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Motivational Story: मनमानी करता मन

Motivational Story: संसार का प्रत्येक व्यक्ति अनोखा होता है। ऐसा न होता तो प्रत्येक व्यक्ति के फिंगर प्रिंट्स, या आइरिस स्कैन एक जैसे होते।

Sankata Prasad Dwived
Published on: 18 Jun 2024 5:34 PM IST
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असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलं।

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

( गीता - 6.35 )

श्रीभगवान् बोले - हे महाबाहो !

यह मन बड़ा चञ्चल है और इसका निग्रह करना भी बड़ा कठिन है - यह तुम्हारा कहना बिलकुल ठीक है। परन्तु हे कुन्तीनन्दन ! अभ्यास और वैराग्यके द्वारा इसका निग्रह किया जाता है।आपको ये अनुभव होता होगा कि संसार हमारे मन के अनुसार नहीं चलता। यह हम सब जानते हैं। परंतु हमारा प्रयास होता है कि संसार हमारे मन के अनुकूल चले। यही भाव हमारे मन में कुंठा, निराशा, अवसाद को जन्म देता है। हम यह भूल जाते हैं कि जिसे हम अपने मनोनुकूल चलाना चाहते हैं, वह भी हमें अपने अनुसार चलाना चाहता है। यही टकराहट द्वेष को जन्म देता है। द्वेष बना है द्वैत से, जिसका अर्थ है। दो।

संसार का प्रत्येक व्यक्ति अनोखा होता है। ऐसा न होता तो प्रत्येक व्यक्ति के फिंगर प्रिंट्स, या आइरिस स्कैन एक जैसे होते। प्रत्येक न सही, कम से कम दो व्यक्ति के फिंगर प्रिंट एक जैसे तो होते ही। इसी तरह प्रत्येक व्यक्ति का मेंटल प्रिंट भी अनोखा होता है। परंतु राग द्वेष की समानता, या एक दूसरे की उपयोगिता हमें आपस में सामंजस्य बनाए रखने के लिए बाध्य करती है। चाहे वह कोई परिवार हो या फिर संस्था। तो फिर किया क्या जाए। कुछ करने के लिए धैर्य वह प्रथम चीज है जिसकी सबसे अधिक आवश्यकता होती है। हमारे अंदर इतना धैर्य नहीं होता कि हम किसी को निष्पक्ष होकर सुन सकें।mहम अपने आप से इतने भरे होते हैं कि सामने वाले की बात सुने बिना ही, या सुनकर भी अपने अनुसार, अपने मनोनुकूल निर्णय लेते हैं।जो कि सामान्य भाषा में प्रतिक्रिया या रिएक्शन कहलाती है।

इसका क्या अर्थ है?

इसका अर्थ है कि हमने तय कर रखा है कि सही क्या है, और गलत क्या है? हमने अपने लिए जीवन के सिद्धांत, अवधारणाएं तय कर रखे हैं। हमने एक पक्ष निश्चित कर रखा है अपने लिए। यदि चीजें उन नियमों, सिद्धांतों, अवधारणाओं के अनुकूल घटती हैं तो हम उसके पक्ष में खड़े होते हैं, यदि उनके प्रतिकूल घटती हैं तो हम उसके विपक्ष में खड़े होते हैं। एक और बात, बुद्धि के स्तर पर इसे हम समझ तो जाते हैं,परंतु इसको जीवन में समाहित करने करना बहुत कठिन होता है। क्यों? क्योंकि मनुष्य के सॉफ्टवेयर में जो चार हिस्से होते हैं - मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त। चित्त को छोड़कर, मन और बुद्धि दोनों अहंकार के अनुसार ही चलते हैं और निर्णय लेते हैं। अहंकार हमारे समस्त, राग द्वेष, सिद्धांतों, अवधारणाओं का जोड़ है। यह एगो नहीं है। हम जो कुछ भी अपने बारे में समझते हैं अहंकार उसका जोड़ है, संयोजन है।

तो बात कैसे बने?

बात बन सकती है यदि हम संसार को संसार के मन के अनुसार चलाना सीख जाएं। यदि हम किसी के मन को पहले समझना सीख जाएं कि इस व्यक्ति की पसंद, नापसंद, आदि क्या है,तो उस व्यक्ति को आप अपने अनुसार मोल्ड कर सकते हैं। परंतु इसके लिए हमारे पास धैर्य होना चाहिए निष्पक्ष होकर सामने वाले को सुनने का। इसे संवाद कहते हैं रिस्पॉन्स कहते हैं। यदि हम भरे हुए न हों अपनी अवधारणाओं से, मस्तिष्क थोड़ा खाली हो तो रिस्पॉन्ड करना असम्भव नहीं होता।

परंतु यह कैसे हो?

इसकी साधना करना पड़ेगा। इसी साधना को समझाने के लिए ऊपर में भगवद्गीता के श्लोक का सहारा लिया गया है - अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।।

Shalini singh

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