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Motivational Story : भगवान श्रीराम ने किया था अहिल्या का उद्धार,जानिए कंहा है वह स्थान
Motivational Story : भगवान श्रीराम ने जब अपनी चरणधूलि से अहिल्या का उद्धार किया उस समय अहिल्या ने यही कहा कि प्रभु !
भगवान श्रीराम ने जब अपनी चरणधूलि से अहिल्या का उद्धार किया उस समय अहिल्या ने यही कहा कि प्रभु !
मेरा मन भ्रमर विषय का रस लेने के लिए भटक गया था।
अब मैं यही चाहती हूं कि आपके चरण कमल में यह मन भ्रमर मंडराता रहे तथा संसार से अपने आप वैराग्य हो जाए।
इस प्रकार अहिल्या प्रसंग में ज्ञान का तत्व विद्यमान है-
और कर्म सिद्धांत का भी शास्त्र प्रमाण के आधार पर इंद्र बने गौतम को अहिल्या को रोकना चाहिए था कि यह प्रस्ताव आपके चरित्र के अनुकूल नहीं है और भक्ति के दृष्टि से इसमें, भगवान के चरणों में संकेत किया गया है।
गोस्वामीजी को मानस के चार घाटों मे सेदीनघाट सबसे अधिक प्रिय है।
उन्होंने कहा है कि ज्ञानी, भक्त और कर्मयोगी सभी सीताजी के चरित्र से शिक्षा लेते हैं।पर मेरे लिए तो अहल्या का चरित्र सबसे प्रिय है।
किसी ने कहा सबसे पहले सीताजी का स्मरण करना चाहिए कि अहल्या का क्योंकि आपने अपनी नाम-रामायण का श्रीगणेश भी न तो दशरथ से किया, न कौशल्या से और न ही जनकनंदिनी सीता से
बल्कि अहिल्या से किया, तो अहिल्या ही आपको सर्वाधिक वन्दनीय दिखाई पड़ी?
गोस्वामीजी ने कहा कि भाई ! प्रभु जा रहे हैं जनकपुर, जहां प्रभु को जनकनंदिनी सीता की प्राप्ति होगी और श्रीसीता जी वे हैं जिनके चरणों की कृपा से व्यक्ति की बुद्धि निर्मल होती है।
अहिल्या वह है जिसका पातिव्रत नष्ट हो गया जो बुद्धि की प्रतीक है तथा जिसकी बुद्धि धोखा खा चुकी है और श्रीसीताजी बुद्धि को शुद्ध बनाती हैं।
गोस्वामीजी ने ज्यों ही देखा कि श्रीराम विश्वामित्रजी के साथ श्रीसीताजी के नगर की ओर जा रहे हैं,तुरंत मार्ग में खड़े होकर उन्होंने कहा, प्रभु ! बुद्धि तो तब शुद्ध होगी जब वह जड़ से चेतन हो जाए।
इसलिए पहले श्रीसीताजी की प्राप्ति नहीं, अपितु पहले अहिल्या का उद्धार कीजिए।अहिल्या को तारिये, तब जनकपुर की ओर प्रस्थान कीजिए,भगवान ने शबरी को उपदेश देते हुए कहा -
प्रथम भगति संतन कर संगा।
पहले व्यक्ति संतों का संग करे। उसके पश्चात दूसर रति मम कथा प्रसंगा।
फिर मेरी कथा सुने, और फिर मेरी तीसरी भक्ति है गुरुदेव के चरणों की सेवा करना-
गुरु पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान।
अब इस संदर्भ में विचार करके देखें तो अहिल्या न तो सत्संग कर सकती है न भगवान की कथा सुन सकती है और न ही गुरु के चरणों की सेवा कर सकती है।
इस प्रकार अहिल्या में तो एक भी भक्ति नहीं थी। और भगवान ने कहा है जिसमें एक भी भक्ति होती है वह मुझे अत्यंत प्रिय होता है।परंतु जब नौ में से एक भी भक्त नहीं थी फिर प्रश्न यह है कि अहल्या का उद्धार कैसे हुआ ?
इस प्रश्न पर विचार करते समय बहुत सुंदर तथ्य आपके सामने आएंगे वस्तुतः अहल्या का प्रसंग मुख्यतः कृपा का प्रसंग है और उसे एक साधारण से दृष्टांत के द्वारा बड़ी सरलता से समझा जा सकता है।
अगर आप किसी को दान देना चाहे और वह पैर वाला हो, तो आप उसको अपने समीप बुलाएंगे पर यदि वह लंगड़ा है तो आप ही स्वयं, चलकर उसके पास तक जाएंगे।
इसी प्रकार गोस्वामीजी कहते हैं, प्रभु ! जिनके पास साधन का पैर है उनको अपने पास बुलाइए।
पर जो बेचारे साधन की दृष्टि से पंगु हैं उनके पास तो स्वयं आपको ही कृपा करके पहुंचना होगा और अहिल्या-प्रसंग में ठीक यही हुआ भगवान ने सोचा कि अहिल्या सत्संग नहीं कर सकेगी इसलिए स्वयं संत विश्वामित्र को लेकर चले आए।
मानो प्रभु का तात्पर्य था कि चलो भाई तुमने सत्संग नहीं किया तो तुम्हारे बदले मैंने ही सत्संग कर लिया और अहिल्या कथा भी नहीं सुन सकती थी तो भगवान राम ने जब गुरुजी से उस पर्वत शिलाके संदर्भ में पूछा तो विश्वामित्रजी कथा सुनाने लगे और जब अहल्या का चरित्र सुना तो प्रभु गदगद होकर सोचने लगे कि जब मेरी कथा सुनने का इतना फल कहा जाता है,तो फिर मैं जिसकी कथा सुनूँगा उसका भी तो कोई फल होगा, चलो कोई बात नहीं, अहल्या मेरी कथा नहीं सुन सकती, तो मैं ही उसकी कथा सुने ले रहा हूं। '
गुरुपद पंकज सेवा भी अहल्या नहीं कर सकती।
तो भगवान ने गुरुजी से पूछ दिया, मैं क्या करूं गुरुदेव ने तुरंत कह दिया,महाराज यह गौतम की पत्नी आपकी चरणधूल चाहती है मानो जब अहल्या भक्ति नहीं कर सकी, तो भगवान ने अपनी ओर से भक्ति की और जब चौथी भक्तिवाली बात आई तब तक अहल्या चेतन हो गई थी।
भगवान ने कहा, अहल्या ! जब तुम नहीं कर सकती थी, तो तुम्हारे बदले में मैंने किया, अब जब कर सकती हो तो अब तुम करो।तब हम देखते हैं कि चौथी भक्ति है भगवान का गुणगान करना और चेतन होते ही अहल्या तुरंत प्रभु का गुणगान करने लगी।अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ज्ञान गम्य जय रघुराई।