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Rani Gaidinliu Ki Kahani: साहस, समर्पण और स्वतंत्रता के प्रति अटूट विश्वास का प्रतीक है रानी गाइदिनल्यू का जीवन

Rani Gaidinliu Biography: रानी गाइदिनल्यू की छवि एक साहसी, समर्पित और दृढ़निश्चयी स्वतंत्रता सेनानी की है...

Jyotsna Singh
Published on: 4 March 2025 1:20 PM IST
Rani Gaidinliu Ki Kahani: साहस, समर्पण और स्वतंत्रता के प्रति अटूट विश्वास का प्रतीक है रानी गाइदिनल्यू का जीवन, जानिए क्या है मणिपुर से जुड़ा हरेका आंदोलन का इतिहास?
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Rani Gaidinliu (Photo- Social Media)

Rani Gaidinliu Ka Jivan Parichay: रानी गाइदिनल्यू (Rani Gaidinliu) भारत की एक प्रमुख नागा आध्यात्मिक और राजनीतिक नेता थीं, जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व किया। रानी गाइदिनल्यू की छवि एक साहसी, समर्पित और दृढ़निश्चयी स्वतंत्रता सेनानी की है, जिन्होंने अपने समुदाय और देश के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी वीरता और नेतृत्व ने उन्हें ’नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई’ (Nagaland Ki Rani Laxmibai) के रूप में प्रसिद्धि दिलाई।

पद्म विभूषण जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों के साथ उनकी स्मृति में, भारत सरकार ने 1996 में एक डाक टिकट जारी किया, और 2015 में उनके जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में स्मारक सिक्के भी जारी किए गए। रानी गाइदिल्यु उन कुछ महिला राजनीतिक नेताओं में से एक थीं, जिन्होंने अपने देश के इतिहास के औपनिवेशिक काल में कई बाधाओं का सामना करने के बावजूद असाधारण धैर्य दिखाया।

प्रारंभिक जीवन और हेराका आंदोलन में सहभागिता

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

उनका जन्म 26 जनवरी, 1915 को मणिपुर के नुंगकाओ शहर में लोथोनांग पामेई और काचकलेनलियू के घर हुआ था और वे नुंगकाओ में ही पली-बढ़ीं। किंवदंती है कि एक देवदूत ने गाइदिन्ल्यू की मां को सपने में दर्शन दिए और उन्हें चेतावनी दी कि संतान के रूप में उन्हें एक लड़की होगी, लेकिन उसके जन्म के साथ ही उसकी मृत्यु भी होगी। देवदूत ने कहा कि अगर बच्ची जीवित रही, तो वह असाधारण होगी। यह भविष्यवाणी आखिरकार सच साबित हुई।क्शिक्षा के अवसरों की कमी के कारण गाइदिन्ल्यू को औपचारिक शिक्षा नहीं मिली थी। उनका क्रांतिकारी करियर 1927 में शुरू हुआ जब उन्होंने अपने चचेरे भाई हैपो जादोनांग के साथ मिलकर हेराका आंदोलन का नेतृत्व किया।

मात्र 13 वर्ष की आयु में, वे अपने चचेरे भाई जादोनांग के नेतृत्व में हेराका आंदोलन से जुड़ीं, जिसका उद्देश्य नागा धार्मिक परंपराओं का पुनरुत्थान और ब्रिटिश शासन का विरोध करना था। जादोनांग का दावा था कि उसके पास काबुई के सर्वोच्च व्यक्ति टिंगकाओ रागवांग से चमत्कारी शक्तियां और दिव्य दीक्षा हासिल है। उसे शक्ति द्वारा दी गई पवित्र स्वीकृति के आधार पर और क्षेत्र में बढ़ते जातीय तनाव से प्रेरित होकर, जादोनांग ने नागा हिल्स में एक धार्मिक, आर्थिक और अंततः राजनीतिक आंदोलन शुरू किया।

ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

इस हेराका आंदोलन का लक्ष्य “अंग्रेजों को सत्ता से हटाने के उद्देश्य से आंदोलन को बढ़ाने के लिए पुरानी धार्मिक परंपराओं को बदलना“ था। ज़ेलियानग्रोंग नागाओं के साथ, जादोनांग ने लोकप्रिय सफलता हासिल की, इस हद तक कि अंग्रेजों ने उन्हें मणिपुर के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सत्ता के लिए एक बड़ी चुनौती के रूप में देखा। 1929 और 1931 के बीच जादोनांग के हेराका आंदोलन ने अंग्रेजीराज के लिए कठिनाइयां पैदा की, जब तक कि कछार के डिप्टी कमिश्नर द्वारा जादोनांग की गिरफ्तारी के बाद इसे रोक नहीं दिया गया। जादोनांग का हेराका आंदोलन एक आदिवासी धर्म का पुनरुद्धार था। इसने ज़ेलियानग्रोंग जनजातियों (ज़ेमे, लियांगमाई और रोंगमेई) के बड़ी संख्या में अनुयायियों को आकर्षित किया।

जादोनांग को कुछ मणिपुर व्यापारियों की हत्या के लिए अंग्रेजों ने दोषी ठहराया और उन्हें 1931 में फांसी दे दी गई। हालांकि जादोनांग की हत्याओं में कोई भूमिका नहीं थी। जिसके उपरांत रानी गाइदिनल्यू ने मात्र 16 वर्ष की उम्र में इस आंदोलन का नेतृत्व संभाला। उन पर कुकी के खिलाफ सांप्रदायिक अशांति पैदा करने का आरोप लगाया गया और अंग्रेज उन्हें गिरफ्तार करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजों और उनके शासन के खिलाफ लोगों को लामबंद किया। गाइदिनल्यू के तत्वावधान में, इस आंदोलन ने आग की तरह तेजी से अपना विस्तार किया, जिसमें भावनात्मक अपील की गई कि - एक युवा लड़की अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ खड़ी है - को व्यावहारिक सामाजिक और आर्थिक सुधारों के साथ जोड़ा गया, जो स्वदेशी धार्मिक अनुष्ठानों के पुनर्निर्माण पर आधारित था।

इस आंदोलन का आकर्षण मुख्य रूप से अकाल और भूमि की हानि से पीड़ित लोगों को समृद्धि और स्वतंत्रता के वादे से उपजा था, जो निरंतर जातीय तनाव के कारण थे।उन्होंने नागा जनजातियों को एकजुट कर ब्रिटिश सरकार के खिलाफ विद्रोह किया। उनकी वीरता और नेतृत्व के कारण, वे नागा समाज में एक महत्वपूर्ण व्यक्तित्व बन गईं। उन्होंने खुले तौर पर ब्रिटिश राज के खिलाफ विद्रोह किया और ज़ेलियानग्रोंग लोगों को कर न देने का आह्वान किया। उन्हें स्थानीय लोगों से दान मिला, जिनमें से कई स्वयंसेवक के रूप में उनके साथ शामिल हुए।

अंग्रेजी हुकूमत ने दिया था गिरफ्तारी में जानकारी देने वाले को मौद्रिक पुरस्कार का लालच

ब्रिटिश अधिकारियों ने गाइदिन्ल्यू की गिरफ्तारी को लेकर चप्पे-चप्पे पर इनकी तलाश शुरू की। वह पुलिस की गिरफ्तारी से बचती रहीं और असम , नागालैंड और मणिपुर के गांवों में घूमती रहीं। असम के राज्यपाल ने नागा हिल्स के डिप्टी कमिश्नर जेपी मिल्स की देखरेख में असम राइफल्स की तीसरी और चौथी बटालियन को उनके खिलाफ भेज दिया। उनकी गिरफ्तारी में सहायक जानकारी देने वाले को मौद्रिक पुरस्कार घोषित किए गए।

इसमें यह घोषणा भी शामिल थी कि उनके ठिकाने के बारे में जानकारी देने वाले किसी भी गांव को 10 साल की कर छूट मिलेगी। उनकी सेना ने उत्तरी कछार हिल्स (16 फरवरी 1932) और हंगरुम गांव (18 मार्च 1932) में असम राइफल्स के साथ सशस्त्र संघर्ष किया।

अक्टूबर 1932 में, गाइदिन्ल्यू पुलोमी गांव में चली गईं, जहां उनके अनुयायियों ने उनके रहने के लिए एक मजबूत लकड़ी के किले का निर्माण शुरू किया। जब किले का निर्माण चल रहा था, कैप्टन मैकडोनाल्ड के नेतृत्व में असम राइफल्स की टुकड़ी ने 17 अक्टूबर 1932 को गांव पर एक घात लगाकर हमला किया।

गिरफ्तारी और कारावास

1932 में, गाइदिन्ल्यू, जो अब तक अपने समर्थकों द्वारा आश्रय में थी, को धोखा दिया गया और उसे पकड़ लिया गया। और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। वे 14 वर्षों तक जेल में रहीं और उनका जीवन एक जेल से दूसरी जेल में स्थानांतरण का एक क्रम था - कोहिमा से इम्फाल; गुवाहाटी से शिलांग; और आइजोल से तुरा। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद रिहा हुईं।

जवाहरलाल नेहरू इनकी बहादुरी से हुए थे प्रभावित

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

1937 में, जवाहरलाल नेहरू, अपनी पत्नी कमला की 1936 में मृत्यु के बाद स्विटजरलैंड से भारत लौटे, तो पहली बार गाइदिन्ल्यू की कहानी उनके सामने आई। उस समय सांप्रदायिक तनाव और वैश्विक फासीवाद के उदय के बादलों के बीच एक महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक प्रांतीय चुनाव के लिए प्रचार करते हुए, नेहरू पूर्वोत्तर की ओर आकर्षित हो चुके थे। जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में शिलांग जेल में उनसे मुलाकात की,1938 में, उन्होंने एक आलेख प्रकाशित किया, जो मूल रूप से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी न्यूज़लेटर में प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था “गाइडालो रानी”। इसमें नेहरू ने सिलहट की अपनी यात्रा के बारे में बताया, जो तत्कालीन प्रांत (अब राज्य) असम का एक जिला है, जहां उन्होंने पहली बार गाइदिन्ल्यू की कहानी सुनी थी।

नेहरू ने एक अज्ञात (शेष भारत के लिए) युवती को राष्ट्रीय मंच पर प्रस्तुत करने में अपनी लेखनी का सहारा लिया। अपने इस लेख में नेहरू ने गाइदिन्ल्यू को एक ऐसे प्रतीक के रूप में स्थापित किया, जो एकता का प्रतीक थी, तथा औपनिवेशिक उत्पीड़न के विरुद्ध एक क्रांति की आवाज थीं। नेहरू के इस लेख को दूर-दूर तक पढ़ा गया। उक्त पत्रिका के अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन ने लेडी नैन्सी एस्टर का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने 1939 में गाइदिन्ल्यू का मामला अपने हाथ में ले लिया। नेविल चेम्बरलेन की बर्बाद सरकार में भारत और बर्मा के लिए तत्कालीन संसदीय अवर सचिव लेफ्टिनेंट कर्नल एंथनी मुइरहेड को लिखते हुए लेडी एस्टर ने तर्क किया कि गाइदिन्ल्यू को रिहा करने का समय आ गया है।

1931 में जादोनांग की फांसी को देखते हुए, निश्चित रूप से भारत सरकार गाइदिन्ल्यू के लिए स्थायी कारावास के बजाय “सुधारात्मक उपचार“ के किसी तरीके पर विचार कर सकती थी। उस समय वैश्विक राजनीति की अस्थिरता को देखते हुए, साम्राज्य आखिरी चीज जो नहीं चाहता था वह पूर्वोत्तर में किसी भी तरह का और तनाव भड़काना था। मुइरहेड ने साफ इनकार कर दिया। जब नेहरू को इस बारे में पता चला तो वे व्यंगपूर्वक हंस पड़े। उन्होंने लिखा, मणिपुर और असम में शांति, “अगर बीस साल की लड़की को अनिश्चित काल तक जेल में रखा जाए तो यह बहुत ही असुरक्षित आधार है।”

1947 में गाइदिन्ल्यू हुईं जेल से रिहा

1947 में गाइदिन्ल्यू जेल से रिहा हुई। लेकिन उसकी आज़ादी का मतलब यह नहीं था कि वो पूरी तरह से स्वतंत्र थीं। बल्कि उनकी गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखी जाती थी। उन्हें “मणिपुर राज्य, उत्तरी कछार हिल्स उपखंड या नागा हिल्स के सदर उपखंड” में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी और सभी राजनीतिक गतिविधियों से “दूर रहना” पड़ता था। अप्रैल 1949 में जब असम के तत्कालीन प्रधानमंत्री गोपीनाथ बोरदोलोई पर नेहरू लगातार गाइदिन्ल्यू की बिना शर्त आज़ादी के लिए जोर दे रहे थे, लेकिन बोरदोलोई ने इससे असहमति जताई। इस मामले में असल समस्या यह आड़े आ रही थी कि, भले ही गाइदिन्ल्यू खुद कोई ऐसी विरोधाभासी स्थिति पैदा करना न चाहें, लेकिन “उनका नाम ही उन नागाओं के एक वर्ग के बीच जादू की तरह काम करता था। जो

उनके मार्गदर्शन में, उनकी आज़ादी के दिनों में एक तरह के अर्ध-कट्टरपंथी पंथ का अभ्यास करते थे। एनएआई में गाइदिन्ल्यू पर मौजूद फ़ाइल से पता चलता है कि नेहरू ने उनकी बेरोकटोक आवाजाही के लिए सक्रिय रूप से दबाव डालना जारी रखा, संभवतः इस बात पर उनके अविश्वास को जारी रखते हुए कि एक महिला से इतना ज़्यादा उबाल कैसे निकल सकता है। लेकिन बोरदोलोई दृढ़ रहे। अगर नेहरू पूरी तरह से आश्वस्त होते तो गाइदिन्ल्यू को लुंगकाओ घर जाने की अनुमति दे सकते थे, लेकिन “स्थानीय अधिकारियों को नहीं लगता कि नागा हिल्स में उबाल के इस चरण में, उन्हें अपनी मर्जी से घूमने की अनुमति दी जा सकती है।

20 जुलाई 1949 में, नेहरू के लगातार कई महीनों के पत्रों के बाद, गाइदिन्ल्यू की गतिविधियों पर प्रतिबंध हटा दिए गए, हालांकि उनके भत्ते पर मोल-तोल जारी रहा, जब तक कि प्रधानमंत्री को यह नहीं बताया गया कि उनके लिए लिखना बंद कर देना ही बेहतर होगा। 1952 तक अपने छोटे भाई मारंग के साथ तुएनसांग के विमराप गांव में रहीं। 1952 में, उन्हें अंततः अपने पैतृक गांव लोंगकाओ में वापस जाने की अनुमति दी गई। 1953 में, प्रधानमंत्री नेहरू ने इम्फाल का दौरा किया जहां रानी गाइदिन्ल्यू ने उनसे मुलाकात की और उन्हें अपने लोगों की कृतज्ञता और सद्भावना से अवगत कराया। बाद में उन्होंने ज़ेलियानग्रोंग लोगों के विकास और कल्याण पर चर्चा करने के लिए दिल्ली में नेहरू से मुलाकात की।

भारत से अलगाववाद की कट्टर विरोधी थीं रानी गाइदिन्ल्यू

(फोटो साभार- सोशल मीडिया)

गाइदिन्ल्यू नागा नेशनल काउंसिल (एनएनसी) के विद्रोहियों की विरोधी थीं , जो भारत से अलगाववाद की वकालत करते थे। इसके बजाय, उन्होंने भारत संघ के भीतर एक अलग ज़ेलियानग्रोंग क्षेत्र के लिए अभियान चलाया। विद्रोही नागा नेताओं ने एक प्रशासनिक इकाई के तहत ज़ेलियानग्रोंग जनजातियों के एकीकरण के लिए गाइदिन्ल्यू के आंदोलन की आलोचना की। वे पारंपरिक धर्म एनिमिज्म या हेराका के पुनरुद्धार के लिए उनके काम करने के भी विरोधी थे। एनएनसी नेताओं ने उनके कार्यों को अपने आंदोलन के लिए एक बाधा माना।

बैपटिस्ट नेताओं ने हेराका पुनरुद्धार आंदोलन को ईसाई विरोधी माना और उन्हें अपने रुख को न बदलने पर गंभीर परिणाम भुगतने की चेतावनी दी गई। हेराका संस्कृति की रक्षा करने और अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए, वह 1960 में भूमिगत हो गईं। हेराका आंदोलन एक सामाजिक आंदोलन है जो 1960 के दशक में जापान में शुरू हुआ था। गाइदिनल्यू के चचेरे भाई ने ये आंदोलन शुरू किया, जो उजादोनांग ने नागा स्वशासन स्थापित करने और नागाओं के ईसाई धर्म में धर्मांतरण का विरोध करने के लिए अभियान की बुनियाद रखी गई थी।

1966 में, बुढ़ापे में छह साल की कठिन भूमिगत जिंदगी के बाद, भारत सरकार के साथ एक समझौते के तहत , रानी गाइदिन्ल्यू अपने जंगल के ठिकाने से बाहर आईं और शांतिपूर्ण, लोकतांत्रिक और अहिंसक तरीकों से अपने लोगों की बेहतरी के लिए काम करने लगीं।

लाल बहादुर शास्त्री से की थी एक अलग ज़ेलियानग्रोंग प्रशासनिक इकाई के निर्माण की मांग

वह 20 जनवरी 1966 को कोहिमा गईं और 21 फरवरी 1966 को दिल्ली में प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री से मिलीं और एक अलग ज़ेलियानग्रोंग प्रशासनिक इकाई के निर्माण की मांग की। 24 सितंबर को उनके 320 अनुयायियों ने हेनिमा में आत्मसमर्पण कर दिया। उनमें से कुछ को नागालैंड सशस्त्र पुलिस में शामिल कर लिया गया । 1991 में, गाइदिन्ल्यू अपने जन्मस्थान लोंगकाओ लौट आईं, जहां 17 फरवरी 1993 को 78 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हो गई।

सम्मान और विरासत

पैतृक धार्मिक प्रथाओं की समर्थक होने के कारण उन्होंने अपने समुदाय के ईसाई धर्म में धर्मांतरण का कड़ा विरोध किया। उन्हें स्वतंत्रता सेनानी के रूप में सम्मानित किया गया। भारत सरकार ने रानी गाइदिनल्यू के योगदान को मान्यता देते हुए उन्हें 1972 में ताम्रपत्र, 1982 में पद्म भूषण, 1983 में विवेकानंद सेवा सम्मान और 1996 में मरणोपरांत भगवान बिरसा मुंडा पुरस्कार से सम्मानित किया।

उनकी स्मृति में 1996 में एक डाक टिकट जारी किया गया, और 2015 में उनके जन्म-शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में स्मारक सिक्के भी जारी किए गए। रानी गाइदिनल्यू को उनके अनुयायी देवी का अवतार मानते थे, जो उनकी आध्यात्मिक शक्ति और नेतृत्व क्षमता को दर्शाता है। रानी का जीवन साहस, समर्पण और स्वतंत्रता के प्रति अटूट विश्वास का प्रतीक है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा स्रोत बना रहेगा।

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