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Madam Bhikaji Cama Biography: भीकाजी कामा जिन्होंने सबसे पहले लहराया भारतीय तिरंगा

Bhikaji Cama Ka Jivan Parichay: भीकाजी का विवाह 1885 में एक प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से हुआ। रुस्तमजी ब्रिटिश समर्थक थे, जबकि भीकाजी की सोच स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में थी।

AKshita Pidiha
Written By AKshita Pidiha
Published on: 18 Dec 2024 5:10 PM IST
Madam Bhikaji Cama Biography Wikipedia
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Madam Bhikaji Cama Biography Wikipedia 

Madam Bhikaji Cama Biography Wikipedia: भीकाजी कामा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की ऐसी महान नेता थीं, जिन्होंने न केवल भारत में बल्कि विदेशी धरती पर भी स्वतंत्रता की अलख जगाई। उनका पूरा नाम भीकाजी रुस्तम कामा था। उन्हें ‘भारतीय राष्ट्रीय ध्वज की मां’ के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि उन्होंने पहली बार भारत का तिरंगा झंडा फहराया था। उनका जीवन संघर्ष, सेवा, और देशभक्ति की मिसाल है।

प्रारंभिक जीवन

भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर, 1861 को मुंबई (तब बंबई) में हुआ था। उनका परिवार एक संपन्न पारसी परिवार था। उनके पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल एक प्रसिद्ध व्यापारी थे, जो ब्रिटिश शासन के समर्थक थे। लेकिन भीकाजी का झुकाव ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर था।


शिक्षा के क्षेत्र में भीकाजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि की धनी थीं। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा एलेक्जेंड्रा गर्ल्स इंग्लिश इंस्टिट्यूशन में पूरी की। उनकी शिक्षा ने उनके व्यक्तित्व को आकार दिया और उन्हें सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों के प्रति जागरूक बनाया।

विवाह और राजनीतिक विचारधारा

भीकाजी का विवाह 1885 में एक प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से हुआ। रुस्तमजी ब्रिटिश समर्थक थे, जबकि भीकाजी की सोच स्वतंत्रता आंदोलन के पक्ष में थी।


वैचारिक मतभेद के कारण उनके वैवाहिक जीवन में सामंजस्य नहीं था और उन्होंने अपना अधिकांश समय समाजसेवा और राजनीतिक गतिविधियों में व्यतीत किया।

स्वतंत्रता संग्राम में प्रवेश

भीकाजी कामा का स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से योगदान 1896 में शुरू हुआ। उसी वर्ष, मुंबई में प्लेग महामारी फैली थी। भीकाजी ने स्वयंसेवक के रूप में बीमार लोगों की सेवा की। लेकिन इस दौरान वे भी प्लेग से संक्रमित हो गईं। ठीक होने के बाद उन्हें आराम के लिए यूरोप भेजा गया।


यूरोप पहुंचने के बाद भीकाजी का संपर्क कई भारतीय क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं से हुआ। पेरिस, लंदन और जिनेवा जैसे शहरों में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्थन जुटाने और ब्रिटिश सरकार के खिलाफ प्रचार करने का काम शुरू किया।

भारतीय राष्ट्रीय ध्वज का निर्माण

1905 में स्टटगार्ट, जर्मनी में आयोजित अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में भीकाजी कामा ने पहली बार भारत का तिरंगा झंडा फहराया। इस ध्वज को ‘भारतीय स्वतंत्रता का झंडा’ कहा गया। यह झंडा हरे, केसरिया और लाल रंग का था, जिसमें सात सितारे सप्तर्षि का प्रतीक थे। इसमें ‘वन्दे मातरम’ लिखा हुआ था।


यह ध्वज भारत के स्वतंत्रता संग्राम में प्रेरणा का प्रतीक बन गया।बर्लिन कमेटी का झंडा ऐतिहासिक दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह 1947 में अपनाए गए भारतीय तिरंगे का एक अग्रदूत माना जाता है।

आज का भारतीय ध्वज

आज भारत का राष्ट्रीय ध्वज तिरंगा है, जिसे पिंगली वेंकैया ने डिज़ाइन किया था। इस ध्वज में तीन रंगों के साथ बीच में नीले रंग का अशोक चक्र है। हालांकि, 1947 से पहले भारतीय ध्वज के स्वरूप में कई बार बदलाव किए गए।


जर्मनी में पहली बार जो भारतीय ध्वज फहराया गया था, वह भी तीन रंगों का था। लेकिन वह आज के तिरंगे जैसा नहीं था।

यूरोप में स्वतंत्रता आंदोलन

यूरोप में रहते हुए भीकाजी कामा ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए जोरदार प्रचार किया। उन्होंने क्रांतिकारी साहित्य तैयार किया और इसे गुप्त रूप से भारत भेजा। पेरिस में उन्होंने ‘वन्दे मातरम् ‘ नामक एक पत्रिका की शुरुआत की, जो भारतीय स्वतंत्रता के विचारों को प्रसारित करती थी।

भीकाजी का पेरिस स्थित घर भारतीय क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया था। यहां से वे ब्रिटिश सरकार के खिलाफ रणनीतियां बनाते और क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते।

ब्रिटिश सरकार से संघर्ष

भीकाजी के क्रांतिकारी कार्यों से ब्रिटिश सरकार खफा थी। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की नीतियों की तीखी आलोचना की और भारतीय स्वतंत्रता की मांग की।


उनकी गतिविधियों के चलते ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत वापस आने से रोक दिया। इसके बावजूद भीकाजी ने अपनी गतिविधियां जारी रखीं।

प्रेरणास्रोत और सहयोगी

उनके जोशीले भाषण ने भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के विनाशकारी प्रभावों को उजागर किया, जिसमें अकाल और आर्थिक शोषण शामिल थे।भीकाजी कामा कई महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से प्रभावित थीं और उनके सहयोगी भी थीं। वे दादा भाई नौरोजी, श्यामजी कृष्ण वर्मा, विनायक दामोदर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों के साथ काम करती थीं। उन्होंने उन भारतीयों को प्रेरित किया, जो विदेशों में रहते हुए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए योगदान देना चाहते थे।

आर्थिक कठिनाइयां और त्याग

अपने जीवन के अंतिम वर्षों में भीकाजी कामा आर्थिक कठिनाइयों से घिर गईं। उन्होंने अपनी संपत्ति और जीवन स्वतंत्रता आंदोलन के लिए समर्पित कर दिया था।


1935 में ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत लौटने की अनुमति दी। वह बीमार थीं और अपने अंतिम समय में मुंबई में ही रहीं।

मृत्यु और विरासत

भीकाजी कामा का निधन 13 अगस्त, 1936 को मुंबई में हुआ। भीकाजी कामा ने विदेशी धरती पर भारत के स्वतंत्रता संग्राम की मशाल जलाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका प्रभाव अंतर्राष्ट्रीय समुदाय तक फैला, जहां उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए यूरोपीय सरकारों पर दबाव बनाने के लिए लगातार काम किया।

अपने ऐतिहासिक कदम के बाद, कामा ने व्यापक रूप से यात्रा करते हुए भारत की दुर्दशा के बारे में जागरूकता बढ़ाई। उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी और राष्ट्र निर्माण में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर दिया।

ब्रिटिश अधिकारियों ने भीकाजी कामा को एक बार चेतावनी दी थी कि उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों में भागीदारी उन्हें भारत से स्थायी रूप से निर्वासन की ओर ले जा सकती है। 1909 में, जब मदनलाल धींगरा ने सर विलियम हट कर्जन वायली की हत्या कर दी, जो कि भीकाजी कामा द्वारा जर्मनी में अपने साहसिक कदम उठाने के ठीक दो साल बाद हुआ था, ब्रिटिश सरकार ने कई भारतीय कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया, जिनमें भीकाजी कामा भी शामिल थीं।


उन्होंने भारत में उनकी संपत्तियां ज़ब्त कर लीं और फ्रांस से उन्हें प्रत्यर्पित करने की कोशिश की। हालांकि, श्रीमती कामा अडिग रहीं और असाधारण साहस के साथ अपनी प्रतिरोधी गतिविधियों को जारी रखा।

दिलचस्प बात यह है कि एक महिला न केवल अपनी मान्यताओं को व्यक्त करने के लिए उत्सुक थी, बल्कि बदलाव लाने के लिए दृढ़ नायक भी थी, श्रीमती कामा ने लंदन में सावरकर की गिरफ्तारी के बाद उनको भगाने की योजना बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके मुकदमे के दौरान, उन्होंने फ्रांस में उनके रिहाई के लिए एक आंदोलन शुरू किया।

उनका साहस तब भी कायम रहा जब सावरकर को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और उन्होंने ब्रिटिश विरोध का सामना करते हुए अपने देश को मुक्त करने के प्रयासों को जारी रखा।

करीब 33 वर्षों के निर्वासन के बाद, श्रीमती भीकाजी कामा को अंततः भारत लौटने की अनुमति मिल गई। मुंबई पहुंचने के नौ महीने बाद, 1936 में उनका निधन हो गया। अपनी वसीयत में, उन्होंने अपनी अधिकांश संपत्ति अवाबाई पेटिट ट्रस्ट को दान करने का निर्णय लिया, जो अनाथ लड़कियों की मदद करता था।

भीकाजी कामा के योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में गहरे और व्यापक थे। भारतीय राष्ट्रीयता की एक प्रेरणादायक समर्थक के रूप में, उन्होंने भारत के लिए समर्थन जुटाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी, और यह कार्य वे सीमा पार भी करते रहे।


यूरोप में रहते हुए, उन्होंने भारतीय प्रवासियों के साथ संपर्क स्थापित किया और उपनिवेशवाद का विरोध करने वाले अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सहयोगियों की तलाश की।

उनके योगदान अक्सर इतिहास में अनदेखे रहे। लेकिन श्रीमती भीकाजी कामा भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में साहस और समर्पण की एक स्थायी प्रतीक बनीं। उन्होंने जो ध्वज डिजाइन किया, वह न केवल एक राष्ट्र की आकांक्षाओं का प्रतीक था, बल्कि यह उनके इस विश्वास को भी दर्शाता था कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए सभी भारतीयों का एकजुट होना अत्यंत आवश्यक था।

भीकाजी कामा का यह कदम वास्तव में जोखिम भरा था। उस समय, ब्रिटिश शासन के खिलाफ किसी भी प्रकार का विरोध करना गंभीर परिणामों को आमंत्रित कर सकता था। फिर भी, वह अडिग रहीं, क्योंकि उनका मानना था कि भारत की दुर्दशा के बारे में जागरूकता फैलाना स्वतंत्रता के लिए समर्थन जुटाने के लिए बेहद जरूरी था।यह साहसिक प्रदर्शन केवल ब्रिटिश सत्ता को चुनौती देना ही नहीं था, बल्कि विदेशों में रहने वाले भारतीयों को एकजुट करने और देश में लोगों को प्रेरित करने का भी उद्देश्य था।

भीकाजी कामा का जीवन स्वतंत्रता संग्राम के प्रति निस्वार्थ समर्पण का उदाहरण है। उन्होंने न केवल अपनी संपत्ति बल्कि अपना पूरा जीवन भारत को स्वतंत्र कराने के लिए समर्पित कर दिया। उनका नाम भारतीय इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में लिखा गया है, और वे आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी रहेंगी।



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