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Dadasaheb Phalke Life History: सिनेमा के जगक कहे जाने वाले दादा साहब ने कैसे शुरू किया होगा सिनेमा का जगत, आइए जानते हैं

Dadasaheb Phalke Biography in Hindi: दादा साहब ने 1904 में उन्होंने अपने साथी मित्रों के साथ मिलकर एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित की।साल 1911 में, मुंबई के 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में उन्होंने फर्डिनेंड ज़ेका द्वारा निर्मित मूक फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखी।

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 14 Feb 2025 2:59 PM IST
Father of Indian Cinema Dadasaheb Phalke Biography in Hindi
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Father of Indian Cinema Dadasaheb Phalke Biography in Hindi

Dadasaheb Phalke Biography in Hindi: दादा साहब फाल्के का जन्म 30 अप्रैल 1870 को महाराष्ट्र के त्र्यंबकेश्वर नामक स्थान पर हुआ था। उनका पूरा नाम धुंडीराज गोविंद फाल्के था। उनके पिता संस्कृत के विद्वान थे और मुंबई के एल्फिंस्टन कॉलेज में अध्यापक थे। दादा साहब का झुकाव बचपन से ही कला और चित्रकला की ओर था।

उन्होंने मुंबई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से कला की शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने बड़ौदा के कला विद्यालय में भी अध्ययन किया। वे प्रारंभ में एक चित्रकार और मूर्तिकार के रूप में काम करते थे। इसके अलावा उन्होंने वास्तुकला, फोटोग्राफी और प्रिंटिंग का भी गहन अध्ययन किया।

भारतीय सिनेमा की नींव

1904 में उन्होंने अपने साथी मित्रों के साथ मिलकर एक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित की।साल 1911 में, मुंबई के 'अमेरिका-इंडिया थिएटर' में उन्होंने फर्डिनेंड ज़ेका द्वारा निर्मित मूक फिल्म ‘द लाइफ ऑफ क्राइस्ट’ देखी।


इस फिल्म को देखकर उनके मन में विचार आया कि भारत के महापुरुषों के महान जीवन पर भी फिल्में बनाई जानी चाहिए। अपनी इसी सोच को अमलीजामा पहनाने के लिए वे लंदन गए और वहाँ करीब 2 महीने रहकर सिनेमा की तकनीक सीखी। इसके बाद वे फिल्म निर्माण का सामान लेकर भारत लौट आए।

कैमरे की खरीद और फिल्मों का अध्ययन

उन्होंने 5 पौंड में एक सस्ता कैमरा खरीदा और शहर के सभी सिनेमाघरों में जाकर फिल्मों का अध्ययन और विश्लेषण किया। फिर दिन में 20 घंटे लगकर प्रयोग किये। ऐसे उन्माद से काम करने का प्रभाव उनकी सेहत पर पड़ा। उनकी एक आंख जाती रही। उस समय उनकी पत्नी सरस्वती बाई ने उनका साथ दिया।

आर्थिक कठिनाइयाँ और समर्थन

सामाजिक निष्कासन और सामाजिक गुस्से को चुनौती देते हुए उन्होंने अपने जेवर गिरवी रख दिये (40 साल बाद यही काम सत्यजित राय की पत्नी ने उनकी पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ बनाने के लिए किया)। उनके अपने मित्र ही उनके पहले आलोचक थे। अतः अपनी कार्यकुशलता को सिद्ध करने के लिए उन्होंने एक बर्तन में मटर बोई।


फिर इसके बढ़ने की प्रक्रिया को एक समय में एक फ्रेम खींचकर साधारण कैमरे से उतारा। इसके लिए उन्होंने टाइमैप्स फोटोग्राफी की तकनीक इस्तेमाल की। इस तरह से बनी अपनी पत्नी की जीवन बीमा पॉलिसी गिरवी रखकर, ऊंची ब्याज दर पर ऋण प्राप्त करने में वह सफल रहे।

इंग्लैंड की यात्रा और फिल्म निर्माण का प्रशिक्षण

फरवरी 1912 में, फिल्म प्रोडक्शन में एक क्रैश-कोर्स करने के लिए वह इंग्लैण्ड गए और एक सप्ताह तक सेसिल हेपवर्थ के अधीन काम सीखा। कैबाउर्न ने विलियमसन कैमरा, एक फिल्म परफोरेटर, प्रोसेसिंग और प्रिंटिंग मशीन जैसे यंत्रों तथा कच्चा माल का चुनाव करने में मदद की।

‘राजा हरिश्चंद्र’ का निर्माण

इन्होंने ‘राजा हरिशचंद्र’ बनायी। चूंकि उस दौर में उनके सामने कोई और मानक नहीं थे, अतः सब कामचलाऊ व्यवस्था उन्हें स्वयं करनी पड़ी।


अभिनय करना सिखाना पड़ा, दृश्य लिखने पड़े, फोटोग्राफी करनी पड़ी और फिल्म प्रोजेक्शन के काम भी करने पड़े। महिला कलाकार उपलब्ध न होने के कारण उनकी सभी नायिकाएं पुरुष कलाकार थे (वेश्या चरित्र को छोड़कर)। होटल का एक पुरुष रसोइया सालुंके ने भारतीय फिल्म की पहली नायिका की भूमिका की।

फिल्म निर्माण की चुनौतियाँ

शुरू में शूटिंग दादर के एक स्टूडियो में सेट बनाकर की गई। सभी शूटिंग दिन की रोशनी में की गई क्योंकि वह एक्सपोज्ड फुटेज को रात में डेवलप करते थे और प्रिंट करते थे (अपनी पत्नी की सहायता से)। छह माह में 3700 फीट की लंबी फिल्म तैयार हुई।

साल 1912 में उन्होंने 'फाल्के फिल्म' नाम की एक कंपनी की स्थापना की। इस फिल्म को बनाने में उनका पूरा परिवार शामिल था। उनकी पत्नी ने अभिनेताओं की वेशभूषा, फिल्म के पोस्टर और निर्माण कार्य संभाला। उनके 7 साल के बेटे भालचंद्र फाल्के ने फिल्म में हरिश्चंद्र के बेटे की भूमिका निभाई।

पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र'

फिल्म बनाने की कुल लागत लगभग 15 हज़ार रुपये थी, जो उस समय के लिए बहुत बड़ी राशि थी। यह फिल्म पहली बार 3 मई, 1913 को कोरोनेशन सिनेमा, मुंबई में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित की गई थी।


दर्शकों ने इसे बेहद पसंद किया और यह भारतीय सिनेमा की ऐतिहासिक शुरुआत साबित हुई।

सिनेमा में योगदान

इसके बाद उन्होंने कई फिल्में बनाईं, जिनमें से ज्यादातर की उन्होंने खुद ही लेखन और निर्देशन किया। अपने 20 सालों के फिल्मी करियर में उन्होंने करीब 121 फिल्मों का निर्माण किया, जिसमें 95 से अधिक फिल्में और 26 शॉर्ट फिल्में शामिल हैं। उनकी प्रमुख फिल्मों में मोहिनी भस्मासुर (1913), सत्यवान सावित्री (1914), लंका दहन (1917) और कालिया मर्दन (1919) प्रमुख हैं।

तकनीकी और रचनात्मक प्रयोग

साल 1932 में उनकी आखिरी मूक फिल्म 'सेतुबंधन' बनी, जिसे बाद में डब करके आवाज़ दी गई थी। यह डबिंग के लिहाज से एक रचनात्मक और शुरुआती प्रयोग था। इसके अलावा, उन्होंने अपने करियर में इकलौती बोलती फिल्म 'गंगावतरण' बनाई।

दादा साहब फाल्के को भारतीय सिनेमा को नई दिशा देने के लिए अनेक संघर्ष करने पड़े। उनके प्रयासों से भारतीय फिल्म उद्योग को मजबूती मिली और कई नए फिल्मकार इस क्षेत्र में आए। हालांकि 1920 के बाद जब फिल्मों में आर्थिक निवेश बढ़ने लगा, तब व्यावसायिक फिल्म निर्माताओं ने उनका स्थान लेना शुरू कर दिया।


अपनी आखिरी फिल्म बनाने के बाद दादा साहब फाल्के ने सिनेमा से संन्यास ले लिया और नासिक में जाकर बस गए। 16 फरवरी 1944 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया।

दादा साहब फाल्के पुरस्कार

1969 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' की स्थापना की, जो भारतीय सिनेमा का सर्वोच्च पुरस्कार है। यह पुरस्कार हर साल भारतीय सिनेमा में उत्कृष्ट योगदान देने वाले व्यक्ति को प्रदान किया जाता है।

देश को आज़ादी मिलने के कुछ वर्ष पहले 16 फरवरी, 1944 को नासिक में दादा साहब फाल्के का निधन हो गया। उनके उल्लेखनीय योगदान के सम्मान में, भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार 'दादा साहब फाल्के पुरस्कार' 1969 में शुरू किया गया।इस पुरस्कार की स्थापना सरकार द्वारा वर्ष 1969 में की गई थी। इस पुरस्कार के तहत एक 'स्वर्ण कमल', 10 लाख रुपए का नकद, एक प्रमाण पत्र, रेशम की एक पट्टिका और एक शॉल दिया जाता है।यह पुरस्कार भारत के राष्ट्रपति द्वारा केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री, जूरी के अध्यक्षों, फिल्म फेडरेशन ऑफ इंडिया के प्रतिनिधियों तथा अखिल भारतीय सिने कर्मचारियों के परिसंघ (Confederation of All India Cine Employees) सहित वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्थिति में प्रदान किया जाता है।वर्ष 1969 में देविका रानी रोरिक को इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।


दादा साहब फाल्के अकादमी उनके नाम पर तीन पुरस्कार प्रदान करती है:

फाल्के रत्न पुरस्कार

फाल्के कल्पतरु पुरस्कार

दादा साहब फाल्के अकादमी पुरस्कार

1971 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया। उनके द्वारा रखी गई भारतीय फिल्म उद्योग की नींव आज एक विशाल और सफल सिनेमा उद्योग का रूप ले चुकी है।

दादा साहब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक माने जाते हैं। उन्होंने अपने अथक प्रयासों से भारतीय फिल्म उद्योग को दिशा दी और इसे नई ऊंचाइयों तक पहुँचाया। उनका योगदान सिनेमा प्रेमियों और फिल्मकारों के लिए सदैव प्रेरणादायक रहेगा।



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