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The Colors Of Holi : हिंदी साहित्य में होली के रंग

The Colors Of Holi : कृष्ण भक्त कवि रसखान ने ब्रज की होली पर अत्यंत सुंदर रचनाएं लिखी हैं। इनमें श्रीकृष्ण की राधा के साथ खेली जाने वाली होली प्रमुख है

Dr. Saurabh Malviya
Published on: 21 March 2024 6:08 PM IST
colors of holi in hindi literature
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colors of holi in hindi literature

The Colors Of Holi :होली कवियों का प्रिय त्योहार है। यह त्योहार उस समय आता है जब चारों दिशाओं में प्रकृति अपने सौन्दर्य के चरम पर होती है। उपवनों में रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए होते हैं। होली प्रेम का त्योहार माना जाता है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण और राधा को होली अत्यंत प्रिय थी। भक्त कवियों एवं कवयित्रियों ने होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं।कृष्ण भक्त कवि रसखान ने ब्रज की होली पर अत्यंत सुंदर रचनाएं लिखी हैं। इनमें श्रीकृष्ण की राधा के साथ खेली जाने वाली होली प्रमुख है। वे कहते हैं-

मिली खेलत फाग बढयो अनुराग सुराग सनी सुख की रमकै।

कर कुंकुम लै करि कंजमुखि प्रिय के दृग लावन को धमकै।।

रसखानि गुलाल की धुंधर में ब्रजबालन की दुति यौं दमकै।

मनौ सावन सांझ ललाई के मांझ चहुं दिस तें चपला चमकै।।

अर्थात श्रीकृष्ण राधा और गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। इस खेल के साथ-साथ उनमें प्रेम बढ़ रहा है। कमल के पुष्प के समान सुंदर मुख वाली राधा श्रीकृष्ण के मुख पर कुमकुम लगाने की चेष्टा कर रही है। वह गुलाल फेंकने का अवसर खोज रही है। चहुंओर गुलाल ही गुलाल दिखाई दे रहा है। इस गुलाल के कारण ब्रजबालाओं की देहयष्टि इस प्रकार दमक रही है जैसे सावन मास के सायंकाल में सूर्यास्त से लाल हुए आकाश में चारों ओर बिजली चमकती रही हो।कृष्ण भक्त सूरदास ने भी श्रीकृष्ण और राधा की होली पर असंख्य रचनाएं लिखी हैं। होली उनकी रासलीलाओं में महत्वूर्ण स्थान रखती है। वे कहते हैं-


हहरि संग खेलति है सब फाग।

इहिं मिस करति प्रगट गोपी, उर अंतर कौ अनुराग।।

सारी पहिरि सुरंग, कसि कचुकि, काजर दै दै नैन।

बनि बनि निकसि निकसि भई ठाढ़ी, सुनि माधौ के बैन।।

डफ, बांसुरी रुंज अरु महुअरि, बाजत ताल मृदंग।

अति आनंद मनोहर बानी, गावत उठति तरंग।।

एक कोध गोविंद ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।

छांड़ि सकुच सब देति परस्पर, अपनी भाई गारि।।

मिलि दस पांच अली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाइ।

भरि अरगजा अबीर कनकघट, देति सीस तै नाइ।।

छिरकतिं सखी कुमकुमा केसरि, भुरकतिं बदनधूरि।

सोभित है तन सांझ-समै-घन, आए है मनु पूरि।।

दसहूं दिसा भयौ परिपूरन, 'सूर' सुरंग प्रमोद।

सुर विमान कौतूहल भूले, निरखत स्याम विनोद।

अर्थात श्रीकृष्ण के साथ सब होली खेल रहे हैं। फागुन के रंगों के माध्यम से गोपियां अपने हृदय का प्रेम प्रकट कर रही हैं। वे अति सुन्दर साड़ी एवं चित्ताकर्षक चोली पहन कर तथा आंखों में काजल लगाकर श्रीकृष्ण की पुकार सुनकर होली खेलने के लिए अपने घरों से बाहर आ गईं हैं।


डफ, बांसुरी, रुंज, ढोल एवं मृदंग बजने लगे हैं। सब लोग आनंदित होकर मधुर स्वरों में गा रहे हैं। एक ओर श्रीकृष्ण और ग्वाल बाल डटे हुए हैं तो दूसरी ओर समस्त ब्रज की महिलाएं संकोच छोड़कर एक दूसरे को मीठी गालियां दे रहे हैं तथा छेड़छाड़ चल रही है। अकस्मात कुछ सखियां मिलकर श्रीकृष्ण को घेर लेती हैं और स्वर्णघट में भरा सुगंधित रंग उनके सिर पर उंडेल देती हैं। कुछ सखियां उन पर कुमकुम केसर छिडक़ देती हैं। इस प्रकार ऊपर से नीचे तक रंग, अबीर गुलाल से रंगे हुए श्रीकृष्ण ऐसे लग रहे हैं जैसे सांझ के समय आकाश में बादल छा गए हों। फाग के रंगों से दसों दिशाएं परिपूर्ण हो गई हैं। आकाश से देवतागण अपना विचरण भूलकर श्याम सुन्दर का फाग विनोद देखने के लिए रुक गए हैं तथा आनंदित हो रहे हैं।मीराबाई श्रीकृष्ण को अपना स्वामी मानती थीं। उन्होंने होली और श्रीकृष्ण के बारे में अनेक रचनाएं लिखी हैं। उनकी रचनाओं में आध्यात्मिक संदेश भी मिलता है। वे कहती हैं-

फागुन के दिन चार होली खेल मना रे।।

बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे।

बिन सुर राग छतीसूं गावै रोम रोम रणकार रे।।

सील संतोखकी केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे।

उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे।।

घटके सब पट खोल दिये हैं लोकलाज सब डार रे।

मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे।।

इस पद में मीराबाई ने होली एवं फागुन के माध्यम से समाधि का उल्लेख किया है। वे कहती हैं कि फागुन मास में होली खेलने के चार दिन ही होते हैं अर्थात बहुत अल्प समय होता है। इसलिए मन होली खेल ले अर्थात श्रीकृष्ण से प्रेम कर ले। करताल एवं पखावाज के बिना ही अनहद की झंकार हो रही है। मेरा मन बिना सुर एवं राग के आलाप कर रहा है। इस प्रकार रोम-रोम श्रीकृष्ण के प्रेम में लीन है। मैंने अपने प्रिय से होली खेलने के लिए शील एवं संतोष रूपी केसर का रंग घोल लिया है। मेरा प्रिय प्रेम ही मेरी पिचकारी है। गुलाल के उड़ने के कारण संपूर्ण आकाश लाल हो गया है। मैंने अपने हृदय के द्वार खोल दिए हैं, क्योंकि अब मुझे लोक लाज का कोई तनिक भी भय नहीं है। मेरे स्वामी गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठाने वाले भगवान श्रीकृष्ण हैं। मैंने उनके चरणों में अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया है। श्रृंगार रस के विख्यात कवि बिहारीलाल को भी होली का त्योहार बहुत प्रिय था। उन्होंने भी होली को लेकर अनेक रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं-


उड़ि गुलाल घूंघर भई तनि रह्यो लाल बितान।

चौरी चारु निकुंजनमें ब्याह फाग सुखदान।।

फूलन के सिर सेहरा, फाग रंग रंगे बेस।

भांवरहीमें दौड़ते, लै गति सुलभ सुदेस।।

भीण्यो केसर रंगसूं लगे अरुन पट पीत।

डालै चांचा चौकमें गहि बहियां दोउ मीत।।

रच्यौ रंगीली रैनमें, होरीके बिच ब्याह।

बनी बिहारन रसमयी रसिक बिहारी नाह।।

रीतिकालीन कवि पद्माकर ने भी होली का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। उन्होंने श्रीकृष्ण की राधा और गोपियों के साथ होली खेलने को लेकर अनेक सुन्दर रचनाएं लिखी हैं। वे कहते हैं-

फागु की भीर, अभीरिन ने गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी

भाय करी मन की पद्माकर उपर नाई अबीर की झोरी

छीने पीतांबर कम्मर तें सु बिदा कई दई मीड़ि कपोलन रोरी।

नैन नचाय कही मुसकाय ''लला फिर आइयो खेलन होरी।"

अर्थात श्रीकृष्ण गोपियों के साथ होली खेल रहे हैं। पद्माकर कहते हैं कि राधा होली खेल रही भीड़ में से श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर भीतर ले जाती है। फिर वह अपने मन की करते हुए श्रीकृष्ण पर अबीर की झोली उलट देती है तथा उनकी कमर से पीतांबर छीन लेती है। वह श्रीकृष्ण को यूं ही नहीं छोड़ती, अपितु जाते हुए उनके गालों पर गुलाल लगाती है। वह उन्हें निहारते एवं मुस्कराते हुए कहती है कि लला फिर से आना होली खेलने।हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाने वाले सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी होली के रंगों से अछूते नहीं रहे। उन्होंने भी होली के रंगीले त्योहार पर कई कविताएं लिखी हैं। वे कहते हैं-

होली है भाई होली है

मौज मस्ती की होली है

रंगो से भरा ये त्यौहार

बच्चो की टोली रंग लगाने आयी है

बुरा ना मानो होली है

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी होली पर बहुत सी कविताएं लिखी हैं। वे खड़ी बोली के प्रथम कवि माने जाते हैं। उनकी होली की कविताएं बहुत ही सुन्दर एवं लुभावनी हैं। वे कहते हैं-

जो कुछ होनी थी, सब होली

धूल उड़ी या रंग उड़ा है

हाथ रही अब कोरी झोली

आंखों में सरसों फूली है

सजी टेसुओं की है टोली

पीली पड़ी अपत, भारत-भू,

फिर भी नहीं तनिक तू डोली

उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवि हरिवंश राय बच्चन की होली पर लिखी कविताएं बहुत ही सुन्दर हैं। इनमें प्रेम एवं विरह आदि के अनेक रंग हैं। वे कहते हैं-

तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है

देखी मैंने बहुत दिनों तक

दुनिया की रंगीनी

किंतु रही कोरी की कोरी

मेरी चादर झीनी

तन के तार छूए बहुतों ने

मन का तार न भीगा

तुम अपने रंग में रंग लो तो होली है।




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Shalini Rai

Shalini Rai

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