Tendency Of Mind: मन की प्रवृत्ति, निवृत्ति, चेष्टाओं एवं सामर्थ

Tendency Of Mind:मन ना माने तो किस का घर, किस का संसार! छोडो़ कोई किसी का नही अकेले ही आए थे, अकेले ही जाना है। मन ही स्वयं पुरुष है

Sankata Prasad Dwived
Published on: 28 May 2024 7:35 AM GMT
Tendency Of Mind
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Tendency Of Mind 

Tendency Of Mind: यह तो हम और आप सभी भली भांति जानते है कि सभी लौकिक एवं पारलौकिक कार्य मन के लगने से ही सफल होते है-अर्थात् मन ही जगत का रचने वाला है ( मन ने मान रखा है, यह घरवार है, यह संसार ज़है।यदि मन ना माने तो किस का घर, किस का संसार! छोडो़ कोई किसी का नही अकेले ही आए थे, अकेले ही जाना है। मन ही स्वयं पुरुष है।

मनो यदुनुसन्धत्ते तदेवाप्नोति तत्क्षणात।

अर्थात् मन जिस वस्तु को पाने का संकल्प कर लेता है।वह विद्या अध्ययन हो, किसी पद की प्राप्ति का लक्ष्य हो, पारिवारिक, सामाजिक व्यवस्थाएं हो, व्यवसाय की व्यवस्था हो या परमात्मा की प्राप्ति का,तो हम आज मन की प्रवृत्ति, निवृत्ति, चेष्टाओं एवं सामर्थ के विषय में जानने का प्रयास करेंगे।

मनो हि जगतां कर्तृम

( मन चाहे तो असंभव को संभव कर सकता है )।

येन केन यथा यद्यद्यथा संवेद्यतेऽनघ।

तेन तेन तथा तत्तत्तदा समनुभूयते॥

अर्थात् जो जिस वस्तु का जिस भाव से चिन्तन करता है।वह वस्तु उसे उसी प्रकार चिन्तन में आने लगती है।

(भृंगी कीडा होता है, वह किसी कीट को पकड़ कर अपने बिल में बन्द कर देता है।वह कीट भय के कारण उस भृंगी का चिन्तन करते करते एक दिन वह भी भृंगी ब ।)

ब्रह्मैव ब्रह्म विद भवती

ब्रह्म को जानने वाला उसी के समान गुणों को धारण करता है।

अमृतत्वं विषं यान्ति सर्दवामृतवेद्नात्।

शत्रुर्मित्रत्वमायाति मित्रसंवित्तिवेदनात्॥

अर्थात् विष विष नही। अमृत है— ऐसा सदैव चिन्तन करते रहने से विष भी अमृत हो जाता है।

सदामित्र भाव से चिन्तन करते रहने से शत्रु भी मित्र बनजाता है।भीतर जो आत्मा बैठा है जैसा आप उसके बारे मे सोचेंगे वह भी आपके विषय में वैसा ही सोचेगा,सभी आत्माएं एक होने के कारण एक दूसरे से जुडी़ है।

जाकी रही भावना जेसी। प्रभु मूरत देखी तिन तेसी।

अन्तः शीतलतायां तु लब्धायां शीतलं जगत

अर्थात् अपने भीतर यदि शान्ति प्राप्त होगी, तो सारा संसार शान्त दिखाई पढ़ने लगता है।(जो सोच अन्दर होगी, उसी के अनुसार बुद्धि तब बुद्धिनुसार इन्द्रियाँ अर्थात दृष्टि भी प्राप्त होती। अर्थात् चित्त में जब वृत्तियां नही उठती, वह जब वृत्तियों से शून्य हो जाता है, तो वह चित्त भाव को त्याग देता है।। तब वह अपने भीतर व्यापक मोक्षमयी सत्ता का अनुभव करता है।

न देहो न च जीवात्मा नेन्द्रियाणि परंतप।

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयअर्थात् मनुष्यों के बन्धन और मोक्ष का करण है, मन। उसके लिए न देह दोषी है, न जीवात्मा और न इन्द्रियां हमारा मन हमेशा देह ओर देह के नातों मे विशेष ममता रखता है,’मैं' और 'मेरा' अहमत्व, ममत्व, यदि मन यह मानले कि मैं शरीर नही आत्मा हूँ, देह नही देही हूँ, क्षेत्र नही क्षेत्रज्ञ हूँ, मेरा न कभी जन्म होता है न मृत्यु ।तो उसी क्षण सारा बन्धन समाप्त, जन्म मरण का चक्कर ही समाप्त हो जाता है। )*

मनस्तु सुखदुःखानां महतां कारणं द्विज।

जाते तु निर्मले ह्यस्मिन्सर्व भवति निमलम्॥

अर्थात् जनक सुख देव से कहते है कि हे द्विज ! सुख दुख का बहुत बडा़ कारण है, मन।

उसके निर्मल होने से सब निर्मल हो जाते है।(चित्त की वृत्ति शुद्ध एवं सम होने से सारा संसार सुन्दर लगता है। )

भ्रमन्सर्वेषु तीर्थेषु स्नात्वा स्नात्वा पुनः पुनः।

निर्मलं न मनो यावात्तावत्सर्वं निरर्थकं॥

अर्थात् सब तीर्थों मे घूम-घूमकर पुनः पुनः स्नान करले ने से क्या?*जब तक मन निर्मल नही होता, तब तक सब व्यर्थ है।) समस्त कार्यों की सिद्धि अर्थात सफलता असफलता एवं बाही व आन्तरिक सृष्टि सब मन से होता है )।

मन का निरोध केसे करें

अध्यात्मविद्याधिगमः

साधुसङ्गम एव च।*

वासनासम्परित्यागः प्राणस्पन्दनिरोधनम्॥

एतास्ता युक्तयः पुष्टाः सन्ति चित्तजये किल॥

अर्थात् चित्त पर विजय पाने के लिए आध्यात्म ग्रंथो का अध्ययन, साधुओं ( सज्जनों ) का संग, वासनाओं का त्याग ( दुर्वासनाओं की समाप्ति का निरन्तर सतत् प्रयास करता रहे तभी सफलता मिलती है ) और प्राणायाम्।

मननं कृत्रिमं रूपं ममैतन्न यतोस्महम्।

इति तत्त्यागतः शान्तः चेतो ब्रह्म सनातनम्॥

अर्थात् मन मेरा आलसी रूप नही बनावटी रूप है।इसलिए मैं मन नही हूँ, इस तरह सोचकर मन को त्याग देने से मन शान्त और सनातन ब्रह्म हो जाता है।

(मन की हर बात ना माने उसे अधिक महत्व न दें हमेशा डाटते रहें तथा सैधान्तिक विषय के पालन पर अधिक जोर दें )।

भोगेच्छामात्रको बन्धस्तत्त्यागो मोक्ष उच्यते।

अर्थात् भोगो की इच्छा होना ही बन्धन है।

उसका त्याग ही मोक्ष कहलाता है ( इच्छाएं जीव को संसार के अधीन कर देती हैं )।

परं पौरुषमाश्रित्य यत्नात्परमयाधिया।

भोगाशाभावनां चित्तात्समूलामलमुद्धरेत्॥

अर्थात् परम पुरुषार्थ का सहारा लेकर बुद्धि पूर्वक यत्न करके भोगों की आशा को चित्त से समूल नष्ट कर देना चाहिए।(तब आप अपने भीतर स्वतंत्र सर्व समर्थ सत्ता का अनुभव करेंगे )।

अयं बन्धुरयं नेती गणाना लघुचेतसाम्।

उदारचरितानां तु विगतावरणैव धीः॥

अर्थात् यह मेरा बन्धु है, यह नही है, ऐसा भेद भाव ओछे लोगों में होता है।उदार भाव वालों की बुद्धि में ऐसा भेद नही रहता।उनकी बुद्धि इस तरह के सभी आवरणों से मुक्त ही रहती है।

एकत्वे विद्यमानस्य सर्वगस्य किलात्मनः।

अयं बन्धुः परश्चायमित्यसौ कलता कुतः॥

अर्थात् जब कि एक ही आत्मा सबमें विराजमान है, तो यह मेरा भाई है और यह दूसरा है- इस तरह का विचार आया ही कैसे?

( हम मन्दिर के भगवान को तो मानते है यह अच्छी बात है किन्तु जो हम ओर आप सभी के भीतर बैठा है, उस परमात्मा को नही मानते )।

इस प्रकार आत्मा के द्वारा मन का सन्निरोध करने पर मन वश में, नियंत्रण में होता है।

तब हमारे अनुसार चलने पर हमारा मन हमें हमारे सभी कार्यों में सफलता ही सफलता देता है।

Shalini singh

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