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Mata Anjani Ki Katha: पिछले जन्म में अप्सरा थीं हनुमानजी की माता अंजनी

Mythological Story In Hindi: हनुमान जी की माता अंजनी के बारे में तो आप सब जानते ही होंगे। लेकिन क्या ये जानते हैं कि माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं और वह एक श्राप की वजह से बंदर बन गई थीं। आइए जानते हैं इस कहानी के बारे में।

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Published on: 25 Feb 2025 7:00 AM IST (Updated on: 25 Feb 2025 7:00 AM IST)
Mata Anjani Ki Katha: पिछले जन्म में अप्सरा थीं हनुमानजी की माता अंजनी
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Mata Anjani Ki Katha (फोटो साभार- सोशल मीडिया)

Hanuman Ke Janam Ki Kahani: माता अंजनी से हनुमान के जन्म की कथा तो सबने सुनी है लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं माता अंजनी इंद्र के दरबार में अप्सरा थीं। जानिए कथा...

इंद्र के दरबार में अप्सरा थीं माता अंजनी (Mata Anjani Ki Katha In Hindi)

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

माता अंजनि पूर्व जन्म में देवराज इंद्र के दरबार में अप्सरा पुंजिकस्थला थीं। बालपन में वे अत्यंत सुंदर और स्वभाव से चंचल थी एक बार अपनी चंचलता में ही उन्होंने तपस्या करते एक तेजस्वी ऋषि के साथ अभद्रता कर दी।

गुस्से में आकर ऋषि ने पुंजिकस्थला को श्राप दे दिया कि जा तू वानर की तरह स्वभाव वाली वानरी बन जा, ऋषि के श्राप को सुनकर पुंजिकस्थला ऋषि से क्षमा याचना मांगने लगी,तब ऋषि ने दया दिखाई और कहा कि तुम्हारा वह रूप भी परम तेजस्वी होगा। तुमसे एक ऐसे पुत्र का जन्म होगा जिसकी कीर्ति और यश से तुम्हारा नाम युगों-युगों तक अमर हो जाएगा, इस तरह अंजनि को वीर पुत्र का आशीर्वाद मिला।

विस्तृत कथा

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

ऋषि के श्राप से त्रेता युग में अंजनि को नारी वानर के रूप में धरती पर जन्म लेना पड़ा। इंद्र की हजारों सुंदर अप्सरा में से एक थीं अंजनि यानी अप्सरा पुंजिकस्थला।

इंद्र ने जब उन्हें मनचाहा वरदान मांगने को कहा, तब उन्होंने हिचकिचाते हुए उनसे कहा कि उन पर एक तपस्वी साधु का श्राप है, अगर हो सके तो उन्हें उससे मुक्ति दिलवा दें। इंद्र ने कहा कि वह उस श्राप के बारे में बताएं, क्या पता वह उस श्राप से उन्हें मुक्ति दिलवा दें।

तब पुंजिकस्थला ने बताया, किशोरावस्था में जब मैं खेल रही थी तो मैंने एक वानर को तपस्या करते देखा, मेरे लिए यह एक बड़ी आश्चर्य वाली घटना थी, इसलिए मैंने उस तपस्वी वानर पर फल फेंकने शुरू कर दिए, बस यही मेरी गलती थी क्योंकि वह कोई आम वानर नहीं बल्कि एक तपस्वी साधु थे।

मैंने उनकी तपस्या भंग कर दी और क्रोधित होकर उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मुझे किसी से प्रेम होगा तो मैं वानर बन जाऊंगी। मेरे बहुत गिड़गिड़ाने और माफी मांगने पर उस साधु ने कहा कि मेरा चेहरा वानर होने के बावजूद उस व्यक्ति का प्रेम मेरी तरफ कम नहीं होगा।’

अपनी कहानी सुनाने के बाद पुंजिकस्थला ने कहा कि अगर इंद्र देव उन्हें इस श्राप से मुक्ति दिलवा सकें तो वह उनकी बहुत आभारी होंगी। इंद्र देव ने उन्हें कहा कि इस श्राप से मुक्ति पाने के लिए धरती पर जाकर वास करना होगा, जहां वह अपने पति से मिलेंगी। शिव के अवतार को जन्म देने के बाद अंजनि को इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।

इंद्र की बात मानकर पुंजिकस्थला अंजनि के रूप में धरती पर चली आईं, उस शाप का प्रभाव शिव के अंश को जन्म देने के बाद ही समाप्त होना था। वह एक शिकारन के तौर पर जीवन यापन करने लगीं। जंगल में उन्होंने एक बड़े बलशाली युवक को शेर से लड़ते देखा और उसके प्रति आकर्षित होने लगीं, जैसे ही उस व्यक्ति की नजरें अंजनि पर पड़ीं, अंजनि का चेहरा वानर जैसा हो गया।

अंजनि जोर-जोर से रोने लगीं, जब वह युवक उनके पास आया और उनकी पीड़ा का कारण पूछा तो अंजनि ने अपना चेहरा छिपाते हुए उसे बताया कि वह बदसूरत हो गई हैं। अंजनि ने उस बलशाली युवक को दूर से देखा था लेकिन जब उसने उस व्यक्ति को अपने समीप देखा तो पाया कि उसका चेहरा भी वानर जैसा था।

अपना परिचय बताते हुए उस व्यक्ति ने कहा कि वह कोई और नहीं वानर राज केसरी हैं जो जब चाहें इंसानी रूप में आ सकते हैं। अंजनि का वानर जैसा चेहरा उन दोनों को प्रेम करने से नहीं रोक सका और जंगल में केसरी और अंजना (अंजनि) ने विवाह कर लिया।

केसरी और अंजना ने विवाह कर लिया पर संतान सुख से वंचित थे। अंजना अपनी इस पीड़ा को लेकर मतंग ऋषि के पास गईं, तब मंतग ऋषि ने उनसे कहा- पंपा सरोवर के पूर्व में नरसिंह आश्रम है, उसकी दक्षिण दिशा में नारायण पर्वत पर स्वामी तीर्थ है वहां जाकर उसमें स्नान करके, बारह वर्ष तक तप एवं उपवास करने पर तुम्हें पुत्र सुख की प्राप्ति होगी।

अंजना (अंजनि) ने मतंग ऋषि एवं अपने पति केसरी से आज्ञा लेकर तप किया था बारह वर्ष तक केवल वायु पर ही जीवित रही, एक बार अंजना ने “शुचिस्नान” करके सुंदर वस्त्राभूषण धारण किए। तब वायु देवता ने अंजना की तपस्या से प्रसन्न होकर उस समय पवन देव ने उसके कान में प्रवेश कर उसे वरदान दिया, कि तुम्हारे यहां सूर्य, अग्नि एवं सुवर्ण के समान तेजस्वी, वेद-वेदांगों का मर्मज्ञ, विश्वन्द्य महाबली पुत्र होगा।

इस आशीष के बाद वे शिव की आराधना और तपस्या में लीन रही। तब प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वरदान मांगने को कहा, अंजना ने शिव को कहा कि साधु के श्राप से मुक्ति पाने के लिए उन्हें शिव के अवतार को जन्म देना है, इसलिए शिव बालक के रूप में उनकी कोख से जन्म लें।

‘तथास्तु’ कहकर शिव अंतर्ध्यान हो गए। इस घटना के बाद एक दिन अंजना शिव की आराधना कर रही थीं और दूसरी तरफ अयोध्या में अयोध्या के महाराज दशरथ, अपनी तीन रानियों के कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी साथ पुत्र रत्न की प्राप्ति के लिए, श्रृंगी ऋषि को बुलाकर 'पुत्र कामेष्टि यज्ञ' के साथ यज्ञ कर रहे थे।

यज्ञ की पूर्णाहुति पर स्वयं अग्नि देव ने प्रकट होकर श्रृंगी को खीर का एक स्वर्ण पात्र (कटोरी) दिया और कहा "ऋषिवर! यह खीर राजा की तीनों रानियों को खिला दो। राजा की इच्छा अवश्य पूर्ण होगी।" जिसे तीनों रानियों को खिलाना था लेकिन इस दौरान एक चमत्कारिक घटना हुई, एक पक्षी उस खीर की कटोरी में थोड़ी सी खीर ले गया और तपस्या में लीन अंजना के हाथ में गिरा दिया। अंजना ने शिव का प्रसाद समझकर उसे ग्रहण कर लिया।

तब हनुमान जी (वानर मुख वाले हनुमान जी) का जन्म त्रेता युग में अंजना के पुत्र के रूप में, चैत्र शुक्ल की पूर्णिमा की महानिशा में हुआ। अंजना (अंजनि) के पुत्र होने के कारण ही हनुमान जी को आंजनेय नाम से भी जाना जाता है जिसका अर्थ होता है 'अंजना द्वारा उत्पन्न'। उनका एक नाम पवन पुत्र भी है। जिसका शास्त्रों में सबसे ज्यादा उल्लेख मिलता है। शास्त्रों में हनुमानजी को वातात्मज भी कहा गया है,वातात्मज यानी जो वायु से उत्पन्न हुआ हो। इस तरह माता अंजनि ने सिर्फ बजरंगबली को जन्म देने के लिए पृथ्वी पर अवतरण लिया था।

(साभार- सोशल मीडिया/परमात्म-चिंतन)



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