Rana Sanga Ki Kahani: क्या राणा सांगा ने बाबर को भारत बुलाया था, जानिये सच

Rana Sanga And Babur Ki Kahani: क्या बाबर को भारत आने के लिए राणा सांगा ने आमंत्रित किया था, क्या राणा सांगा गद्दार थे...

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 14 April 2025 6:12 PM IST
Rana Sanga-Babur History
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Rana Sanga-Babur History

Rana Sanga-Babur History: किसी भी समाज, सभ्यता व संस्कृति को नष्ट करने का सबसे आसान दो तरीक़े हैं। पहला, उसे उसकी भाषा से विलग कर दें। दूसरा, उसके नायकों, महापुरुषों एवं अस्मिता वाहकों के साथ कोई न कोई ऐसा क्षेपक नत्थी कर दें ताकि विश्वास,आस्था और श्रद्धा की जगह तर्क ले लें।उसे लेकर संशय उत्पन्न हो जाये। यह काम भारत के साथ तब से हो रहा है, जब इसे सोने की चिड़िया कहा जाता था। इन दिनों इस काम के लिए राणा सांगा को चुना गया है। बताया जा रहा है कि उज्जबेकी लुटेरे बाबर को भारत आने का आमंत्रण राणा सांगा ने दिया था। ताकि वह उस समय के दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को पराजित कर सके। बाबर, मंगोल-तुर्क वंश का था। तैमूर और चंगेज खान की संतान था। बाबर ने भारत में मुग़ल साम्राज्य की नींव रखी थी।

आज हम इस झूठ की पड़ताल करते हैं।

राणा सांगा के बारे में (Rana Sanga Ka Itihas)


राणा संग्राम सिंह यानी राणा सांगा। महाराणा प्रताप के पहले के मेवाड़ के सबसे शक्तिशाली शासक। उनका शासनकाल 1509 से 1528 ईस्वी तक रहा। वह न केवल युद्ध कौशल में निपुण थे, बल्कि उन्होंने उत्तर भारत की राजनीति में राजपूतों की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने का प्रयास किया। राणा सांगा का जन्म: 12 अप्रैल, 1482 को हुआ था। पिता का नाम राणा रायमल था। वे सिसोदिया वंश के राजा थे। बचपन से ही राणा सांगा में वीरता और असाधारण नेतृत्व क्षमता थी। युवावस्था में उन्होंने अपने भाइयों से मेवाड़ की गद्दी के लिए संघर्ष किया, जिसमें वे विजयी हुए और 1509 ईस्वी में मेवाड़ के राजा बने। उस समय राणा सांगा की उम्र केवल सत्ताईस साल थी।


हालाँकि मेवाड़ की नींव बप्पा रावल ने गुजरात से आकर रखी थी। राणा सांगा के शासनकाल में मेवाड़ साम्राज्य का विस्तार कई महत्वपूर्ण युद्धों और राजनीतिक संधियों के माध्यम से हुआ। उन्होंने मालवा, गुजरात और दिल्ली सल्तनत के शक्तिशाली मुस्लिम शासकों को पराजित किया। मालवा के शासक महमूद द्वितीय को राणा सांगा बंदी बना कर चित्तौड़ ले आये।

उन्होंने 1519 में गागरोण की लड़ाई में गुजरात और मालवा की संयुक्त मुस्लिम सेनाओं को हराया, जिससे चंदेरी किले और मालवा के अधिकांश हिस्सों पर उनका अधिकार हो गया। राणा सांगा ने इब्राहिम लोदी की सेना को खातोली में 1518 में और धौलपुर में 1518-19 में पराजित किया। जिससे उनकी शक्ति और प्रभाव में वृद्धि हुई। उन्होंने 1517 और 1519 में मालवा के शासक महमूद खिलजी द्वितीय को ईडर और गागरोन की लड़ाइयों में हराया।


उसे दो महीने तक बंधक बनाकर रखा। 1519 में गागरोण की लड़ाई में गुजरात और मालवा की संयुक्त सेना को हरा कर चंदेरी किले और मालवा के अधिकांश हिस्सों पर नियंत्रण कर लिया। राणा सांगा ने गुजरात के सुल्तानों के साथ भी कई युद्ध लड़े, जिससे उनका प्रभाव गुजरात तक फैला। राणा सांगा ने राजपूत राज्यों के साथ संधियाँ की। उन्हें एकजुट करके एक शक्तिशाली हिंदू साम्राज्य का निर्माण किया। अपने साम्राज्य का विस्तार झज्जर, मेवात, और उत्तर भारत के कई क्षेत्रों तक किया।

राणा सांगा की सेना में 80,000 घोड़े, 7 राजा, 9 राव और 104 सरदार शामिल थे, जो विभिन्न राजपूत राज्यों से संगठित थे। उनकी सेना में 500 युद्ध हाथी भी शामिल थे, जो उस समय की एक महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति थी। राणा सांगा की सैन्य रणनीति में घुड़सवार सेना का महत्वपूर्ण योगदान था, जो तेजी से हमला करने में सक्षम थी। उनकी सेना ने बयाना की लड़ाई में भी बाबर की सेना को पराजित किया था। हालांकि, 16 मार्च, 1527 की खानवा की लड़ाई में बाबर की तोपों और तुलगमा रणनीति ने राणा सांगा की सेना को पराजित किया।


अब सवाल उठता है कि आखिर इतने शक्तिशाली शासक को उस इब्राहिम लोदी को हराने के लिए बाबर की ज़रूरत क्यों पड़ी होगी, वह भी तब जबकि इब्राहिम लोदी को वह पहले ही पराजित कर चुके हों। तो जानते हैं इस क्षेपक के हकीकत की शुरुआत कहाँ से होती है। बाबर ने फ़ारसी में लिखी अपनी आत्मकथा तुज़ुक-ए-बाबरी (Baburnama) के पेज संख्या 518-520 (Annette Beveridge संस्करण) पर जो लिखा है उसका अंग्रेज़ी व हिंदी अनुवाद हम आपके सामने रखते हैं -“ When I was at Kabul, Rana Sangha of Mewar and some Afghan chieftains such as Daulat Khan Lodi and Alam Khan, invited me to invade Hindustan. They promised support against Ibrahim Lodi…”

हिंदी अनुवाद:

“जब मैं काबुल में था, उस समय मेवाड़ के राणा साँगा और कुछ अफ़ग़ान सरदारों — जैसे दौलत खाँ लोदी और आलम खाँ — ने मुझे हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने इब्राहीम लोदी के विरुद्ध सहायता का वादा किया।”

स्रोत: (Baburnama – अनुवाद: एनेट एस. बेवरिज, खंड: भारत आगमन के पूर्व के घटनाक्रम)

अपनी बात को पुष्ट करने के लिए बाबर ने अपने चचेरे भाई मिर्ज़ा हैदर की किताब 'तारीख़ ए रशीदी' में भी इस बात का ज़िक्र करवाया कि राणा सांगा का दूत बाबर से मिलने आया था।

क्या था बाबर का मकसद?

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

पर भारतीय इतिहासकार डॉ. आर. सी. मजूमदार, इरफान हबीब और के. ए. नियोगी जैसे इतिहासकारों ने बाबर के इस दावे पर संदेह व्यक्त किया है। उनका तर्क है कि राणा सांगा जैसा आत्मनिर्भर और शक्तिशाली शासक किसी बाहरी आक्रांता को बुलाने की आवश्यकता क्यों महसूस करता? जी.एल. शर्मा ने अपनी किताब ‘ मेवाड़ एंड द मुगल इंपरर्स में लिखा है कि उस समय तक बाबर की एक योद्धा के रुप में ऐसी कोई ख्याति नहीं थी। इसके अलावा राजपूतों के दूसरे राजाओं के पास दूत भेजने की कोई परंपरा नहीं थी। के. एस. लाल और गोविंदराव महालगांवकर जैसे इतिहासकारों का मानना है कि बाबर की यह बात रणनीतिक थी, जिससे वह यह दिखाना चाहता था कि उसका भारत आना आमंत्रण पर आधारित था, न कि खुद की महत्वाकांक्षा।

यही नहीं, राणा सांगा ने मालवा, गुजरात और दिल्ली की सीमाओं तक अपने राज्य का विस्तार किया था। उन्होंने पहले से ही इब्राहिम लोधी को चुनौती दी थी। ऐसे में बाबर को बुलाना, किसी भी तरह से राणा के हित में नहीं था। बल्कि बाबर के आने से राणा का भविष्य संकट में आ गया।

इतिहासकार सतीश चंद्र की किताब मध्यकालीन भारत और आर. सी. मजूमदार की किताब ‘ए अंशिएंट एंड मिडिवल हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ में इस बात का ज़िक्र है कि 1526 की पानीपत की लड़ाई में बाबर ने इब्राहिम लोधी को हराया। इसके बाद 1527 में राणा सांगा ने बाबर से युद्ध किया, जिसे खानवा का युद्ध (Battle of Khanwa) कहा जाता है। यह युद्ध राणा सांगा और बाबर के बीच शत्रुता का प्रमाण है, मित्रता का नहीं। लिहाज़ा भारतीय इतिहासकार इस दावे को राजनीतिक प्रचार या रणनीतिक छल मानते हैं। राणा सांगा ने कभी बाबर को भारत पर हमला करने के लिए आमंत्रित नहीं किया। बल्कि वह बाबर के विरुद्ध एकजुट भारत की अवधारणा का पक्षधर था। खानवा का युद्ध ही इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि राणा सांगा बाबर को विदेशी आक्रांता मानते थे। उसे भारत से बाहर निकालना चाहते थे। राणा सांगा ने बाबर से युद्ध किया- जिससे यह स्पष्ट है कि वे दोनों शत्रु थे, मित्र नहीं। यदि राणा साँगा ने बाबर को आमंत्रित किया होता, तो वह फिर उसके विरुद्ध 1527 में खानवा का युद्ध क्यों करता?

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

खानवा का युद्ध राणा सांगा और बाबर के बीच हुआ, जिसमें राणा सांगा गंभीर रूप से घायल हुए। इतिहासकार सतीश चंद्रा लिखते हैं कि इसी लड़ाई में एक तीर ने राणा सांगा के बायें बाजू के कवच को भेद दिया। पूरे शरीर में ज़हर फैल जाने के भय से राणा सांगा का बायाँ हाथ काटना पड़ा। पर इसके बाद भी एक हाथ से तलवारबाज़ी का कौशल वह करते रहे।

पानीपत में 1526 में बाबर की जीत के बाद से ही, राणा सांगा के साथ उसकी लड़ाई की भूमिका बनने लगी थी। इसी दौर में कई अफ़ग़ान जिनमें इब्राहिम लोदी का छोटा भाई महमूद लोदी भी शामिल था, इस उम्मीद में राणा सांगा के साथ हो लिए कि अगर बाबर के ख़िलाफ़ राणा सांगा की जीत होती है तो शायद दिल्ली की गद्दी महमूद लोदी को वापस मिल जाए। मेवात के राजा हसन ख़ाँ ने भी राणा सांगा का साथ देने का फ़ैसला किया। क़रीब-क़रीब हर राजपूत राजा ने राणा सांगा के समर्थन में अपनी सेना भेजी। विलियम रशब्रूक अपनी किताब 'बाबर: एन एम्पायर बिल्डर ऑफ़ द सिक्सटींथ सेंचुरी' में लिखते हैं, "राणा सांगा की शोहरत और हाल ही में बयाना में मिली जीत ने बाबर के सैनिकों की हिम्मत तोड़ दी थी। अपने सैनिकों का उत्साह बढ़ाने के लिए बाबर ने ऐलान किया कि राणा सांगा के ख़िलाफ़ लड़ाई 'जेहाद' होगी। लड़ाई से पहले उसने शराब के सभी बर्तन तोड़कर यह जताने की कोशिश की कि वो कितना कट्टर मुसलमान है। उसने अपने पूरे राज्य में शराब की ख़रीद-फ़रोख़्त पर प्रतिबंध लगा दिया। अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए बाबर ने एक जोशीला भाषण दिया। “

राणा सांगा के साथ 1527 के ऐतिहासिक युद्ध के लिए बाबर ने आगरा से 40 किलोमीटर दूर खानवा को चुना।

जीएन शर्मा लिखते हैं, "बाबर की सेना में आगे-आगे सामान से लदी गाड़ियों की पंक्ति थी। ये गाड़ियाँ लोहे की ज़ंजीरों से आपस में बंधी हुई थीं जो उसकी सेना के लिए एक तरह से सुरक्षा कवच का काम कर रही थीं। इन गाड़ियों के पीछे तोपें थीं, जो प्रतिद्वंदी को दिखाई नहीं देती थीं। इनके पीछे घुड़सवारों की पंक्तियाँ थीं।, पंक्तियों के बीच में रिक्त स्थान थे, जहाँ से लड़ाके आगे-पीछे जा सकते थे।, इसके बाद हथियारों से लैस पैदल सिपाही थे, सेना के दाएं-बाएं ऐसी बाधाएं खड़ी की गई थीं कि उस तरफ़ से हमले का कोई डर न रहे। एक तरफ़ खाई खोदी गई थी तो दूसरी तरफ़ बड़े-बड़े पेड़ काटकर डाले गए थे।”

शर्मा लिखते हैं, "दूसरी तरफ़ राणा सांगा की सेना को पाँच भागों में बाँटा गया था। सबसे आगे हाथियों की क़तार थी। हाथी का हौदा एक तरह से सुरक्षा कवच था। हाथियों की सूँढ़ पर भी लोहे के कवच पहनाए गए थे। हाथियों के पीछे भालों के साथ घुड़सवार थे। राणा सांगा ख़ुद पहली पंक्ति में एक हाथी पर बैठे थे जिन्हें उनके सभी सैनिक दूर से देख सकते थे। जबकि बाबर अपनी सेना के आगे नहीं, बल्कि बीच में था."

शर्मा लिखते हैं, "वहाँ मौजूद लोगों को आश्चर्य हो रहा था कि राणा सांगा की एक आँख नहीं थी। उनका एक हाथ कटा हुआ था। उनका एक पैर भी काम नहीं कर रहा था। उनके शरीर पर घाव ही घाव लगे थे। लेकिन इसके बावजूद उनकी फ़ुर्ती और उत्साह में कोई कमी नहीं थी।” लेकिन मुग़लों का तोपख़ाना भी भारी तबाही मचा रहा था। धीरे-धीरे राणा सांगा की सेना पीछे हटने लगी।

जीएन शर्मा लिखते हैं, "इस बीच एक तीर राणा सांगा के माथे पर लगा। सांगा बेहोश होकर अपने हौदे में लुढ़क गए। उनके कुछ सिपहसालारों ने उन्हें तुरंत हौदे से उतारकर पालकी में डाला और बाहर की तरफ़ रवाना कर दिया। राणा की सेना ने देखा कि राणा सांगा हाथी पर नहीं हैं। ये देखते ही उनका मनोबल टूट गया। सैनिकों के पाँव उखड़ गए। एक राजपूत सेनानायक अज्जू झाला ने राणा का मुकुट अपने सिर पर रखा और उनके हाथी पर सवार हो गया। लेकिन राजा की अनुपस्थिति का जो बुरा असर होना था वो हो चुका था। राजपूती सेना की हिम्मत टूट गई और वो तितर-बितर हो गई।”

बाबर ने बाबरनामा में लिखा, "इस्लाम के प्रचार के लिए मैं अपना घर-बार छोड़ कर निकला था। इस लड़ाई में मैंने शहीद होना तय कर लिया था। लेकिन ख़ुदा ने मेरी फ़रियाद सुन ली। दोनों सेनाएं थक चुकी थीं। लेकिन तभी राणा सांगा का दुर्भाग्य और मेरा सौभाग्य उछला। सांगा बेहोश होकर गिर गया। उसकी सेना का मनोबल टूट गया। मेरी जीत हुई।”

सतीश चंद्रा ने लिखा, "कहा जाता है कि बाबर के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की उनकी ज़िद उनके दरबारियों को पसंद नहीं आई और उन्होंने उन्हें विष दे दिया। राजस्थान से निकले इस बहादुर व्यक्ति के निधन के साथ आगरा तक फैलने वाले संयुक्त राजस्थान के सपने को बहुत बड़ा धक्का लगा।”

खानवा की लड़ाई ने दिल्ली-आगरा क्षेत्र में बाबर की स्थिति को और मज़बूत कर दिया। इसके बाद उसने ग्वालियर और धौलपुर के क़िले भी जीते और अलवर के बहुत बड़े हिस्से को भी अपने राज्य में मिलाया। सतीश चंद्रा लिखते हैं, "पानीपत की जीत से भारत में मुग़ल शासन की नींव पड़ी । लेकिन इस नींव को मज़बूती प्रदान की खानवा में राणा सांगा के ख़िलाफ़ बाबर की जीत ने।”

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