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Maagh Maas Ka Mahatmya: माघ माहात्म्य– जाने माघ में स्नान का फल

Maagh Maas Ka Mahatmya: व्यासजी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात पैरों में जूते और सुंदर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपनी नगरी से बाहर निकले।

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Published on: 14 March 2023 10:20 PM GMT
Maagh Maas Ka Mahatmya: माघ माहात्म्य– जाने माघ में स्नान का फल
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Maagh Maas Ka Mahatmya: एक समय श्री सूतजी ने अपने गुरु श्री व्यासजी से कहा कि गुरुदेवकृपा करके आप मुझ से माघ मास का माहात्म्य कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ। व्यासजी कहने लगे कि रघुवंश के राजा दिलीप एक समय यज्ञ के स्नान के पश्चात पैरों में जूते और सुंदर वस्त्र पहनकर शिकार की सामग्री से युक्त, कवच और शोभायमान आभूषण पहने हुए अपने सिपाहियों से घिरे हुए जंगल में शिकार खेलने के लिए अपनी नगरी से बाहर निकले। उनके सिपाही जंगल में शिकार के लिए मृग, व्याघ्र, सिंह आदि जंतुओं की तलाश में इधर-उधर फिरने लगे।

उस वन में वनस्थली अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रही थी, कहीं-2 मृगों के झुंड फिरते थे।कहीं गीदड़ अपना भयंकर शब्द कर रहे थे। कहीं गैंडों का समूह हाथियों के समान फिर रहा था। कहीं वृक्षों के कोटरों में बैठे हुए उल्लू अपना भयानक शब्द कर रहे थे। कहीं सिंहों के पदचिन्हों के साथ घायल मृगों के रक्त से भूमि लाल हो रही थी। कहीं दूध से भरी थनों वाली सुंदर भैंसे फिर रही थी, कहीं पर सुगंधित पुष्प, हरी-भरी लताएँ वन की शोभा को बढ़ा रही थी। कहीं बड़े-बड़े पेड़ खड़े थे तो कहीं पर उन पेड़ों पर बड़े-बड़े अजगर और उनकी केंचुलियाँ भी पड़ी हुई थी।

उसी समय राजा के सिपाहियों के बाजे की आवाज सुनकर एक मृग वन में से निकलकर भागने लगा और बड़ी-बड़ी चौकड़ियाँ भरता हुआ आगे बढ़ा। राजा ने उसके पीछे अपना घोड़ा दौड़ाया परन्तु मृग पूरी शक्ति से भागने लगा। मृग कांटेदार वृक्षों के एक जंगल में घुसा और राजा ने भी उसके पीछे वन में प्रवेश किया परंतु दूर जाकर मृग, राजा की दृष्टि से ओझल होकर निकल गया। राजा निर्जन वन में अपने सैनिकों सहित प्यास के मारे अति दुखी हो गया। दोपहर के समय अधिक मार्ग चलने से सैनिक थक गये और घोड़े रुक गए। कुछ देर बाद राजा ने एक बड़ा भारी सुंदर सरोवर देखा जिसके किनारों पर घने वृक्ष थे। इसका जल सज्जनों के हृदय के समान स्वच्छ और पवित्र था।

सरोवर का जल लहरों से बड़ा सुंदर लगता था। जल में अनेक प्रकार के जल-जंतु मछलियाँ आदि स्वच्छंदता से इधर-उधर फिर रही थी। दुष्टों के समान निर्दयी चित्त वाले मगरमच्छ भी थे। किसी-किसी जगह लोभी के समान सिमाल भी पड़ी हुई थी। जैसे विपत्ति में पड़े हुए लोगों को दुखों को हरने वाले दानी पुरुष के समान यह सरोवर अपने जल से सबको सुखी करता था, जैसे मेघ चातक के दुख को हरता है, इस सरोवर को देखकर राजा की थकावट दूर हो गई। रात्रि को राजा ने वहीं विश्राम किया और सैनिक पहरा देने लगे और चारों तरफ फैलेंगे।

रात के अंतिम समय में शूकरों के एक झुंड ने आकर सरोवर में पानी पीया और कमल के झुंड के पास आया तब शिकारियों ने सावधान होकर शूकरों पर आक्रमण किया और उनको मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। उस समय सब शिकारी कोलाहल करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ राजा के पास गए और राजा प्रभात हुआ देखकर उनके साथ ही अपनी नगरी की तरफ चल पड़ा ।

जिसका शरीर तपस्या और नियमों के कारण बिलकुल सूख गया था, जो मृगछाला और वल्कल पहने हुए था और नख रोम तथा केश धारण किए हुए था, राजा ने ऎसे घोर तपस्वी को देखकर बड़े आश्चर्य से उसको प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। तपस्वी ने राजा से कहा कि हे राजन! इस पुण्य शुभ माघ में इस सरोवर को छोड़कर तुम यहाँ से क्यों जाने की इच्छा करते हो तब राजा कहने लगा कि महात्मन्! मैं तो माघ मास में स्नान के फल को कुछ भी नहीं जानता. कृपा करके आप विस्तारपूर्वक मुझको बताइए ।

माघ मास महात्म्य द्वितीय अध्याय, अनंत फल देने वाला माघ मास

माघ एक ऐसा माह जो भारतीय संवत्सर का ग्यारहवां चंद्रमास व दसवां सौरमास कहलाता है। दरअसल मघा नक्षत्र युक्त पूर्णिमा होने के कारण यह महीना माघ का महीना कहलाता है। वैसे तो इस मास का हर दिन पर्व के समान जाता है। लेकिन कुछ खास दिनों का खास महत्व भी इस महीने में हैं। उत्तर भारत में 1 जनवरी को पौष पूर्णिमा के साथ ही माघ स्नान की शुरुआत 2023 में हो चुकी थी। जिसका समापन 31 जनवरी को माघी पूर्णिमा के दिन हुआ।

महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 106 के अनुसार

माघं तु नियतो मासमेकभक्तेन य: क्षिपेत्।
श्रीमत्कुले ज्ञातिमध्ये स महत्त्वं प्रपद्यते।।

अर्थात जो माघ मास में नियमपूर्वक एक समय भोजन करता है, वह धनवान कुल में जन्म लेकर अपने कुटुम्बजनों में महत्व को प्राप्त होता है।

पद्मपुराण, उत्तरपर्व में कहा गया है

ग्रहाणां च यथा सूर्यो नक्षत्राणां यथा शशी
मासानां च तथा माघः श्रेष्ठः सर्वेषु कर्मसु

अर्थात जैसे ग्रहों में सूर्य और नक्षत्रों में चन्द्रमा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार महीनों में माघ मास श्रेष्ठ है। माघ में मूली का त्याग करना चाहिए। देवता और पितर को भी मूली अर्पण न करें। माघ में तिलों का दान जरूर जरूर करना चाहिए। विशेषतः तिलों से भरकर ताम्बे का पात्र दान देना चाहिए।

महाभारत अनुशासन पर्व के 66वें अध्याय के अनुसार

माघ मासे तिलान् यस्तु ब्राह्मणेभ्यः प्रयच्छति।
सर्वसत्वसमकीर्णं नरकं स न पश्यति॥

जो माघ मास में ब्राह्मणों को तिल दान करता है, वह समस्त जन्तुओं से भरे हुए नरक का दर्शन नहीं करता। श्री हरि नारायण को माघ मास अत्यंत प्रिय है। वस्तुत: यह मास प्रातः स्नान (माघ स्नान), कल्पवास, पूजा-जप-तप, अनुष्ठान, भगवद्भक्ति, साधु-संतों की कृपा प्राप्त करने का उत्तम मास है। माघ मास की विशिष्टता का वर्णन करते हुए महामुनि वशिष्ठ ने कहा है, ‘जिस प्रकार चंद्रमा को देखकर कमलिनी तथा सूर्य को देखकर कमल प्रस्फुटित और पल्लवित होता है, उसी प्रकार माघ मास में साधु-संतों, महर्षियों के सानिध्य से मानव बुद्धि पुष्पित, पल्लवित और प्रफुल्लित होती है। यानी प्राणी को आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ‘

माघ माहात्म्य, राजा के ऎसे वचन सुनकर तपस्वी कहने लगा कि हे राजन्! भगवान सूर्य बहुत शीघ्र उदय होने वाले हैं । इसलिए यह समय हमारे लिए स्नान का है, कथा का नहीं, सो आप स्नान करके अपने घर को जाओ। अपने गुरु श्री वशिष्ठ जी से इस माहात्म्य को सुनो। इतना कहकर तपस्वी सरोवर में स्नान के लिए चले गए। राजा भी विधिपूर्वक सरोवर में स्नान करके अपने राज्य को लौटा और रनिवास में जाकर तपस्वी की सब कथा रानी को सुनाई। तब सूतजी कहने लगे कि महाराज राजा ने अपने गुरु वशिष्ठजी से क्या प्रश्न किया और उन्होंने क्या उत्तर दिया सो कहिए।

व्यासजी कहने लगे – हे सूतजी! राजा दिलीप ने रात्रि को सुख से सोकर प्रात: समय ही अपने गुरु वशिष्ठजी के पास जाकर उनके चरणों को छूकर, प्रणाम करके तपस्वी के बताए हुए प्रश्नों को अति नम्रता से पूछा कि गुरुजी आपने आचार, दंड, नीति, राज्य धर्म तथा चारों वर्णों के चारों आश्रमों की क्रियाओं, दान और उनके विधान, यज्ञ और उनकी विधियाँ, व्रत, उनकी प्रतिष्ठा तथा भगवान विष्णु की आराधना अनेक प्रकार से तथा विस्तारपूर्वक मुझको बतलाई। अब मैं आपसे माघ मास के स्नान के माहात्म्य को सुनना चाहता हूँ। सो हे तपोधन! नियमपूर्वक इसकी विधि समझाइए।

गुरु वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! तुमने दोनों लोकों के कल्याणकारी, वनवासी तथा गृहस्थियों के अंत:करण को पवित्र करने वाले माघ मास के स्नान का बहुत सुंदर प्रश्न पूछा है। मकर राशि के सूर्य के आने पर माघ मास में स्नान का फल, गौ, भूमि, तिल, वस्त्र, स्वर्ण, अन्न, घोड़ा आदि दानों तथा चंद्रायण और ब्रह्मा कूर्च व्रत आदि से भी अधिक होता है. वैशाख तथा कार्तिक में जप, दान, तप और यज्ञ बहुत फल देने वाले हैं परन्तु माघ मास में इनका फल बहुत ही अधिक होता है. माघ में स्नान करने वाला पुरुष राजा और मुक्ति के मार्ग को जानने वाला होता है।

दिव्य दृष्टि वाले महात्माओं ने कहा है कि जो मनुष्य माघ मास में सकाम या भगवान के निमित्त नियमपूर्वक माघ मास में स्नान करता है । वह अनंत फल वाला होता है। उसको शरीर की शुद्धि, प्रीति, ऎश्वर्य तथा चारों प्रकार के फलों की प्राप्ति होती है।अदिति ने बारह वर्ष तक मकर संक्रांति में अन्न त्यागकर स्नान किया । इससे तीनों लोकों को उज्जवल करने वाले बारह पुत्र उत्पन्न हुए। माघ में स्नान करने से ही रोहिणी, सुभगा, अरुन्धती दानशीलता हुई और इन्द्राणी के समान रूपवती होकर प्रसिद्ध हुई। जो माघ मास में स्नान करते हैं तथा देवताओं के पूजन में तत्पर रहते हैं उनको सुंदर स्थान, हाथी और घोड़ो की सवारी तथा दान को द्रव्य प्राप्त होता है। अतिथियों से उनका घर भरा रहता है और उनके घर में सदा वेद ध्वनि होती रहती है।

वह मनुष्य धन्य है जो माघ मास में स्नान करते हैं, दान देते हैं तथा व्रत और नियमों का पालन करते हैं । दूसरों के पुण्यों के क्षीण होने से मनुष्य स्वर्ग से वापिस आ जाता है परन्तु जो मनुष्य माघ मास में स्नान करता है ,वह कभी स्वर्ग से वापिस नहीं आता। इससे बढ़कर कोई नियम, तप, दान, पवित्र और पाप नाशक नही है। भृगुजी ने मणि पर्वत पर विद्याधरों को यह सुनाया था। तब राजा ने कहा कि ब्रह्मन भृगु ऋषि ने कब मणि पर्वत पर विद्याधरों को उपदेश दिया था सो बताइए तब ऋषिजी कहने लगे कि राजन्! एक समय बारह वर्ष तक वर्षा न होने के कारण सब प्रजा क्षीण होने के कारण संसार में बड़ी उद्विग्नता फैल गई। हिमाचल और विंध्याचल पर्वत के मध्य का देश निर्जन होने के कारण, श्राद्ध, तप तथा स्वाध्याय सब कुछ छूट गए. सारा लोक विपत्तियों में फंसकर प्रजाहीन हो गया।

सारा भूमंडल फल और अन्न से रहित हो गया तब विंध्याचल से नीचे बहती हुई नदी के सुंदर वृक्षों से आच्छादित अपने आश्रम से निकलकर श्री भृगु ऋषि अपने शिष्यों सहित हिमालय पर्वत पर गए। इस पर्वत की चोटी नीली और नीचे का हिस्सा सुनहरी होने से सारा पर्वत पीताम्बरधारी श्री भगवान के सदृश लगता था। पर्वत के बीच का भाग नीला और बीच-बीच में कहीं-कहीं सफेद स्फटिक होने से तारों से युक्त आकाश जैसी शोभा को प्राप्त होता था। रात्रि के समय वह पर्वत दीपकों की तरह चमकती हुई दिव्य औषधियों से पूरित किसी महल की शोभा को प्राप्त होता था। वह पर्वत शिखाओं पर बांसुरी बजाती और सुंदर गीत गाती हुई किन्नरियों तथा केले के पत्तों की पताकाओं से अत्यंत शोभा को प्राप्त हो रहा था।

यह पर्वत नीलम, पन्ना, पुखराज तथा इसकी चोटी से निकलती हुई रंग-बिरंगी किरणों से इंद्रधनुष के समान प्रतीत होता था।स्वर्ण आदि सब धातुओं से तथा चमकते हुए रत्नों से चारों ओर फैली हुई अग्नि ज्वाला के समान शोभायमान था। इसकी कंदराओं में काम पीड़ित विद्याधरी अपने पतियों के साथ आकर रमण करती हैं और गुफाओं में ऎसे ऋषि-मुनि जिन्होंने संसार के सब क्लेशों को जीत लिया है। रात-दिन ब्रह्म का ध्यान करते हैं । कई एक हाथ में रुद्राक्ष की माला लिए हुए शिव की आराधना में लगे हुए हैं। पर्वत के नीचे भागों में जंगली हाथी अपने बच्चों के साथ खेल रहे हैं तथा कस्तूरी वाले रंग-बिरंगे मृगों के झुंड इधर-उधर भाग रहे हैं। यह पर्वत सदा राजहंस तथा मोरों से भरा रहता है, इसी कारण इसको हेमकुंड कहते है।यहाँ पर सदैव ही देवता, गुह्यक और अप्सरा निवास करते हैं ।

माघ महात्म्य तृतीय अध्याय, रूपवान बनाता है माघ मास में स्नान

तब राजा दिलीप कहने लगे कि महाराज यह पर्वत कितना ऊँचा और कितना लंबा-चौड़ा है? तब वशिष्ठ जी कहने लगे कि छत्तीस योजन (एक योजन चार कोस का होता है) ऊँचा ऊपर चोटी में दस योजन चौड़ा और नीचे सोलह योजन चौड़ा है। जो हरि, चंदन, आम, मदार, देवदार और अर्जुन के वृक्षों से सुशोभित है। दुर्भिक्ष से दुखी होकर इस पर्वत को और फल – फूलों से परिपूर्ण देखकर भृगु वहीं रहने लगे और यहाँ पर कंदराओं, वनों और उपवनों में बहुत दिनों तक तप करते रहे।

इस प्रकार जब भृगु ऋषि वहाँ पर अपने आश्रम पर रह रहे थे तो एक विद्याधर अपनी पत्नी सहित उतरा। वे अत्यंत दुखी थे। उन्होंने भृगु ऋषि को प्रणाम किया और ऋषि ने बड़े मीठे स्वर में उनसे कहा कि हे विद्याधर! तुम बड़े दुखी दिखाई देते हो इसका क्या कारण है? तब विद्याधर कहने लगा कि महाराज पुण्य के फल को पाकर, स्वर्ग पाकर तथा देवतुल्य शरीर पाकर भी मेरा मुख व्याघ्र जैसा है। मेरे दुख और अशांति का यही एक कारण है। न जाने किस पाप का फल है।मेरे चित्त की व्याकुलता का दूसरा कारण भी सुनिए।

मेरी पत्नी अति रुपवती, मीठा वचन बोलने वाली, नाचने और गाने की कला में अति प्रवीण, शुद्ध चित्त वाली, सातों सुरों वाली, वीणा बजाने वाली जिसने अपने कंठ से गाकर नारदजी को प्रसन्न किया। नाना स्वरों के नाद से वीणा बजाकर कुबेर को प्रसन्न किया। अनेक प्रकार के नाच ताल से शिवजी महाराज भी अति प्रसन्न और रोमांचित हुए। शील, उदारता, रूप तथा यौवन में स्वर्ग की कोई अप्सरा भी इस जैसी नहीं है।कहां ऎसी चंद्रमुखी स्त्री और कहां मैं व्याघ्र मुख वाला, यही चिंता सदैव मेरे हृदय को जलाती है।

विद्याधर के ऐसे वचन सुनकर तीनों लोकों की भूत, भविष्य और वर्तमान की बात जानने वाले तथा दिव्य दृष्टि वाले ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर कर्म के विचित्र फलों को प्राप्त होकर ज्ञानी पुरुष भी मोह को प्राप्त हो जाते हैं। मक्खी के पैर जितना विष भी प्राण लेने वाला हो जाता है। छोटे-छोटे पापों का फल भी अत्यंत दुखदायी हो जाता है। तुमने माघ मास की एकादशी का व्रत करके द्वादशी न आने तक शरीर में तेल लगाया इसी पाप कर्म से व्याघ्र हुए। एकादशी के दिन उपवास करके द्वादशी को तेल लगाने से राजा पुरुरवा ने भी कुरुप शरीर पाया था । तब वह अपने कुरुप शरीर को देखकर दुखी होकर हिमालय पर्वत पर देव सरोवर के किनारे पर गया।

प्रीतिपूर्वक शुद्ध स्नान कर कुशा के आसन पर बैठकर भगवान कमल नेत्र, शंख, चक्र, गदा, पद्म के धारण करने वाले पीताम्बर पहने, वन माला धारण किए हुए विष्णु का चिंतन करते राजा पुरुरवा ने तीन मास तक निराहार रहकर भगवान का चिंतन किया। इस प्रकार सात जन्मों में प्रसन्न होने वाले भगवान, राजा के तीन महीने के तप से ही अति प्रसन्न हो गए और माघ की शुक्ल पक्ष की एकादशी को प्रसन्न होकर भगवान ने अपने शंख के जल से राजा को पवित्र किया। भगवान ने उसके तेल लगाने की बात याद दिलाकर सुंदर देवताओं का सा रूप दिया, जिसको देखकर उर्वशी भी उसको चाहने लगी और राजा कृतकृत्य होकर अपनी पुरी को चला गया।

भृगु ऋषि कहने लगे कि हे विद्याधर! इसलिए तुम क्यों दुखी होते हो यदि तुम अपना यह राक्षसी रूप छोड़ना चाहते हो तो मेरा कहना मानकर जल्दी ही पापों को नष्ट करने वाली हेमकूट नदी में माघ में स्नान करो जहाँ पर ऋषि सिद्ध देवता निवास करते हैं। अब मैं इसकी विधि बतलाता हूँ. तुम्हारे भाग्य से माघ मास आज से पाँचवें दिन ही आने वाला है। पौष शुक्ल एकादशी से इस व्रत को आरंभ करो. भूमि पर सोना, जितेंद्रिय रहकर दिन में तीन समय स्नान करके महीना भर निराहार रहो. सब भोगों को त्यागकर तिनों समय भगवान विष्णु का पूजन करो जब तुम द्वादशी को शिवजी स्तोत्र और मंत्रों से पूजन करोगे तो तुम्हारा मुख देखकर सभी चकित हो जाएंगे और तुम अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक क्रीड़ा करोगे।

माघ मास के प्रभाव को जानकर सदा माघ में स्नान करो। पाप दरिद्रता से बचने के लिए मनुष्य को सदा यत्न से माघ मास का स्नान करना चाहिए। स्नान करने वाला इस लोक तथा परलोक में सदा सुख पाता है। वशिष्ठ जी कहते हैं कि हे दिलीप! भृगुजी के यह वचन सुनकर वह विद्याधर अपनी स्त्री सहित उसी स्थान पर पर्वत के झरने में माघ का स्नान करता रहा और उसके प्रभाव से उसका मुख देव सदृश हो गया।वह मणिग्रीव पर्वत पर आनंद से रहने लगे। भृगुजी भी नियम की समाप्ति पर शिष्यों सहित इवा नदी के तट पर आ गए।

माघ मास महात्म्य चतुर्थ अध्याय, माघ स्नान से नष्ट होते हैं काया, वाचा, मनसा से किये गये सभी पाप

श्री वशिष्ठजी कहने लगे कि हे राजन! अब मैं माघ के उस माहात्म्य को कहता हूँ जो कार्तवीर्य के पूछने पर दत्तात्रेय ने कहा था। जिस समय साक्षात विष्णु के रुप श्री दत्तात्रेय सत्य पर्वत पर रहते थे तब महिष्मति के राजा सहस्रार्जुन ने उनसे पूछा कि हे योगियों में श्रेष्ठ दत्तात्रेयजी! मैंने सब धर्म सुने. अब आप कृपा करके मुझे माघ मास का माहात्म्य कहिए. तब दत्तात्रेय जी बोले – जो नारदजी से ब्रह्माजी ने कहा था वही माघ माहात्म्य मैं तुमसे कहता हूँ। इस कर्म भूमि भारत में जन्म लेकर जिसने माघ स्नान नहीं किया उसका जन्म निष्फल गया।

भगवान की प्रसन्नता, पापों के नाश और स्वर्ग की प्राप्ति के लिए माघ स्नान अवश्य करना चाहिए। यदि यह पुष्ट व शुद्ध शरीर माघ स्नान के बिना ही रह जाए तो इसकी रक्षा करने से क्या लाभ। जल में बुलबुले के समान, मक्खी जैसे तुच्छ जंतु के समान यह शरीर माघ स्नान के बिना मरण समान है। विष्णु भगवान की पूजा न करने वाला ब्राह्मण, बिना दक्षिणा के श्राद्ध, ब्राह्मण रहित क्षेत्र, आचार रहित कुल ये सब नाश के बराबर हैं।

गर्व से धर्म का, क्रोध से तप का, गुरुजनों की सेवा न करने से स्त्री तथा ब्रह्मचारी, बिना जली अग्नि से हवन और बिना साक्षी के मुक्ति का नाश हो जाता है। जीविका के लिए कहने वाली कथा, अपने ही लिए बनाए हुए भोजन की क्रिया, शूद्र से भिक्षा लेकर किया हुआ यज्ञ तथा कंजूस का धन, यह सब नाश के कारण हैं। बिना अभ्यास और आलस्य वाली विद्या, असत्य वाणी, विरोध करने वाला राजा, जीविका के लिए तीर्थयात्रा, जीविका के लिए व्रत, संदेहयुक्त मंत्र का जप, व्यग्र चित्त होकर जप करना, वेद न जानने वाले को दान देना, संसार में नास्तिक मत ग्रहण करना, श्रद्धा बिना धार्मिक क्रिया, यह सब व्यर्थ है और जिस तरह दरिद्र का जीना व्यर्थ है उसी तरह माघ स्नान के बिना मनुष्य का जीना व्यर्थ है। ब्रह्मघाती, सोना चुराने वाला, मदिरा पीने वाला, गुरु-पत्नीगामी और इन चारों की संगति करने वाला माघ स्नान से पवित्र होता है।

जल कहता है कि सूर्योदय से पहले जो मुझसे स्नान करता है मैं उसके बड़े से बड़े पापों को नष्ट करता हूँ। महापातक भी स्नान करने से भस्म हो जाते हैं। माघ मास के स्नान का जब समय आ जाता है तो सब पाप अपने नाश के भय से काँप जाते हैं।

जैसे मेघों से मुक्त होकर चंद्रमा प्रकाश करता है वैसे ही श्रेष्ठ मनुष्य माघ मास में स्नान करके प्रकाशमान होते हैं। काया, वाचा, मनसा से किए हुए छोटे या बड़े, नए या पुराने सभी पाप स्नान से नष्ट हो जाते हैं। आलस्य में बिना जाने जो पाप किए हों वह भी नाश को प्राप्त होते हैं। जिस तरह जन्म-जन्मांतर के अभ्यास से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है उसी तरह जन्मान्तर अभ्यास से ही माघ स्नान में मनुष्य की रुचि होती है. यह अपवित्रों को पवित्र करने वाला बड़ा तप और संसार रूपी कीचड़ को धोने की पवित्र वस्तु है। हे राजन! जो मनवांछित फल देने वाला माघ स्नान नही करते वह सूर्य, चंद्र के समान भोगों को कैसे भोग सकते हैं!

माघ मास महात्म्य पांचवाँ अध्याय, उत्तम भोग को लिए ज़रूरी है माघ स्नान

दत्तात्रेय जी कहते हैं कि हे राजन! एक प्राचीन इतिहास कहता हूँ। भृगुवंश में ऋषिका नाम की एक ब्राह्मणी थी जो बाल्यकाल में ही विधवा हो गई थी। वह रेवा नदी के किनारे विन्ध्याचल पर्वत के नीचे तपस्या करने लगी। वह जितेन्द्रिय, सत्यवक्ता, सुशील, दानशीलता तथा तप करके देह को सुखाने वाली थी। वह अग्नि में आहुति देकर उच्छवृत्ति द्वारा छठे काल में भोजन करती थी। वह वल्कल धारण करती थी और संतोष से अपना जीवन व्यतीत करती थी। उसने रेवा और कपिल नदी के संगम में साठ वर्ष तक माघ स्नान किया और फिर वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गयी।

माघ स्नान के फल से वह दिव्य चार हजार वर्ष तक विष्णु लोक में वास करके सुंद और उपसुंद दैत्यों का नाश करने के लिए ब्रह्मा द्वारा तिलोत्तमा नाम की अप्सरा के रूप में ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुई। वह अत्यंत रुपवती, गान विद्या में अति प्रवीण तथा मुकुट कुंडल से शोभायमान थी। उसका रूप, यौवन और सौंदर्य देखकर ब्रह्मा भी चकित हो गये। वह तिलोत्तमा, रेवा नदी के पवित्र जल में स्नान करके वन में बैठी थी तब सुंद व उपसुंद के सैनिकों ने चन्द्रमा के समान उस रुपवती को देखकर अपने राजा सुंद और उपसुंद से उसके रुप की शोभा का वर्णन किया और कहने लगे कि कामदेव को लज्जित करने वाली ऐसी परम सुंदरी स्त्री हमने कभी नहीं देखी, आप भी चलकर देखें तब वह दोनों मदिरा के पात्र रखकर वहाँ पर आए जहाँ पर वह सुंदरी बैठी हुई थी और मदिरा के पान विह्वल होकर काम-क्रीड़ा से पीड़ित हुए और दोनों ही आपस में उस स्त्री-रत्न को प्राप्त करने के लिए विवादग्रस्त हुए और फिर आपस में युद्ध करते हुए वहीं समाप्त हो गये।

उन दोनों को मरा हुआ देखकर उनके सैनिकों ने बड़ा कोलाहल मचाया और तब तिलोत्तमा कालरात्रि के समान उनको पर्वत से गिराती हुई दसों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई आकाश में चली गई और देव कार्य सिद्ध करके ब्रह्मा के सामने आई तो ब्रह्माजी ने प्रसन्नता से कहा कि हे चन्द्रवती मैंने तुमको सूर्य के रथ पर स्थान दिया। जब तक आकाश में सूर्य स्थित है नाना प्रकार के भोगों को भोगो। सो हे राजन! वह ब्राह्मणी अब भी सूर्य के रथ पर माघ मास स्नान के उत्तम भोगों को भोग रही है इसलिए श्रद्धावान पुरुषों को उत्तम गति पाने के लिए यत्न के साथ माघ मास में विधिपूर्वक स्नान करना चाहिए।

माघमास महात्म्य छठा अध्याय / सातवाँ अध्याय, केवल दो बार माघ स्नान से एक भाई को मिला स्वर्ग, दूसरे को नर्क

पूर्व समय में सतयुग के उत्तम निषेध नामक नगर में हेमकुंडल नाम वाला कुबेर के सदृश धनी वैश्य रहता था। जो कुलीन, अच्छे काम करने वाला, देवता, अग्नि और ब्राह्मण की पूजा करने वाला, खेती का काम करता था। वह गौ, घोड़े, भैंस आदि का पालन करता था। दूध, दही, छाछ, गोबर, घास, गुड़, चीनी आदि अनेक वस्तु बेचा करता था जिससे उसने बहुत सा धन इकठ्ठा कर लिया था। जब वह बूढ़ा हो गया तो मृत्यु को निकट समझकर उसने धर्म के कार्य करने प्रारंभ कर दिए। भगवान विष्णु का मंदिर बनवाया। कुंआ, तालाब, बावड़ी, आम, पीपल आदि वृक्ष के तथा सुंदर बाग-बगीचे लगवाए। सूर्योदय से सूर्यास्त तक वह दान करता, गाँव के चारों तरफ जल की प्याऊ लगवाई। उसने सारे जन्म भर जितने भी पाप किए थे उनका प्रायश्चित करता था। इस प्रकार उसके दो पुत्र उत्पन्न हुए जिनका नाम उसने कुंडल और विकुंडल रखा।

जब दोनों लड़के युवावस्था के हुए तो हेमकुंडल वैश्य गृहस्थी का सब कार्य सौंपकर तपस्या के निमित्त वन में चला गया और वहाँ विष्णु की आराधना में शरीर को सुखाकर अंत में विष्णु लोक को प्राप्त हुआ। उसके दोनों पुत्र लक्ष्मी के मद को प्राप्त होकर बुरे कर्मों में लग गए। वेश्यागामी वीणा और बाजे लेकर वेश्याओं के साथ गाते-फिरते थे। अच्छे सुंदर वस्त्र पहनकर सुगंधित तेल आदि लगाकर, भांड और खुशामदियों से घिरे हुए हाथी की सवारी और सुंदर घरों में रहते थे। इस प्रकार ऊपर बोए बीज के सदृश वह अपने धन को बुरे कामों में नष्ट करते थे। कभी किसी सत पात्र को दान आदि नहीं करते थे न ही कभी हवन, देवता या ब्रह्माजी की सेवा तथा विष्णु का पूजन ही करते थे ।

थोड़े दिनों में उनका सब धन नष्ट हो गया और वह दरिद्रता को प्राप्त होकर अत्यंत दुखी हो गए। भाई, जन, सेवक, उपजीवी सब इनको छोड़कर चले गए तब इन्होंने चोरी आदि करना आरंभ कर दिया और राजा के भय से नगर को छोड़कर डाकुओं के साथ वन में रहने लगे और वहाँ अपने तीक्ष्ण बाणों से वन के पक्षी, हिरण आदि पशु तथा हिंसक जीवों को मारकर खाने लगे। एक समय इनमें से एक पर्वत पर गया जिसको सिंह मारकर खा गया। दूसरा वन को गया जो काले सर्प के डसने से मर गया तब यमराज के दूत उन दोनों को बाँधकर यम के पास लाए और कहने लगे कि महाराज इन दोनों पापियों के लिए क्या आज्ञा है?

सातवां अध्याय

चित्रगुप्त ने उन दोनों के कर्मों की आलोचना करके दूतों से कहा कि बड़े भाई कुंडल को घोर नरक में डालो और दूसरे भाई विकुंडल को स्वर्ग में ले जाओ जहां उत्तम भोग हैं । तब एक दूत तो कुंडल को नरक में फेंकने के लिए ले गया और दूसरा दूत बड़ी नम्रता से कहने लगा कि हे विकुंडल! चलो तुम अच्छे कर्मों से स्वर्ग को प्राप्त होकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगो तब विकुंडल बड़े विस्मय के साथ मन में संशय धारकर दूत से कहने लगा कि हे यमदूत! मेरे मन में बड़ी भारी शंका उत्पन्न हो गई है अतएव मैं तुमसे कुछ पूछता हूँ कृपा कर के मेरे प्रश्नों का उत्तर दो। हम दोनों भाई एक ही कुल में उत्पन्न हुए, एक जैसे ही कर्म करते रहे, दोनों भाइयों ने कभी कोई शुभ कार्य नहीं किया फिर एक को नरक क्यों और दूसरे को स्वर्ग किस कारण प्राप्त हुआ?

मैं अपने स्वर्ग में आने का कोई कारण नहीं देखता तब यमदूत कहने लगा कि हे विकुंडल! माता-पिता, पुत्र, पत्नी, भाई, बहन से सब संबंध जन्म के कारण होते हैं और जन्म, कर्म को भोगने के लिए ही प्राप्त होता है। जिस प्रकार एक वृक्ष पर अनेक पक्षियों का आगमन होता है उसी तरह इस संसार में पुत्र, भाई, माता, पिता का भी संगम होता है। इनमें से जो जैसे-जैसे कर्म करता है वैसे ही फल भोगता है। तुम्हारा भाई अपने पाप कर्मों से नरक में गया तुम अपने पुण्य कर्म के कारण स्वर्ग में जा रहे हो तब विकुंडल ने आश्चर्य से पूछा कि मैंने तो आजन्म कोई धर्म का कार्य नहीं किया सदैव पापों में ही लगा रहा। मैं अपने पुण्य के कर्म को नहीं जानता, यदि तुम मेरे पुण्य के कर्म को जानते हो तो कृपा कर के बताइए तब देवदूत कहने लगा कि मैं सब प्राणियों को भली-भाँति जानता हूँ, तुम नहीं जानते।

सुनो, हरिमित्र का पुत्र सुमित्र नाम का ब्राह्मण था जिसका आश्रम यमुना नदी के दक्षिणोत्तर दिशा में था। उसके साथ जंगल में ही तुम्हारी मित्रता हो गई और उसके साथ तुमने दो बार माघ मास में श्री यमुना जी में स्नान किया था। पहली बार स्नान करने से तुम्हारे सब पाप नष्ट हो गए और दूसरी बार स्नान करने से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ। सो हे वैश्यवर! तुमने दो बार माघ मास में स्नान किया इसी के पुण्य के फल से तुमको स्वर्ग प्राप्त हुआ और तुम्हारा भाई नरक को प्राप्त हुआ। दत्तात्रेय जी कहने लगे कि इस प्रकार वह भाई के दुखों से अति दुखित होकर नम्रतापूर्वक मीठे वचनों से दूतों से कहने लगा कि हे दूतों! सज्जन पुरुषों के साथ सात पग चलने से मित्रता हो जाती है और यह कल्याणकारी होती है। मित्र प्रेम की चिंता न करते हुए तुम मुझको इतना बताने की कृपा करो कि कौन-से कर्म से मनुष्य यमलोक को प्राप्त नहीं होता क्योंकि तुम सर्वज्ञ हो।

माघमास महात्म्य नवाँ/ दसवाँ अध्याय, बुरी योनि में जन्म नहीं पाते माघ स्नान करने वाले

यमदूत कहने लगे मध्यान्ह के समय आया अतिथि, मूर्ख, पंडित, वेदपाठी या पापी कोई भी हो ब्रह्म के समान है। जो रात्रि के थके हुए भूखे ब्राह्मण को अन्न-जल देता है, मध्यान्ह के समय जिसके घर आता हुआ अतिथि निराश नहीं जाता वह स्वर्ग का वासी होता है। अतिथि बराबर कोई धन-सम्पत्ति तथा हित नहीं है। बहुत से राजा और मुनि अतिथि सत्कार से ब्रह्म लोक को प्राप्त हुए हैं।

जो एक समय आलस्य से भी अतिथि को भोजन करा दे वह यमद्वार नहीं देखता। केशरी ध्वज से वैवस्वत देव ने कहा था कि जो कोई इस कर्मभूमि मृत्युलोक से स्वर्गलोक जाने की इच्छा रखता हो वह अन्न का दान करे। दूत कहता है कि यमराज कहते हैं अन्न के बराबर दूसरा ओर कोई दान नहीं है। जो गर्मियों में जल, सर्दी में ईंधन और सदैव अन्न का दान करते हैं, वह कभी यम के दुख नहीं उठाते। जो अपने किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह नर्क को नहीं देखता और प्रायश्चित न करने वाला मनुष्य नरक में जाता है। जो काया, वाचा और मन से किए हुए पापों का प्रायश्चित करता है वह देव और गंधर्वों से शोभित स्वर्गलोक को प्राप्त होता है।

जो नित्य ही व्रत, तप, तीर्थ करते हैं और जितेन्द्रिय हैं वह भयंकर यम को नही देखते हैं। नित्य धर्म करने वाला दूसरे का अन्न, भोजन और दान त्याग दे. नित्य स्नान करने से बड़े-बड़े पाप नाश होकर यम को नहीं देखता. बिना स्नान पवित्रता कैसे हो सकती है? जो मनुष्य पर्व के समय चलते जल में स्नान करते हैं वह बुरी योनि नहीं पाते, न ही नरक में जाते हैं।

माघ मास में प्रात: स्नान करने वाले मनुष्यों को नियमपूर्वक तिल, पात्र और तिल कमल का दान करना चाहिए. यमदूत कहते हैं कि हे विकुंडल! पृथ्वी, सोना, गौ आदि परम दान करने वाला स्वर्ग से नहीं लौटता. बुद्धिमान, पुण्य तिथियों, व्यतिपात, संक्रांति आदि को थोड़ा-सा दान करके भी बुरी गति को नहीं प्राप्त होता. सत्यवादी, मौन रहने वाला, मीठा बोलने वाला, क्षमाशील, नीतिवान, किसी की निंदा न करने वाला, सब प्राणियों पर दया करने वाला, पराये धन को तृण के समान समझने वाला मनुष्य कभी नर्क को नहीं भोगता।
यमदूत कहने लगे कि हे वैश्य! एक बार भी गंगाजी में स्नान करने से मनुष्य सब पापों से छूटकर अत्यंत शुद्ध हो जाता है। जो मनुष्य गंगाजी को दूसरे तीर्थों के समान समझता है वह अवश्य नर्क में जाता है। भगवान के चरणों से उत्पन्न हुई गंगाजी के पवित्र जल को श्रीशिवजी अपने मस्तक में धारण करते हैं। वह ब्रह्मा जो संदेहरहित प्रकृति से अलग और निर्गुण हैं ब्रह्माण्ड में उसकी समानता किससे हो सकती है। गंगाजी का नाम हजारों योजन दूर से ही लेने वाला नर्क में नहीं जाता इसलिए मनुष्य को अवश्यमेव गंगाजी में स्नान करना चाहिए।

हे वैश्य! जो ब्राह्मण दान लेने का अधिकारी होकर भी दान नहीं लेता वह आकाश के नक्षत्रों में चंद्रमा के समान है। जो कीचड़ से गौ को निकालता है, जो रोगी की रक्षा करता है या जो गौशाला में मरता है वह आकाश में तारा होता है। प्राणायाम करने वाले मनुष्य सदैव उत्तम गति को प्राप्त होते हैं। प्रात: समय स्नान के पश्चात जो सोलह प्राणायाम करते हैं । वह घोर पापों से बच जाते हैं। जो पराई स्त्री को माता समान मानते हैं वह यम की यातना को नहीं भोगते।

जो मन से भी कभी पर-स्त्री का चिंतन नहीं करता वह दोनों लोकों को अपने आधीन करता है। जो पराये धन को मिट्टी के समान समझता है वह स्वर्ग में जाता है। जिसने क्रोध को जीत लिया मानो उसने स्वर्ग को ही जीत लिया। जो माता-पिता की सेवा देवता तुल्य करता है वह यमद्वार नहीं देखता और जो गुरु की सेवा करते हैं वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं। शील की रक्षा करने वाली स्त्री धन्य है। शील भंग करने वाली स्त्री यमलोक जाती है। जो वेदों और शास्त्रों को पढ़ते हैं या पुराण और संहिता पढ़ते और सुनते हैं तथा जो स्मृति का व्याख्यान और धर्मशास्त्र समझते हैं या जो वेदांत में लीन रहते हैं वह पापरहित होकर ब्रह्मलोक को प्राप्त होते हैं।

जो अज्ञानियों को वेदशास्त्र का ज्ञान देते हैं वे देवताओं से भी पूजित होते हैं। यमदूत ने कहा कि वैश्य श्रेष्ठ यमराज ने हमको वही आज्ञा दे रखी है कि तुम किसी वैष्णव को मेरे पास मत लाओ। हे वैश्य्! पापी लोगों को इस संसार रुपी नर्क को पार करने के लिए भगवान की भक्ति के सिवाय दूसरा ओर कोई उपाय नहीं। भगवान की भक्ति न करने वाले मनुष्य को चांडाल के समान समझना चाहिए।

भगवान के भक्त अपने माता-पिता दोनों के कुलों को तार देते हैं और उनको नर्क में नहीं रहने देते और जो मनुष्य वैष्णव का भोजन करते हैं वे भी भगवान की कृपा से श्रेष्ठ गति को प्राप्त होते हैं। बुद्धिमान को सदैव वैष्णव का अन्न खाना चाहिए। इससे बुद्धि पवित्र होकर मनुष्य पाप नहीं करता।

“गोविंदाय नम:” इस मंत्र का जाप करता हुआ जो मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है वह परम धाम को प्राप्त होता है, इसमें कोई संदेह नहीं है. जो “ऊँ नम: भगवते वासुदेवाय: मनमोनारायण” इस द्वादशाक्षर मंत्र या ऊँ अष्टाक्षर मंत्र का जाप करता है उसके ब्रह्म इत्यादि बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं ।

माघमास महात्म्य ग्यारहवां अध्याय, मनुष्य चक्रवर्ती होता है शालिग्राम को पूजन से

यमदूत कहने लगा कि हे वैश्य! मनुष्य को सदैव शालिग्राम की शिला में तथा वज्र या कीट(गामति) चक्र में भगवान वासुदेव का पूजन करना चाहिए क्योंकि सब पापों का नाश करने वाले, सब पुण्यों को देने वाले तथा मुक्ति प्रदान करने वाले भगवान विष्णु का इसमें निवास होता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला या हरिचक्र में पूजन करता है वह अनेक मंत्रों का फल प्राप्त कर लेता है। जो फल देवताओं को निर्गुण ब्रह्म की उपासना में मिलता है वही फल मनुष्य को भगवान शालिग्राम का पूजन करने से यमलोक को नहीं देखने देता। भगवान को लक्ष्मी जी के पास अथवा वैकुंठ में इतना आनंद नहीं आता जितना शालिग्राम की शिला या चक्र में निवास करने में आता है।

स्वर्ण कमल युक्त करोड़ो शिवलिंग के पूजन से इतना फल नहीं मिलता जितना एक दिन शालिग्राम के पूजन से मिलता है। भक्तिपूर्वक शालिग्राम का पूजन करने से विष्णुलोक में वास करके मनुष्य चक्रवर्ती होता है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार से युक्त होकर भी मनुष्य शालिग्राम का पूजन करने से बैकुंठ में प्रवेश करता है।जो सदैव शालिग्राम का पूजन करते है वह प्रलयकाल तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो दीक्षा, नियम और मंत्रों से चक्र में बलि देता है वह निश्चय करके विष्णुलोक को प्राप्त होता है। जो शालिग्राम के जल से अपने शरीर का अभिषेक करता है वह मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करता है। गंगा, रेवा, गोदावरी सबका जल शालिग्राम में वास करता है। जो मनुष्य शालिग्राम की शिला के सन्मुख अपने पिता का श्राद्ध करता है उसके पितर कई कल्प तक स्वर्ग में वास करते हैं। जो लोग नित्य शालिग्राम की शिला का जल पीते हैं उनके हजारों बार पंचगव्य पीने से क्या प्रयोजन?

यदि शालिग्राम की शिला का जल पिया जाए तो सहस्त्रो तीर्थ करने से क्या लाभ? जहाँ पर शालिग्राम हैं वह स्थान तीर्थ स्थान के समान ही है, वहाँ पर किए गए सम्पूर्ण दान-होम, करोड़ो गुणा फल को प्राप्त होता है। जो एक बूँद भी शालिग्राम का जल पीता है वह माता के स्तनों का दुग्ध पान नहीं करता अर्थात गर्भाशय में नहीं आता। शालिग्राम शिला में जो कीड़े-मकोड़े एक कोस के अंतर पर मरते हैं वह भी वैकुंठ को प्राप्त होते हैं। जो फल वन में तप करने से प्राप्त होता है वही फल भगवान को सदैव स्मरण करने से प्राप्त होता है। मोहवश अनेक प्रकार के घोर पाप करने वाला मनुष्य भी भगवान को प्रणाम करने से नर्क में नहीं जाता। संसार में जितने तीर्थ और पुण्य स्थान हैं, भगवान के केवल नाम मात्र के कारण से प्राप्त हो जाते हैं।

माघमास महात्म्य बारहवां अध्याय, एकादशी व्रत करने वाले को दुख छू तक नहीं सकते

यमदूत कहने लगा कि जो कोई प्रसंगवश भी एकादशी के व्रत को करता है वह दुखों को प्राप्त नहीं होता. मास की दोनों एकादशी भगवान पद्मनाभ के दिन हैं। जब तक मनुष्य इन दिनों में व्रत नहीं करता उसके शरीर में पाप बने रहते हैं। हजारों अश्वमेघ, सैकड़ो वाजपेयी यज्ञ, एकादशी व्रत की सोलहवीं कला के बराबर भी नही हैं। एकादशी के दिन व्रत करने से ग्यारह इंद्रियों से किए सब पाप नष्ट हो जाते हैं। गंगा, गया, काशी, पुष्कर, कुरुक्षेत्र, यमुना, चन्द्रभागा कोई भी एकादशी के तुल्य नहीं है। इस दिन व्रत करके मनुष्य अनायास ही वैकुंठ लोक को प्राप्त करता है। एकादशी को व्रत और रात्रि जागरण करने से माता-पिता और स्त्री के कुल की दस-दस पीढ़ियाँ उद्धार पाती हैं और वह पीताम्बरधरी होकर भगवान के निकट रहते हैं।

बाल, युवा और वृद्ध सब तथा पापी भी व्रत करने से नर्क में नहीं जाते। यमदूत कहता है कि हे वैश्य! मैं सूक्ष्म में तुमसे नरक से बचने का धर्म कहता हूँ। मन, कर्म और वचन से प्राणिमात्र का द्रोह न करना, इंद्रियों को वश में रखना, दान देना, भगवान की सेवा करना, नियमपूर्वक वर्णाश्रम धर्म का पालन करना, इन कर्मों के करने से मनुष्य नरक से बचा रहता है। स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा से मनुष्य गरीब भी हो तो भी जूता, छतरी, अन्न, धन, जल कुछ न कुछ दान देता रहे। दान देने वाला मनुष्य कभी यम की यातना को नही भोगता तथा दीर्घायु और धनी होता है। बहुत कहने से ही क्या अधर्म से ही मनुष्य बुरी गति को प्राप्त होता है। मनुष्य सदैव धर्म के कार्यों से ही स्वर्ग प्राप्त कर सकता है इसलिए बाल्यावस्था से ही धर्म के कार्यों का अभ्यास करना चाहिए.

माघमास महात्म्य तेरहवाँ अध्याय, अपना पुण्य दे भाई को नरक से निकाला

विकुंडल कहने लगा कि तुम्हारे वचनों से मेरा चित्त अति प्रसन्न हुआ है क्योंकि सज्जनों के वचन सदैव गंगाजल के सदृश पापों का नाश करने वाले होते हैं। उपकार करना तथा मीठा बोलना सज्जनों का स्वभाव ही होता है। जैसे अमृत मंडल चंद्रमा को भी ठंडा कर देता है। अब कृपा करके यह भी बतलाइए कि किस प्रकार मेरे भाई का नरक से उद्धार हो सकता है? तब दूत कुछ देर ज्ञान दृष्टि से विचार कर मित्रता रूपी रस्से से बंधा हुआ बोला कि हे वैश्य! यदि तुम अपने भाई के लिए स्वर्ग की कामना करते हो तो जल्दी ही अपने आठ जन्म के पुण्य फल को उसके निमित्त अर्पण कर दो तब विकुंडल ने कहा कि हे दूत! वह पुण्य क्या है और मैने कौन से जन्म में और कैसे किया है, सो सब बतलाओ फिर मैं अपना पुण्य अपने भाई को दे दूंगा।

दूत कहने लगा कि हे वैश्य! सुनो, मैं तुम्हारे पुण्य की सब कथा कहता हूँ। पूर्व समय में मधुवन में शालकी नाम का ऋषि था। वह बड़ा तपेश्वरी, ब्रह्मा के समान तेज वाला था। नवग्रह की तरह उसकी स्त्री रेवती के नौ पुत्र थे। जिनके नाम ध्रुव, शशि, बुध, तार, ज्योतिमान थे। इन पांचों ने गृहस्थाश्रम धारण किया तथा निर्मोह, जितमाय, ध्याननिष्ठ और गुणातग ये चारों सन्यास ग्रहण कर वन में रहने लगे। ये शिखा सूत्र से रहित पत्थर और सोने को समान समझते थे।

जो कोई अच्छा या बुरा उनको अन्न देता वही खा लेते और कोई कैसा ही कपड़ा दे देता उसको ही पहन लेते। सदैव ब्रह्म के ही ध्यान में लगे रहते। इन चारों ने व्रत, शीत, निद्रा और आहार सबको जीत लिया। बस चर-अचर को विष्णु रूप समझते हुए मौन धारण करके संसार में विचरते थे। ये चारो महात्मा तुम्हारे घर आये जब तुमने मध्यान्ह के समय भूखे-प्यासे इनको आंगन में देखा तो तुमने गदगद कंठ से आँखों में आँसू भरकर इनको नमस्कार करके इनका बड़ा आदर-सत्कार किया। इनके चरणों को धोकर बड़े प्रेम से तुम इनसे कहने लगे कि आज मेरे अहोभाग्य हैं।

आज मेरा जन्म सफल हुआ, मुझ पर भगवान प्रसन्न हुए, मैं सनाथ हुआ. मेरे माता, पिता, पत्नी, पुत्र, गौ आदि सभी धन्य हैं जो आज मैंने हरि के सदृश आपके दर्शन किए। सो हे वैश्य! इस प्रकार तुमने श्रद्धा से उनका पूजन किया और चरण धोकर जल को मस्तक से लगाया फिर विधिपूर्वक इनका पूजन करके तुमने इन सन्यासियों को भोजन कराया। इन सन्यासियों ने भोजन करके रात को तुम्हारे घर में विश्राम किया और ब्रह्मा के ध्यान में लीन हो गये। इन सन्यासियों के सत्कार से जो पुण्य तुमको मिला सो मैं भी कहने में असमर्थ हूँ क्योंकि सब भूतों में प्राणी श्रेष्ठ है।

प्राणियों में बुद्धि वाले, बुद्धि वालों में मनुष्य, मनुष्यों में ब्राह्मण, विद्वानों में पुण्यात्मा और पुण्यात्मों में ब्रह्मज्ञानी सर्वश्रेष्ठ हैं।ऎसी ही संगति से बड़े-बड़े पाप नष्ट हो जाते हैं। यह पुण्य तुमने अपने पहले आठवें जन्म में किया था सो यदि तुम अपने भाई को नरक से मुक्त कराना चाहते हो तो यह पुण्य दे दो। सो दूत के ऐसे वाक्य सुनकर उसने प्रसन्नचित्त से अपना पुण्य अपने भाई कुंडल को दे दिया और वह नरक से मुक्त हो गया और दोनो भाई देवताओं से पूजित किए गए तब दूत अपने स्थान को चला गया।

इस प्रकार वैश्य के पुत्र विकुंडल ने अपना पुण्य देकर अपने भाई को नरक की यातना से छुड़वाया। सो हे राजन! जो कोई इस इतिहास को पढ़ता या सुनता है वह हजार गोदान का फल प्राप्त करता है।

माघमास महात्म्य चौदहवां अध्याय, कपिला गाय के दान का फल मिलता है माघ स्नान से

कार्तवीर्य जी बोले कि हे विप्र श्रेष्ठ! किस प्रकार एक वैश्य माघ स्नान के पुण्य से पापों से मुक्त होकर दूसरे के साथ स्वर्ग को गया सो मुझसे कहिए तब दत्तात्रेय जी कहने लगे कि जल स्वभाव से ही उज्जवल, निर्मल, शुद्ध, मलनाशक और पापों को धोने वाला है। जल सब प्राणियों का पोषण करने वाला है, ऐसा वेदों ने कहा है। मकर के सूर्य माघ मास में गौ के पैर डूबने योग्य जल से भी स्नान करने से मनुष्य स्वर्ग को प्राप्त होता है। यदि सारा मास स्नान करने से अशक्त हो तो तीन दिन ही स्नान करने से पापों का नाश होता है। जो व्यक्ति थोड़ा ही दान करे वह भी धनी और दीर्घायु होता है। पांच दिन स्नान करने से चंद्रमा के सदृश शोभायमान होता है इसलिए अपना शुभ चाहने वालों को माघ से बाहर स्नान करना चाहिए।

अब माघ में स्नान करने वालों के नियम कहता हूँ. अधिक भोजन का उपयोग नहीं करना चाहिए, भूमि पर सोना चाहिए, भगवान की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए। ईंधन, वस्त्र, कम्बल, जूता, कुंकुम, घृत, तेल, कपास, रुई, वस्त्र तथा अन्न का दान करना चाहिए। दूसरे की अग्नि न तपे, ब्राह्मणों को भोजन कराए और उनको दक्षिणा दे तथा एकादशी के नियम से माघ स्नान का उद्यापन करे। भगवान से प्रार्थना करें कि हे देव! इन स्नान का मुझको यथोक्त फल दीजिए। मौन रहकर मंत्र का उच्चारण करे फिर भगवान का स्मरण करें. जो मनुष्य श्री गंगाजी में माघ में स्नान करते हैं वे चार हजार युग तक स्वर्ग से नहीं गिरते। जो कोई माघ मास में गंगा और यमुना का स्नान करता है वह प्रतिदिन हजार कपिला गौ के दान का फल पाता है।

माघ मास महात्म्य पंद्रहवाँ अध्याय

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि हे राजन! प्रजापति ने पापों के नाश के लिए प्रयाग तीर्थ की रचना की. सफेद (गंगाजी) और काली(यमुनाजी) के जल की धारा में स्नान का माहात्म्य भली प्रकार सुनो. जो इस संगम में माघ मास में स्नान करता है वह गर्भ योनि में नहीं आता. भगवान विष्णु की दुर्गम माया माघ में प्रयाग तीर्थ पर सब नष्ट कर देती है. माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से मनुष्य अच्छे भोगों को भोगकर ब्रह्म को प्राप्त होता है. माघ मास तथा मकर के सूर्य में जो प्रयाग में स्नान करता है उसके पुण्यों की गिनती चित्रगुप्त भी नहीं कर सकता. सौ वर्ष तक निराहार रहकर जो पुण्य प्राप्त होता है वही फल माघ मास में तीन दिन प्रयाग में स्नान करने से होता है, जो फल सौ वर्ष तक योगाभ्यास करने से मिलता है.

जैसे सर्प पुरानी केंचुली को छोड़कर नया रुप ग्रहण कर लेता है वैसे ही माघ मास में स्नान करने से मनुष्य पापों को छोड़कर स्वर्ग को प्राप्त होता है परंतु गंगा-यमुना के संगम में स्नान करने से हजारों गुना फल मिलता है. हे राजन! जिसको अमृत कहते हैं वह यह त्रिवेणी ही है. ब्रह्मा, शिव, रुद्र, आदित्य, मरुतगण, गंधर्व, लोकपाल, यक्ष, गुह्यक, किन्नर, अणिमादि गुणों से सिद्ध, तत्वज्ञानी, ब्रह्माणी, पार्वती, लक्ष्मी, शची, नैना, दिति, अदिति, सम्पूर्ण देव पत्नियाँ तथा नागों की स्त्रियों, घृताचीं, मेनका, उर्वशी, रम्भा, तिलोत्तमा, अप्सरा गण और सब पितर, मनुष्य गण कलियुग में गुप्त और सतयुगादि में प्रत्यक्ष सब देवता माघ मास में स्नान करने के लिए आते हैं.

इन दिनों माघ मास में प्रयाग में स्नान करने से जो फल मिलता है वह ईश्वर ही कह सकता है, मनुष्य में कहने की शक्ति नहीं है. हजारों अश्वमेघ यज्ञ करने से भी यह फल प्राप्त नहीं होता. पूर्व समय में कांचन मालिनी ने इस स्नान का फल राक्षस को दिया था और इससे वह पापी मुक्त हो गया था.

माघ मास महात्म्य सोलहवाँ अध्याय, जब इंद्र ने प्रयाग में स्नान कर धोए अपन पाप

कार्तवीर्य कहने लगा कि हे भगवान! वह राक्षस कौन था? और कांचन मालिनी कौन थी? उसने अपना धर्म कैसे दिया और उनका साथ कैसे हुआ। हे ऋषि! अत्रि ऋषि की संतानों के सूर्य! यह कथा सुनाकर मेरा कौतूहल दूर कीजिए तब दत्तात्रेयजी कहने लगे कि राजन इस पुरातन विचित्र इतिहास को सुनो – कांचन मालिनी नाम की एक सुंदर अप्सरा थी जो माघ मास में प्रयाग में स्नान करके कैलाश पर जा रही थी तब उसको मार्ग में जाते हुए हिमालय के कुंज से एक घीर राक्षस ने देखा।

उस सोने जैसे तेज वाली, सुंदर कटि वाली, बड़े-बड़े नेत्रों वाली, चंद्रमुखी, सुंदर केश और पीनपयोधर वाली सुंदर अप्सरा को देखकर उस राक्षस ने कहा कि हे सुंदरी, कमलनयनी तुम कौन हो और कहाँ से आ रही हो? तुम्हारे वस्त्र और वेणी भीगी हुई क्यों है? तुम आकाश मार्ग से कहाँ जाती हो और किस पुण्य के प्रताप से तुम्हारा शरीर ऐसा तेजस्वी और रूप ऎसा मनोहर है। तुम्हारे गीले वस्त्र से मेरे मस्तक पर गिरे हुए एक बूँद जल से मेरे क्रूर मन को एकदम शांति प्राप्त हो गई, इसका क्या कारण है? तुम बड़ी शीलवती प्रतीत होती हो, इसका कारण मुझसे कहिए।

अप्सरा ने कहा कि हे राक्षस! सुनो मैं काम रूपिणी अप्सरा हूँ। मैं प्रयाग में संगम में स्नान करके आ रही हूँ, इसी से मेरे वस्त्र भीगे हैं। अब कैलाश पर जा रही हूँ जहाँ पर श्री शिव निवास करते हैं। त्रिवेणी के जल से मेरी सब क्रूरता दूर हो गई। जिसके पुण्य के प्रभाव से मैं इतनी सुंदर और पार्वतीजी की प्रिय सखी हुई।जो आश्चर्य देने वाला उदाहरण मुझसे ब्रह्माजी ने कहा था सो सुनो!

मैं कलिंग देश के राजा की वेश्या थी, रुप लावण्य और सुंदरता में अपूर्व थी। मेरी सुंदरता पर सारा नगर मोहित था और मैंने अनेकों प्रकार के भोग भोगे, अनेक प्रकार के वस्त्र और आभूषणों की घर में कोई कमी नहीं थी। कई कामी पुरुष आपस में स्पर्धा ही से मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस तरह उस नगर में बड़ी सुंदरता से यौवन व्यतीत हुआ और मैं वृद्धावस्था को प्राप्त हो गई तब मेरे मन में विचार उत्पन्न हुआ कि मैंने अपनी सारी आयु पापों में ही व्यतीत कर दी। धर्म का कोई कार्य दान, तप, यज्ञ आदि नहीं किया, शिव या दुर्गाजी की आराधना नहीं की, न कभी भगवान विष्णु का पूजन किया।

इस प्रकार अशांत चित्त से मैंने एक ब्राह्मण की शरण ली जो वेदों का ज्ञाता और ब्रह्मनिष्ठ था। मैंने उनसे पूछा कि मेरा निस्तार किस प्रकार हो सकता है। महाराज, साधु-सज्जन अच्छे और बुरे सभी पर दया करते हैं। इसलिए मुझ दीन पर भी कृपा करके मुझ कीचड़ में डूबी हुई को पकड़कर उबारिए। क्षीर सागर क्या हंस को ही दूध देता है बत्तख को नहीं देता । तब वह ब्राह्मण राजा का पुरोहित इन सब बातों को सुनकर मुझ पर दया करके कहने लगा कि तू ब्रह्मा के क्षेत्र (प्रयाग) में जाकर माघ मास में त्रिवेणी संगम में स्नान कर परंतु मन में अशुभ क्रिया का विचार नहीं करना।

पापों के नाश के लिए महर्षियों ने तीर्थ स्थान से अधिक और कोई प्रायश्चित नहीं बतलाया। प्रयाग में स्नान करने से तू अवश्य पवित्र होकर स्वर्ग को जाएगी। हे भामिनी! पुराने समय में गौतम ऋषि की स्त्री को देखकर इंद्र ने काम के वशीभूत होकर कपट वेश में उससे भोग किया था इसलिए ऋषि द्वारा श्राप दिया गया और उसका शरीर अत्यंत लज्जायुक्त हजारों भगों वाला हो गया तब इंद्र नीचा मुंह करके अपने पाप कर्म की बुराई कराने लगा।
मेरु पर्वत के शिखर पर स्वच्छ जल वाले सरोवर पर एक स्वर्ण कमल से भरे हुए कोटर में घुस गया और अपने पाप को धिक्कारता हुआ काम देव की बुराई करने लगा कि यह सब पापों का मूल है।इसके ही वशीभूत होकर मनुष्य नरक में जाते हैं और अपने धर्म, कीर्त्ति, यश और धैर्य का नाश करते हैं।

इंद्र ऎसा सोच रहा था सो इंद्र के बिना सारा देवलोक शोभाहीन हो गया तब देवता, गंधर्व, किन्नर, लोकपाल इंद्राणि के सहित बृहस्पतिजी से जाकर पूछने लगे कि महाराज इंद्र के न रहने से स्वर्ग ऐसा शोभाहीन हो गया है जैसे सत पुत्र के बिना श्रेष्ठ कुल। इसलिए स्वर्ग की शोभा के लिए कोई क्रिया सोचिए। इस विषय में देर नहीं लगानी चाहिए तब बृहस्पति जी कहने लगे कि इंद्र ने बिना सोचे-विचारे जो कर्म किया है उसका फल भोग रहा है । सो वह कहाँ है मैं यह सब जानता हूँ। फिर गुरुजी ने सबको साथ लेकर स्वर्ण कमलों से युक्त बड़े सरोवर में इंद्र को देखा जिसका मुख मलीन और आँखें बंद थी।

तब इंद्र ने बृहस्पतिजी के चरणों को पकड़कर कहा कि इस पाप से उद्धार करके आप मेरी रक्षा कीजिए तब बृहस्पतिजी ने इंद्र से कहा कि प्रयाग में स्नान करने से ही तुम पाप मुक्त हो जाओगे तब इंद्र सहित सबने ही प्रयाग में जाकर संगम में स्नान किया और त्रिवेणी स्नान से इंद्र पापमुक्त हो गए ।तब बृहस्पतिजी ने इंद्र को वरदान दिया कि तुम्हारे शरीर में जितने भग हैं सब नेत्र हो जाएँ। तब इंद्र ब्राह्मण के वर से हजार नेत्रों से ऎसा सुशोभित हुआ जैसे मानसरोवर में कमल शोभायमान होता है।

माघमास महात्म्य सत्रहवां अध्याय, राक्षस को भी माघ स्नान से मिला मोक्ष

अप्सरा कहने लगी कि हे रा़क्षस! वह ब्राह्मण कहने लगा कि इंद्र इस प्रकार अपनी अमरावती पुरी को गया। सो हे कल्याणी! तुम भी देवताओं से सेवा किए जाने वाले प्रयाग में माघ मास में स्नान करने से निष्पाप होकर स्वर्ग में जाओगी, सो मैंने उस ब्राह्मण के यह वचन सुनकर उसके पैरों में पड़कर प्रणाम किया और घर में आकर सब भाई-बांधव, नौकर-चाकर धनादिक त्यागकर शरीर को नष्ट होने वाली वस्तु समझकर घर से निकली और माघ में गंगा-यमुना के संगम पर जाकर स्नान किया।

सो हे निशाचर! तीन दिन के स्नान से मेरे सब पाप नष्ट हो गए और सत्ताइस दिन के पुण्य से मैं देवता हो गई और पार्वतीजी की सखी होकर सुख से निवास करती हूँ। इसलिए मैं प्रयाग के माहात्म्य को याद करके सब देवताओं के सहित माघ में प्रयाग स्नान करती हूँ। सो मैंने अपना यह सब वृत्तांत तुमसे कहा। तुम भी इस योनि में पड़ने और कुरुप होने का सब कारण कहो। तुम्हारी दाढ़ी और मूँछे बहुत बड़ी-बड़ी हो गई हैं और पार्वती की गुफा में वास करते हो।

निशाचर कहने लगा कि हे भद्रे! सज्जनों से गुप्त बात कहने में भी कोई हानि नहीं होती। मुझको अब कोई संशय नहीं रहा कि मेरा उद्धार तुमसे ही होगा सो मैं अपना सब वृत्तांत तुमसे कहता हूँ। मैं काशी में वेदों का ज्ञाता था और बड़े उच्च कुल के ब्राह्मण के घर में जन्म लिया था। मैंने राजा, पापी, शूद्र तथा वैश्यों से अनेक प्रकार के दान लिए।मैंने दान लेने में चांडाल को भी नहीं छोड़ा। उस जन्म में मैंने कोई भी धर्म नहीं किया।वहीं पर ही मृत्यु को प्राप्त हो गया। तीर्थ स्थान पर मरने के कारण नर्क में नहीं गया। पहले दो बार गिद्ध योनि में, तीन बार व्याघ्र योनि में, दो बार सर्प योनि में, एक बार उल्लू की योनि में और अब दसवीं बार राक्षस हुआ हूँ और सैकड़ो वर्षों से इसी योनि में हूँ।

इस स्थान को तीन योजन तक मैंने जंतुहीन कर दिया है। बिना अपराध के बहुत से प्राणियों को मैंने नष्ट किया। इस कारण मेरा मन अत्यंत दुखी है। तुम्हारे दर्शन से चित्त में कुछ शांति अवश्य आई है । क्योंकि सज्जनों का संग तुरंत ही सुखदायी होता है। मैंने अपने दुख के कारण आपसे कहे और सज्जन लोग सदैव दूसरे के दुखों से दुखी होते हैं। अब यह बताओ कि इस दुख रुपी समुद्र को कैसे पार कर सकता हूँ. क्या क्षीर सागर हंस को ही दूध देता है, बगुले को नहीं देता?

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार उसके वचन सुनकर कांचन मालिनी कहने लगी कि हे राक्षस! मैं अवश्य तुम्हारा कल्याण करुंगी। मैंने दृढ़ प्रतिज्ञा की है कि तुम्हारी मुक्ति के लिए प्रयत्न करूँगी। मैंने बहुत बार प्रयाग में स्नान किया है। वेद जानने वाले ऋषियों ने दुखी को दान देने की प्रशंसा की है।समुद्र में जल बरसने से क्या लाभ? प्रयाग में स्नान करने का एक बार का फल मैं तुझे देती हूँ। उसी से तुमको स्वर्ग की प्राप्ति होगी। उसके फल का अनुभव मैं कर चुकी हूँ तब उस अप्सरा ने अपने गीले वस्त्र का जल निचोड़कर जल को हाथ में लेकर माघ स्नान के फल को उस राक्षस को अर्पण किया।उसी समय पुण्य प्राप्त वह राक्षसी शरीर को छोड़कर तेजमय सूर्य के सदृश देवता रूप हो गया।

आकाश में विमान पर चढ़कर अपनी कांति से चारों दिशाओं को प्रकाशित करता हुआ शोभायमान हुआ और कहने लगा कि ईश्वर ही जानता है तुमने कितना उपकार मुझ पर किया है। अब भी कृपया कुछ शिक्षा दो जिससे मैं कभी पाप न करूँ।
अब मैं तुम्हारी आज्ञा पाकर स्वर्ग में जाऊँगा तब कांचन मालिनी ने कहा कि सदैव धर्म की सेवा करो, काम रूपी शत्रु को जीतो, दूसरे के गुण तथा दोषों का वर्णन मत करो। शिव और वासुदेव का पूजन करो, इस देह का मोह मत करो, पत्नी, पुत्र, धनादि की ममता त्यागो, सत्य बोलो, वैराग्य भाव धारण कर योगी बनो। मैंने तुमसे यह धर्म के लक्षण कहे, अब तुम देवता रूप होकर शीघ्र ही स्वर्ग को जाओ।

दत्तात्रेयजी कहने लगे कि इस प्रकार गंधर्वों से शोभित वह राक्षस कांचन मालिनी को नमस्कार करके स्वर्ग को गया और देव कन्याओं ने वहाँ आकर कांचन मालिनी पर पुष्पों की वर्षा की और प्रेमपूर्वक कहा कि हे भद्रे! तुमने इस राक्षस का उद्धार किया। इस दुष्ट के डर से कोई भी इस वन में प्रवेश नहीं करता था। अब हम निडर होकर विचरेंगी। इस प्रकार कांचन मालिनी उस राक्षस का उद्धार करके प्रेम पूर्वक देव कन्याओं से क्रीड़ा करते हुए शिव लोक को गई।

माघ मास महात्म्य अठारहवां अध्याय, अपनों कुलों को भी तारते हैं माघ मास में गंगा स्नान करने वाले

श्री वशिष्ठ ऋषि कहने लगे कि हे राजन! मैंने दत्तात्रेयजी द्वारा कहा माघ मास माहात्म्य कहा, अब माघ मास के स्नान का फल सुनो। हे परंतप! माघ स्नान सब यज्ञों, व्रतों का और तपों का फल देने वाला है। माघ मास में स्नान करने वाले स्वयं तो स्वर्ग में जाते ही हैं उनके माता और पिता दोनों के कुलों को भी स्वर्ग प्राप्त होता है। जो माघ मास में सूर्योदय के समय नदी आदि में स्नान करता है उसके माता-पिता के सात कुलों की पीढ़ी स्वर्ग को प्राप्त होती है। माघ मास में स्नान करने वाले दुराचारी और कुकर्मी मनुष्य भी पापों से मुक्त हो जाते हैं और इस मास में हरि का पूजन करने वाले पाप समुदाय से छूटकर भगवान के सदृश शरीर वाले हो जाते हैं। यदि कोई आलस से भी माघ में स्नान करता है उसके भी सब पाप नष्ट हो जाते हैं. जैसे गंधर्व कन्याएँ राजा के श्राप से भयंकर कल को भोगती हुई लोमश ऋषि के वचन से माघ में स्नान करने से पापों से छूट गईं.

यह वार्ता सुनकर राजा दिलीप विनय से पूछने लगा कि गुरुदेव! ये कन्याएँ किसकी थीं, उनको कब और कैसे श्राप मिला, उनके नाम क्या थे, ऋषि के वाक्य से कैसे श्राप मुक्त हुईं और उन्होंने कहाँ पर स्नान किया। आप विस्तारपूर्वक सब कथा कहिए। वशिष्ठजी कहने लगे हे राजा! जैसे अरणि से स्वयं अग्नि उत्पन्न होती है,वैसे ही यह कथा धर्म और संतान उत्पन्न करती है। हे राजन! सुख संगीत नामक गंधर्व की कन्या का नाम विमोहिनी था, सुशीला तथा स्वर वेदी की सुम्बरा, चंद्रकांत की सुतारा तथा सुप्रभा की कन्या चंद्रका ये पाँच सब समान आयु वाली तथा चंद्रमा के समान कांति वाली और सुंदर थीं। जैसे रात्रि को चंद्रमा शोभायमान होता है वैसे ही पुष्प की कलियों के समान खिली हुई यह अप्सराएँ थी।

ऊँचे पयोधर वाली पद्मनी वैशाख मास की कामिनी यौवन दिखाती हुई नवीन पत्तों वाली लता के सदृश, गोरे रंग, सोने के सदृश चमकती हुई और सोने के अलंकारों से सुशोभित, सुंदर वस्त्र धारण किए हुए अनेक प्रकार के गाने और वीणा अथवा बांसुरी तथा दूसरे बाजे बजाने में प्रवीण और ताल, स्वर तथा नृत्य कला में निपुण थी। इस प्रकार वे कन्याएँ क्रीड़ा करती हुई कुबेर के स्थान में विचरती थीं। एक समय कौतुकवश माघ मास में एक वन से दूसरे वन में विचरती हुई मंदिर के पुष्प तोड़कर सरोवर पर गौरी पूजा के लिए गईं। स्वच्छ जल के सरोवर में स्नान करके वस्त्र धारण कर, मौन हो, बालू मिट्टी की गौरी बनाकर चंदन, कपूर, कुंकुम और सुंदर कमलों से उपचार सहित पूजन करके ये पाँचों कन्याएँ ताल नृत्य करने लगी फिर ऊँचे गांधार स्वर में सुंदर गीत गाने लगी।

जब ये कन्याएँ नाचने और गाने में लीन थी तो उस समय अच्छोद नामक उत्तम तीर्थ में वेदनिधि नाम के मुनि के पुत्र अग्निप ऋषि स्नान को गए। वह युवा ऋषि सुंदर मुख, कमल सदृश नयन, विशाल छाती, सुंदर भुजाओं वाला, दूसरे कामदेव के समान था। शिखा सहित दंड लिए, मृगचर्म ओढ़े, यज्ञोपवीत धारण किए हुए था। उसको देखकर पाँचों कन्याएँ मुग्ध हो गई और उसका रूप व यौवन देखकर कामदेव से पीड़ित हो देखो-देखो ऎसा कहती हुई उस ब्राह्मण के चित्त में कामदेव का डर उत्पन्न करने लगी और आपस में विचार करने लगी कि यह कौन है। रति रहित होने से कामदेव नहीं और एक होने से अश्विनी कुमार नहीं। यह कोई गंधर्व या किन्नर या कामरुप धारण कर कोई सिद्ध या किसी ऋषि का श्रेष्ठ पुत्र या मनुष्य है। कोई भी हो ब्रह्माजी ने इसको हमारे लिए बनाया है।

जैसे पूर्व कर्म के प्रभाव से सम्पत्ति प्राप्त होती है वैसे ही गौरीजी ने हम कुमारियों के लिए श्रेष्ठ वर दिया है और आपस में यह तुम्हारा वर है या मेरा अथवा सबका ऎसा कहने लगी। जिस समय उस ऋषि पुत्र ने अपनी मध्यान्ह की क्रिया करके ऎसे वचन सुने तो वह सोचने लगा कि यह तो बहुत बड़ी समस्या उत्पन्न हो गई। ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता तथा बड़े योगीश्वर भी स्त्रियों के भ्रमजाल में मोहित हो गए हैं। इनके तीक्ष्ण बाणों से किसका मनरूपी हिरण घायल नही हो सकता। जब तक नीति और बुद्धि रहती है तब तक पाप से भय रहता है।जब तक की गंभीरता रहती है यम विधि का पालन होता है, तब तक मनुष्य स्त्रियों के कामरुपी बाणों से बींधा नहीं जाता।

ये मुझे उन्मत्त और मुग्ध कर रही हैं। किन गुणों से धर्म की रक्षा हो सकती है।स्त्रियों के मांस, रक्त, मल, मूत्र से बने घृणित और अशुद्ध शरीर में कामी लोग ही सुंदरता की कल्पना करके रमन कर सकते हैं। शुद्ध बुद्ध वाले महात्माओं ने स्त्रियों के पास रहना कष्टकारक कहा है सो जब तक यह पास आए घर चले चलना चाहिए। अत: जब तक वह उसके पास आईं वह योग बल के द्वारा अंतर्ध्यान हो गया।

ऋषि पुत्र के ऎसे अद्भुत कर्म देखकर वह चकित होकर डरी हुई चारों ओर देखने लगी और आपस में कहने लगीं कि यह क्या इंद्रजाल था जो देखते-देखते विलीन हो गया और वह विरहा की अग्नि में जलने लगी और कहने लगी कि हे कांत! तुम हमको छोड़कर कहाँ चले गए? क्या तुमको ब्रह्मा ने हमको विरह रूपी अग्नि में जलाने के लिए बनाया था। क्या तुम्हारा चित्त दया रहित है जो हमारा चित्त दुखाकर चले गए। क्या तुमको हमारा विश्वास नहीं, क्या तुम कोई मायावी हो, बिना किसी अपराध के हम लोगों पर क्यों क्रोध करते हो। तुम्हारे बिना हम नहीं जिएंगी।जहाँ पर आप गए हो हमें शीघ्र ले चलो,हमारा संताप हरो और हमें दर्शन दो, सज्जन लोग किसी का नाश नहीं देखते।

माघ मास महात्म्य उन्नीसवां अध्याय, श्राप से पिशाच हुए, ऋषि वशिष्ठ ने मुक्ति दी

वह पाँचों कन्याएँ इस प्रकार विलाप करती हुई बहुत देर प्रतीक्षा करके अपने घर लौटी। जब घर में आईं तो माताओं ने कहा कि इतना विलम्ब तुमने क्यों कर दिया तब कन्याओं ने कहा कि हम किन्नरियों के साथ क्रीड़ा करती हुई सरोवर पर थी और कहने लगी कि आज हम थक गई हैं और जाकर लेट गईं।

वशिष्ठजी कहते हैं कि इस प्रकार आशय को छुपाकर वह विरह की मारी पड़ गईं। उन्होंने घर में आकर किसी प्रकार की क्रीड़ा नहीं की। वह रात्रि उनको एक युग के समान बीती। सूर्यनारायण के उदय होते ही वह अपने-आपको जीवित मानती हुई माताओं की आज्ञा लेकर गौरी-पूजन करने वह कन्याएँ वहाँ पर जाने लगी। उसी समय ब्राह्मण भी स्नान करने के लिए सरोवर पर आया।उसके आने पर कन्याओं ने वाह-वाह किया जैसे कमलिनी प्रात:काल सूर्योदय को देखकर कहती हैं। उसको देखकर उनके नेत्र खुल गए और उस ब्रह्मचारी के पास चली गई।

आपस में एक-दूसरे का हाथ पकड़कर चारों तरफ से उसको घेर लिया और कहने लगी कि मूर्ख उस दिन तू भाग गया था लेकिन आज नहीं भाग सकता। हम लोगों ने तुमको घेर लिया है। ऐसे वचन सुनकर बाहुपाश में बंधे हुए ब्राह्मण ने मुस्कुराकर कहा – तुमने जो कुछ कहा सो ठीक ही है परंतु मैं तो अभी विद्याभ्यास और ब्रह्मचारी हूँ। गुरुकुल में मेरा विद्याभ्यास पूरा नहीं हुआ है। पंडित को चाहिए कि जिस आश्रम में रहे उसके धर्म का पालन करें। इस आश्रम में मैं विवाह करना धर्म नहीं समझता। अपने व्रत का पालन करके और गुरु की आज्ञा पाकर ही विवाह कर सकता हूँ, उससे पहले नहीं कर सकता।

यह बात सुनकर वह कन्याएँ इस प्रकार बोली जैसे वैशाख मास में कोयल बोलती है। वह कहने लगी कि धर्म से अर्थ और अर्थ से काम और काम से धर्म के फल का प्रकाश होता है। ऐसा ही पंडित लोग और शास्त्र कहते हैं। हम काम सहित धर्म की अधिकता से आपके पास आई हैं। सो आप पृथ्वी के सब भोगों को भोगिए। उस ब्राह्मण ने कहा कि तुम्हारा वचन सत्य है किंतु मैं अपने व्रत को समाप्त करके ही विवाह कर सकता हूँ, पहले नहीं कर सकता तब वे कन्याएँ कहने लगी कि तुम मूर्ख हो। अनोखी औषधि, ब्रह्म बुद्धि, रसायन सिद्धि, अच्छे कुल की सुंदर नारियाँ तथा मंत्र जिस समय प्राप्त हों तब ही ग्रहण कर लेना चाहिए।कार्य को टालना अच्छा नहीं होता।

केवल भाग्य वाले पुरुष ही प्रेम से पूर्ण, अच्छे कुल से उत्पन्न स्वयं वर चाहने वाली कन्याओं को प्राप्त होते हैं। कहाँ हम अनोखी नारियाँ, कहाँ आप तपस्वी बालक। यह बेमेल का मेल मिलाने में विधाता की चतुराई ही है। इस कारण आप हम लोगों के साथ गंधर्व विवाह कर लें। इनके ऎसे वचन सुनकर उस धर्मात्मा ब्राह्मण ने कहा कि व्रती रहकर इस समय विवाह नहीं करुंगा। मैं स्वयंवर की इच्छा नहीं करता। इस प्रकार उसके वचन सुनकर उन्होंने एक-दूसरे का हाथ छोड़कर उसको पकड़ लिया। सुशील और सुरस्वरा ने उसकी भुजाओं को पकड़ लिया। सुतारा ने आलिंगन किया और चंद्रिका ने उसका मुख चूम लिया । परंतु फिर उसने क्रोधित होकर उनको श्राप दिया कि तुम डायन की तरह मुझसे चिपटी हो इस कारण पिशाचिनी हो जाओ।

ऐसे श्राप देने पर वह उसको छोड़कर अलग खड़ी हो गई। उन्होंने कहा कि हम निरपराधियों को वृथा क्यों श्राप दिया। तुम्हारी इस धर्मज्ञता पर धिक्कार है।

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