाता है। जिससे बाधित नर्व रूट सामान्य हो जाता है और मरीज को आराम मिलता है।

डा. नाथ ने बताया कि आमतौर पर डॉक्टर सर्जरी करने से परहेज करता है। इसके लिये ए बी सी डी ई फार्मूले को अपनाया जाता है। ए मतलब सिकाई, सिकाई से आराम न मिले तो बी मतलब जेल (gel) का इस्तेमाल इसके बाद सी यानी व्यायाम और फिर डी मतलब ड्रग्स के जरिए इलाज किया जाता है।

जबकि आखिर में ई मतलब एपीड्यूरल स्टेरायड इंजेक्शन को स्पाइनल कॉर्ड के निचले हिस्से में लगाया जाता है।

इस इंजेक्शन से आपस में चिपकी नसें अलग हो जाती हैं, जबकि नसों की सूजन में भी आराम मिलने से दर्द गायब हो जाता है। अगर इन उपायों से भी मरीज को आराम न मिले तो उस स्थिति में सर्जरी करना ही अंतिम विकल्प के तौर पर काम में आता है।

डॉक्टर ने बताया कि सर्जरी माइक्रोडिसेटोमी विधि से की जाती है। जिसमें पीठ में 1 इंच का चीरा लगाकर माइक्रोस्कोप के जरिए खराब डिस्क को निकाल दिया जाता है या दबी कोशिकाओं को अलग कर दिया जाता है।

सर्जरी में करीब 1 घंटे का समय लगता है और एक हफ्ते के आराम के बाद व्यक्ति स्वस्थ होकर सामान्य कामकाज निपटा सकता है। इस सर्जरी में तकरीबन 30 हजार रूपए का खर्च आता है और कम से कम 98 प्रतिशत मामलों में यह कारगर रहता है।

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