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Manbhavan Sawan: साहित्य में मनभावन सावन

Manbhavan Sawan: ऋतु का शब्दों में उल्लेख करना कोई सरल कार्य नहीं है। किंतु हमारे कवियों ने इस ऋतु को बहुत ही सुंदर शब्दों में बांधकर इसे काव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। वेदों की ऋचाओं की अनुभूति सावन के मनोहर भाव को व्यक्त की है ।

Dr. Saurabh Malviya
Published on: 26 July 2024 7:57 PM IST (Updated on: 27 July 2024 9:56 AM IST)
Manbhavan Sawan
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Manbhavan Sawan

Manbhavan Sawan: वर्षा ऋतु कवियों की प्रिय ऋतु मानी जाती है। इस ऋतु में सावन मास का महत्व सर्वाधिक है। ज्येष्ठ एवं आषाढ़ की भयंकर ग्रीष्म ऋतु के पश्चात सावन का आगमन होता है। सावन के आते ही नीले आकाश पर काली घटाएं छा जाती हैं। जब वर्षा की बूंदें धरती पर पड़ती हैं, तो संपूर्ण वातावरण मिट्टी की सुगंध से भर जाता है। प्रकृति झूम उठती है। वृक्ष-पौधे झूमने लगते हैं। मनुष्य ही नहीं, अपितु सभी जीव-जंतु प्रसन्न हो जाते हैं। जिसे तन-मन अनुभव करता है, उस ऋतु का शब्दों में उल्लेख करना कोई सरल कार्य नहीं है। किंतु हमारे कवियों ने इस ऋतु को बहुत ही सुंदर शब्दों में बांधकर इसे काव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। वेदों की ऋचाओं की अनुभूति सावन के मनोहर भाव को व्यक्त की है ।

कविता का कोई भी काल रहा हो, सभी काल के कवियों ने वर्षा ऋतु पर जमकर लिखा है। भक्तिकाल एवं रीतिकाल के संधि कवि सेनापति वर्षा ऋतु का चित्रण करते हुए कहते हैं कि मेघ बहुत जल बरसाते हैं एवं सारंग की भांति ध्वनि करते हैं। मोर अत्यंत सुंदर लगते हैं तथा वे मेघ के घिर आने पर प्रसन्नचित्त होते हैं। मेघ वर्षा जल देने के कारण जीवन के आधार माने जाते हैं। कवि सेनापति के शब्दों में-

सारंग धुनि सुनावै घन रस बरसावै,

मोर मन हरषावै अति अभिराम है।

जीवन अधार बड़ी गरज करनहार,

तपति हरनहार देत मन काम है।।

सीतल सुभग जाकी छाया जग सेनापति,

पावत अधिक तन मन बिसराम है।

संपै संग लीने सनमुख तेरे बरसाऊ,

आयौ घनस्याम सखि मानौं घनस्याम है।।

रीतिबद्ध काव्य के आचार्य कवि देव अपनी कविता में विरहिणी नायिका की मनोव्यथा का वर्णन करते हैं।

नायिका कह रही है कि मैंने रात्रि में एक स्वप्न देखा, जिसमें मुझे प्रतीत हुआ कि झरझर का शब्द करती हुई झीनी-झीनी बूंदे गिर रही हैं एवं गर्जना के साथ आकाश में घटाएं घिरी हुई हैं। उस वातावरण में श्रीकृष्ण ने आकर मुझसे कहा है कि चलो आज झूला झूलते हैं। प्रियतम का यह प्रस्ताव सुनकर मैं अत्यधिक प्रसन्न हो गई। कवि देव कहते हैं-

झहरि-झहरि झीनी बूंद है परति मानो,

घहरि-घहरि घटा घिरी है गगन में।

आनि कह्यो स्याम मो सों, चलो झूलिबे को आजु,

फूली ना समानी, भयी ऐसी हौं मगन मैं।।

चाहति उठ्योई, उड़ि गयी सो निगोड़ी नींद,

सोय गये भाग मेरे जागि वा जगन में।

आंखि खोलि देखौं तो मैं घन हैं न घनस्याम,

वेई छायी बूंदें मेरे आंसू ह्वै दृगन में।।

अयोध्या नरेश एवं रीतिकाल की स्वच्छंद काव्य-धारा के अंतिम कवि द्विजदेव ने भी वर्षा ऋतु का सुंदर वर्णन किया है। वे कहते हैं-

कारी नभ कारी निसि कारियै डरारी घटा,

झूकन बहत पौन आनंद को कंद री।

'द्विजदेव' सांवरी सलोनी सजी स्याम जू पै,

कीन्हौं अभिसार लखि पावस अनंद री।

नागरी गुनागरी सु कैसें डरै रैनि डर,

जाके संग सोहैं ए सहायक अमंद री।

बाहन मनोरथ उमाहिं संगवारी सखी,

मैन मद सुभट मसाल मुख चंद री।।

सितारगढ़ के नरेश शंभुनाथ सिंह सोलंकी 'नृप शंभु ने सावन का अत्यंत मनोहारी चित्रण किया है, वे मनभावान सावन का उल्लेख करते हुए कहते हैं-

सावन के मास मनभावन के संग प्यारी,

अटा पर ठाढ़ी भई घटा अंधियारी में।

दामिनी के धोखे चक चौंझे दृग कवि नाथ,

छबिन सों मुरि दुरै पिय अंग वारी में।।

कोटि रति वारों ऐसी राधाजू के रूप पर,

रंभा रंक कहा शंक शची के निहारी में।

पागि रही रस जागि रही ज्योति लाजनि में,

नेह भीजो वेह मेह भीजो श्वेत सारी में।।

रीतिकाल के कवि घनश्याम शुक्ल सावन में उमड़-उमड़ कर आ रही घटाओं के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए कहते हैं-

उमड़ि घुमड़ि घन आवत अटान चोट,

घन-घन जोति छटा छटकि-छटकि जात।

सोर करें चातक चकोर पिक चहवार

मोर ग्रीव मोरि-मोरि मटकि-मटकि जात।।

सावन लौं आवन सुनो है घनश्याम जू को,

आंगन लौ आय-पांय पटकि-पटकि जात।

हिये बिरहानल की तपनि अपार उर,

हार गज मोतिन को चटकि-चटकि जात।।

रीतिकालीन कवि श्रीपति जल से भरे मेघों का वर्णन करते हैं कि किस प्रकार वे दसों दिशाओं से दामिनी साथ लाते हैं। वे कहते हैं-

जलभरे झूमैं मानो भूमै परसत आय,

दसहू दिसान घूमैं दामिनी लए लए।

धूरिधार धूमरे से, धूमसे धुंधारेकारे,

धुरवान धारे धावैं छबिसों छए छए।।

श्रीपति सुकवि कहै घेरि घेरि घहराहिं,

तकत अतन तन ताव तैं तए तए।

लाल बिनु केसे लाज चादर रहैगी आज,

कादर करत मोहिं बादर नए नए।।

अंबिकादत्त व्यास भी मेघों का अति चित्रण करते हुए कहते हैं-

मेघ देस-देस नट खट आसा पूरि आये,

कान्हर लै गूजरी हिंडोर छबि छाकी है।

दीप-दीप भैरव भये हैं नारि बृंदन सों,

ललित सुहाई लीला सारंग छटा की है।

श्यामल तमाल कोस कोस लौं कुमोद कीनों,

अंबादत्त सोहनी त्यों छाया बदरा की है।

कोऊ सुघरई सों श्रीकृष्ण को जु पाऔं तब,

आली या कल्यान की बहार बरसा की है।।

कवि कवींद्र 'उदयनाथ' सावन में ग्राम के वातावरण का उल्लेख करते हुए कहते हैं-

लाग्यो यह सावन सनेह सरसावन,

सलिल बरसावन पटाधर ठटान को।

गोरी गांव गांवन लगी हैं गीत गावन,

हिंडोरो झूम लावन उठान छ्वै अटान को।।

भनत कबिंद्र बिरहीजन सतावन सो,

देखो चमकावनरी बिज्जुल छटान को।

प्यारे परौ पांवन लला को लीजै नावन सो,

देखो आजु आवन सुहावन घटान को।।

सुमित्रानंदन पंत सावन के अनुपम सौन्दर्य का चित्रण करते हुए कहते हैं-

झम झम झम झम मेघ बरसते हैं सावन के

छम छम छम गिरतीं बूंदें तरुओं से छन के।

चम चम बिजली चमक रही रे उर में घन के,

थम थम दिन के तम में सपने जगते मन के।

ऐसे पागल बादल बरसे नहीं धरा पर,

जल फुहार बौछारें धारें गिरतीं झर झर।

आंधी हर हर करती, दल मर्मर तरु चर् चर्

दिन रजनी औ पाख बिना तारे शशि दिनकर।

सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ सावन के आगमन का उल्लेख करते हुए कहते हैं-

जेठ नहीं, यह जलन हृदय की,

उठकर जरा देख तो ले;

जगती में सावन आया है,

मायाविन! सपने धो ले।

जलना तो था बदा भाग्य में

कविते! बारह मास तुझे;

आज विश्व की हरियाली पी

कुछ तो प्रिये, हरी हो ले।

जयशंकर प्रसाद सावन की रात्रि के सौन्दर्य को अपने शब्दों में बांधते हुए कहते हैं-

नव तमाल श्यामल नीरद माला भली

श्रावण की राका रजनी में घिर चुकी,

अब उसके कुछ बचे अंश आकाश में

भूले भटके पथिक सदृश हैं घूमते।

अर्ध रात्रि में खिली हुई थी मालती,

उस पर से जो विछल पड़ा था, वह चपल

मलयानिल भी अस्त व्यस्त हैं घूमता

उसे स्थान ही कहीं ठहरने को नहीं।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना अपनी प्रेमिका को संबोधित करते हुए कहते हैं-

मेरी सांसों पर मेघ उतरने लगे हैं,

आकाश पलकों पर झुक आया है,

क्षितिज मेरी भुजाओं से टकराता है,

आज रात वर्षा होगी।

कहां हो तुम?

कवयित्री महादेवी वर्मा कहती हैं-

लाए कौन संदेश नए घन!

अम्बर गर्वित,

हो आया नत,

चिर निस्पंद हृदय में उसके

उमड़े री पुलकों के सावन!

लाए कौन संदेश नए घन!

हरिवंशराय बच्चन वर्ष ऋतु में चलने वाली हवा को अनुभव करते हुए कहते हैं-

बरसात की आती हवा।

वर्षा-धुले आकाश से,

या चन्द्रमा के पास से,

या बादलों की सांस से;

मघुसिक्त, मदमाती हवा,

बरसात की आती हवा।

यह खेलती है ढाल से,

ऊंचे शिखर के भाल से,

अस्काश से, पाताल से,

झकझोर-लहराती हवा;

बरसात की आती हवा।

अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' कहते हैं-

सखी ! बादल थे नभ में छाये

बदला था रंग समय का

थी प्रकृति भरी करूणा में

कर उपचय मेघ निश्चय का।

वे विविध रूप धारण कर

नभ–तल में घूम रहे थे

गिरि के ऊंचे शिखरों को

गौरव से चूम रहे थे।

त्रिलोक सिंह ठकुरेला सावन में कृषकों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-

सावन बरसा जोर से, प्रमुदित हुआ किसान।

लगा रोपने खेत में, आशाओं के धान।।

आशाओं के धान, मधुर स्वर कोयल बोले।

लिये प्रेम-संदेश, मेघ सावन के डोले।

‘ठकुरेला’ कविराय, लगा सबको मनभावन।

मन में भरे उमंग, झूमता गाता सावन।।

दुष्यंत कुमार कहते हैं-

दिन भर वर्षा हुई

कल न उजाला दिखा

अकेला रहा

तुम्हें ताकता अपलक।

आती रही याद

इंद्रधनुषों की वे सतरंगी छवियां

खिंची रहीं जो

मानस-पट पर भरसक।

कलम हाथ में लेकर

बूंदों से बचने की चेष्टा की-

इधर-उधर को भागा

भींग गया पर मस्तक


(लेखक – स्वतंत्र टिप्पणीकार है। )

Shalini singh

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