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Shayar Mirza Galib Biography: खुद को आधा मुसलमान कहने वाले गालिब कभी हुआ करते थे बहादुर शाह जाफ़र के गुरु, आइए जानते हैं उनके जीवन को

Mashoor Shayar Mirza Galib Ki Kahani: मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान , जिन्हें हम मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते हैं, का जीवन काफी सारी कठिनाइयों से भरा रहा, जो उनकी शायरी में भी परिलक्षित होता है। आइए जानते हैं उनके जीवन को करीब से।

Akshita Pidiha
Written By Akshita Pidiha
Published on: 15 Feb 2025 4:15 PM IST
Mashoor Shayar Mirza Galib Ki Kahani in Hindi
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Mashoor Shayar Mirza Galib Ki Kahani in Hindi (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Mirza Ghalib Kon The: उर्दू और फारसी के महानतम शायरों में से एक, मिर्ज़ा ग़ालिब (Mirza Ghalib) का नाम आते ही उनकी शायरी की गूंज कानों में बस जाती है। उनके अशआर (शेर) जीवन के गहरे अनुभवों और दार्शनिकता का प्रतिबिंब हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब केवल एक शायर नहीं थे, बल्कि एक युग का प्रतिनिधित्व करने वाले दार्शनिक भी थे। उनकी शायरी में प्रेम, दर्शन, संघर्ष और अस्तित्व की जटिलताओं का गहरा प्रभाव दिखता है। यह लेख मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन, उनके साहित्यिक योगदान और उनकी कालजयी शायरी की गहराई में उतरने का प्रयास करेगा।

मिर्ज़ा असदुल्लाह बेग ख़ान (Mirza Asadullah Beg Khan), जिन्हें हम मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम से जानते हैं, का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। वे एक प्रतिष्ठित तुर्की परिवार से संबंध रखते थे। उनके पिता अब्दुल्लाह बेग ख़ान मुग़ल सेना में एक महत्वपूर्ण पद पर थे, लेकिन जब ग़ालिब केवल 5 साल के थे, तब उनके पिता का निधन हो गया। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके चाचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग ने किया, लेकिन जल्द ही उनका भी देहांत हो गया।

इस प्रकार, ग़ालिब ने बचपन से ही संघर्षों का सामना किया। छोटी उम्र में ही उन्होंने अपनी जिम्मेदारियों को समझा और जीवन को गहरे स्तर पर अनुभव किया, जो उनकी शायरी में भी परिलक्षित होता है।

शादी और व्यक्तिगत जीवन (Mirza Ghalib Wife And Personal Life)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

मिर्ज़ा ग़ालिब का विवाह मात्र 13 वर्ष की आयु में उमराव बेगम से हुआ, जो एक कुलीन मुग़ल परिवार से थीं। हालांकि, यह विवाह उनके जीवन में कोई विशेष सुख नहीं ला सका।उनकी सात संतान हुई पर कोई भी जीवित नहीं रह सकी। जिसके बाद उनके कोई संतान नहीं थी, और इस कमी का दर्द उनकी शायरी में स्पष्ट रूप से झलकता है।

ग़ालिब का जीवन कठिनाइयों से भरा रहा। वे आर्थिक तंगी से गुजरते रहे और शाही दरबार से भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। उन्होंने दिल्ली में अपना जीवन व्यतीत किया और यहीं पर उन्होंने अपनी कालजयी शायरी (Mirza Ghalib Shayari) की रचना की।

ग़ालिब और इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएँ

ग़ालिब के जीवनकाल में भारत के इतिहास में कई महत्वपूर्ण घटनाएँ घटीं। उनके समय में मुगल साम्राज्य पतन की ओर था और अंग्रेजों का प्रभुत्व बढ़ता जा रहा था। उन्होंने 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को भी करीब से देखा और अपने लेखन में उस समय की सामाजिक स्थिति का जिक्र किया। ग़ालिब के समय में दिल्ली में क्रांतिकारी बदलाव हो रहे थे, और उन्होंने अपने अनुभवों को अपनी शायरी और पत्रों में व्यक्त किया।

जब नाम के साथ जुड़ गया ‘मिर्ज़ा’

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

‘बहादुर शाह ज़फर द्वितीय’ ने अपने शासनकाल में मिर्ज़ा ग़ालिब को “दबीर-उल-मुल्क” (Dabeer-ul-Mulk) और “नज्म-उद-दौला” (Najm-ud-Daulah) के शाही खिताब से नवाजा था। वहीं, बाद में उन्हें “मिर्ज़ा नौशा” की उपाधि से सम्मानित किया गया, जिसके बाद से ग़ालिब के नाम के आगे ‘मिर्ज़ा’ शब्द जुड़ गया।

‘बहादुर शाह ज़फर द्वितीय’ के रहे शिक्षक

मिर्ज़ा गालिब ‘बहादुर शाह ज़फर द्वितीय’ के दरबार के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक थे। वहीं, खुद भी शायरी का शौक रखने वाले बहादुर शाह ज़फर द्वितीय ने काव्य सीखने के उद्देश्य से वर्ष 1854 में मिर्ज़ा ग़ालिब को अपना शिक्षक नियुक्त किया था। इसके बाद वह बादशाह के पुत्र ‘फखरूदीन मिर्ज़ा’ के भी शिक्षक रहे। शिक्षण के साथ ही ग़ालिब ने मुग़ल दरबार में शाही इतिहासविद के रूप में भी कार्य किया था।

शराब के शौकीन थे ग़ालिब

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

मिर्ज़ा ग़ालिब को शराब पीने का बेहद शौक था। वे महंगी अंग्रेजी शराब पसंद करते थे और इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। एक मशहूर किस्सा यह है कि एक बार ग़ालिब को शराब नहीं मिली, तो वे नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद चले गए। तभी उनका एक शागिर्द शराब की बोतल लेकर आया और दिखाया। ग़ालिब ने तुरंत नमाज़ छोड़कर बोतल की ओर कदम बढ़ाए। जब किसी ने टोका कि बिना नमाज़ पढ़े कहाँ जा रहे हैं, तो उन्होंने मजाकिया लहज़े में कहा,

"जिस चीज़ के लिए दुआ माँगनी थी, वो तो खुदा ने वैसे ही भेज दी!"

जब ग़ालिब ने कहा था, "आधा मुसलमान हूँ"

1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेज दिल्ली में मुसलमानों की धर-पकड़ कर रहे थे। इसी दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब को भी गिरफ्तार कर अंग्रेज अफसर कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया गया। अंग्रेज अफसर ने पूछा तो उन्होंने बताया था कि मैं शराब पीता हूं, लेकिन सूअर नहीं खाता हूं। इसलिए मैं आधा मुसलमान हूं। मुसलमान होने के बावजूद गालिब ने कभी रोजा नहीं रखा था। वह खुद को आधा मुसलमान कहते थे।

ग़ालिब की आर्थिक तंगी और नवाबी शौक

मिर्ज़ा ग़ालिब की रईसी के चर्चे आम थे, लेकिन उनकी नवाबी शौक ने उन्हें भारी कर्जदार बना दिया था। उनके ऊपर करीब 40,000 रुपये का कर्ज हो गया था, जो उस जमाने में बहुत बड़ी रकम मानी जाती थी।

कर्ज न चुकाने की वजह से एक बार ग़ालिब को गिरफ्तार भी कर लिया गया। उन्हें छह महीने के लिए जेल की सजा सुनाई गई थी। बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने उन्हें छुड़वाने की कोशिश की, लेकिन अंग्रेजों का शासन होने की वजह से वह कुछ कर नहीं पाए। ग़ालिब ने खुद जुगाड़ करके तीन महीने बाद जेल से छुटकारा पाया।

साहित्यिक यात्रा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

शायरी में विशेषता - मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी केवल प्रेम और सौंदर्य का वर्णन भर नहीं थी, बल्कि इसमें जीवन के गहरे अनुभव और दार्शनिक विचार भी समाहित थे। उन्होंने प्रेम, वेदना, अस्तित्व, नियति और ईश्वर पर विस्तृत चिंतन किया। उनकी शायरी की विशेषताएँ इस प्रकार हैं:-

दार्शनिकता– उनकी शायरी में जीवन और मृत्यु, सुख-दुःख, नियति और ईश्वर के प्रति गहरी समझ देखने को मिलती है।

प्रेम और वेदना– उनकी ग़ज़लों में प्रेम केवल भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक और आध्यात्मिक रूप में प्रकट होता है।

व्यंग्य और हास्य– ग़ालिब की शायरी में व्यंग्य और कटाक्ष का भी अनूठा प्रयोग है, जिससे उनकी शैली अलग पहचान रखती है।

नवाचार– उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नई ऊँचाई दी और उसे गहराई और व्यापकता प्रदान की।

उनका एक प्रसिद्ध शेर इस बात को सिद्ध करता है:-

"हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,

बहुत निकले मेरे अरमां लेकिन फिर भी कम निकले।"

सिर्फ़ शायर नहीं, एक बेहतरीन ख़त-निगार भी

ग़ालिब के लिखे ख़त इतने प्रभावशाली थे कि उन्हें पढ़कर ऐसा लगता था जैसे वह पाठक से सीधा संवाद कर रहे हों। उनके पत्रों में भावनाओं, हास्य और व्यंग्य का ऐसा मिश्रण मिलता है, जो उन्हें बेहद ख़ास बनाता है। कई साहित्यकार मानते हैं कि अगर ग़ालिब ने ग़ज़लें न लिखी होतीं, तो भी उनके ख़त ही उन्हें अमर कर देते।

ग़ालिब की प्रमुख रचनाएँ (Mirza Ghalib Ki Rachnaye)

मिर्ज़ा ग़ालिब ने मुख्य रूप से उर्दू और फारसी में लिखा। उनकी प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं:-

दीवान-ए-ग़ालिब– यह उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना है, जिसमें उनकी बेहतरीन ग़ज़लें संकलित हैं।

उर्दू और फारसी पत्रों का संकलन– ग़ालिब के पत्र भी साहित्यिक धरोहर हैं, जिनमें उस समय की सामाजिक स्थिति झलकती है।

नसीहते ग़ालिब– इसमें उनके विचारों और उपदेशों का संकलन मिलता है।

ग़ालिब और मुग़ल दरबार

मिर्ज़ा ग़ालिब को मुग़ल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र के दरबार में एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। वे शाही कवि थे और उन्हें "दबीर-उल-मुल्क" और "नज़्म-उद-दौला" की उपाधियाँ दी गईं। हालांकि, उन्हें वह आर्थिक सुरक्षा नहीं मिल सकी, जिसकी उन्हें अपेक्षा थी।

1857 के विद्रोह के बाद मुग़ल सल्तनत का पतन हो गया, जिससे ग़ालिब की स्थिति और अधिक कठिन हो गई। उन्होंने इस समय की सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल को अपनी शायरी में प्रतिबिंबित किया।

ग़ालिब की शायरी के कुछ प्रसिद्ध शेर

- "दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त, दर्द से भर न आए क्यूँ,

रोएंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताए क्यूँ।"

- "इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।"

- "बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे,

होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे।"

ग़ालिब का जन्मस्थल: आगरा का ऐतिहासिक महत्व

मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म आगरा में हुआ था, और आज उनके जन्मस्थान को "इन्द्रभान कन्या अंतर महाविद्यालय" के नाम से जाना जाता है।जिस कमरे में ग़ालिब ने जन्म लिया था, उसे आज भी सुरक्षित रखा गया है। यह स्थान साहित्य प्रेमियों और इतिहासकारों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यही वह जगह थी जहाँ से उर्दू शायरी के इस बेमिसाल सितारे का सफर शुरू हुआ था।

दिल्ली की गली बल्लीमारां का नाम आज भी ग़ालिब के बिना अधूरा लगता है। ग़ालिब का अधिकतर जीवन यहीं बीता और उनकी हवेली आज भी उनकी यादों को संजोए हुए है। यह जगह उनके चाहने वालों के लिए किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है।

ग़ालिब और मुग़ल जान: एक अधूरी मोहब्बत

ग़ालिब की ज़िंदगी में कई कहानियाँ हैं, लेकिन उनकी मोहब्बत की एक दास्तान "मुग़ल जान" नाम की एक मशहूर गायिका से जुड़ी हुई थी। उस दौर में गाने-बजाने वाली महिलाओं के पास जाना आम बात थी और इसे बुरा नहीं माना जाता था। ग़ालिब को मुग़ल जान से बेहद लगाव था, लेकिन वे यह भी जानते थे कि यह मोहब्बत कभी मुकम्मल नहीं हो सकती।

ग़ालिब के लिए मुग़ल जान सिर्फ़ एक प्रेमिका नहीं, बल्कि एक कल्पना और अधूरा ख्वाब थी। उन्होंने अपनी मोहब्बत को कभी ज़ाहिर नहीं किया, लेकिन यह ज़रूर जानते थे कि यह रिश्ता कभी मुकम्मल नहीं हो सकता।

ग़ालिब की मृत्यु

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

मिर्ज़ा ग़ालिब का जीवन आर्थिक संघर्षों में बीता, लेकिन उनकी शायरी अमर हो गई। 15 फरवरी 1869 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों के दिलों में बसी हुई हैं। उनकी शायरी का प्रभाव आज भी उर्दू साहित्य में देखा जा सकता है।

उर्दू अदब में ग़ालिब का स्थान सर्वोपरि है। उनकी ग़ज़लों को बड़े-बड़े गायकों ने गाया, साहित्यकारों ने उनकी व्याख्या की और फिल्म, नाटक तथा साहित्य में उनके कार्यों को सराहा गया।

मिर्ज़ा ग़ालिब केवल एक शायर नहीं थे, बल्कि एक दार्शनिक, आलोचक और युग दृष्टा थे। उनकी शायरी हमें जीवन के गहरे अर्थों से परिचित कराती है। उन्होंने अपने अशआरों के माध्यम से प्रेम, वेदना, संघर्ष और जीवन के गूढ़ सत्य को व्यक्त किया।

उनकी शायरी का जादू आज भी कायम है, और उनकी रचनाएँ पाठकों को प्रेरित करती हैं। वे न केवल उर्दू साहित्य के स्तंभ हैं, बल्कि विश्व साहित्य के भी एक अमूल्य रत्न हैं।

"कोई उम्मीद बर नहीं आती,

कोई सूरत नजर नहीं आती।"



Shreya

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