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Motivational Story: जो प्राप्त है वह पर्याप्त है
Motivational Story:होना या पाना जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है, जो अप्राप्त है उसकी चाह बनी है, जो हैं उससे तुष्ट नहीं हैं, कुछ और होना है जो प्राप्त है वही पर्याप्त है
तृष्णा मात्र आत्मको बंध: तन्नाशो मोक्ष उच्चते।
भव असंसक्ति मात्रेण प्राप्ति तुष्टि मुह: मुह:।।
( अष्टावक्र गीता )
मात्र तृष्णा ही बन्धन है। उसका नाश ही मोक्ष है। संसार से अनासक्ति मात्र से बारम्बार तुष्टि प्राप्त होती है।
तृष्णा क्या है?
जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। कुछ और होना है कुछ और पाना है, होने और पाने की अनंत प्यास ही तृष्णा है,असंसक्ति शब्द बहुत समझने जैसा है। जीवन मे ऐसा होता है कि जो आज आपको अत्यंत प्रिय है कल उसके प्रति आसक्ति खत्म हो जाय। बचपन के खेलों को भूलें न होंगे। परंतु आसक्ति बची है क्या अब। लेकिन यह सब हुवा था बिना जाने, बिना प्रयास के, बिना बोध के। एक उम्र के साथ यह भाव स्वतः विकसित हुवा था यह कि इसमे कोई रस नहीं है। हमारा उसमें कोई योगदान न था। लेकिन फिर दूसरे खेल जीवन मे अधिक महत्वपूर्ण हो गए, प्रिय हो गए। जिसको कहते हैं तृष्णा या वासना।
तृष्णा का अर्थ
होना या पाना। जो प्राप्त है वह पर्याप्त नहीं है। जो अप्राप्त है उसकी चाह बनी है। जो हैं उससे तुष्ट नहीं हैं, कुछ और होना है। जो प्राप्त है वही पर्याप्त है यह है तुष्टि। अप्राप्ति शरीर की इंद्रियों के विषयों के बारे में हो सकती है और मन के विषयों के बारे में भी। शरीर के विषय एक समय तक आकर्षित करते हैं - लिप्तता के लिए। जब तक शरीर से भोगों का आनंद लिया जा सकता है तब तक शरीर प्रधान रहता है मनुष्य। इसका कोई समयकाल नहीं है। पश्चिम में लोग बुढापे में सातवी और आठवीं शादी करते हैं। लेकिन प्रायः एक समय के बाद मन प्रभावी हो जाता है, शरीर पीछे हो जाता है। मन की चाह। यह उससे बड़ा बन्धन है क्योंकि मन अथाह है, असीमित है। शरीर से बहुत बलशाली है। उसकी डिमांड भी शरीर की तुलना में बहुत अधिक है। मन को आप माइंड समझिये, बात को समझने के लिए। वैसे मात्र मन ही माइंड नही होता। माइंड का अर्थ है सॉफ्टवेयर। शरीर का अर्थ है हार्डवेयर। सॉफ्टवेयर को समझने के लिए मैन्युअल चाहिए होता है।
ह्यूमन सॉफ्टवेयर का मैन्युअल कहाँ है?
आज पश्चिम मेडिकल साइंस बहुत एडवांस हो गया है परंतु वह माइंड या सॉफ्टवेयर को रत्ती भर नही समझता। अभी कुछ दिन पहले अमेरिका के एक साइकियाट्रिक ने लिखा है कि,कोरोना के समय काल में किसी क्वीन्स नामक शहर में आत्महत्या की संख्या दुगुनी हो गयी है। ऐसा क्यों हो रहा है? धनी देशों में? जिनके शरीर की आवश्यकता पूरी हो गयी है उनके अंदर माइंड की आवश्यकता बढ़ जाती है। तृष्णा दोनों का अभिन्न हिस्सा है। शरीर और माइंड दोनों की। क्योंकि वैदिक साइंस के अनुसार शरीर और माइंड एक दूसरे के प्रतिरूप हैं, कॉपी हैं। एक स्थूल है, दूसरा सूक्ष्म। लेकिन मेडिकल साइंस ऐसा नही मानता। इसीलिए वह इन समस्यायों से जूझने में अक्षम रहा है। अमेरिका में घट रही आत्महत्याएं इसी का प्रमाण हैं।
उनके पास माइंड की विक्षिप्तता का एकमात्र इलाज
ड्रग मरजुवाना या अल्कोहल। वे पदार्थ जो माइंड की गति को धीमी कर दे। उसे सुला दे, सुस्त कर दे। तो तृष्णा ही बन्धन है। उससे मुक्ति ही मोक्ष है। मुक्ति को समझ लेवें। यह जीवन मे ही मिलती है। मरने के बाद तो मृत्यु घटती है। मोक्ष जीवन मे ही घटेगा, जब भी घटेगा। इसका मात्र एक ही अर्थ है - अलिप्तता। अब आप बचपन के खेलों से अलिप्त हो गए। यही न हुवा है। अब आप बच्चों को खेलते हुए देखते हैं तो दृष्टा बने रहते हैं। उसमें उलझते नहीं हैं। नग्रेजी का एक शब्द है एंग्जायटी। उससे कुछ स्पष्ट नहीं होता। उलझन उससे अच्छा शब्द है - उलझे हुए हैं - यत्र तत्र सर्वत्र।इसी को बन्धन कहा जा रहा है। तृष्णा का यह एक स्वरूप ही है।हर घटना को अपने मनोनुकूल घटाना चाहते हैं। यह है राजनीति। संसार है राजनीति। हर चीज मेरे मनोनुकूल घटे।
समस्या यह है कि कोई हमारे अनुकूल नहीं चलता। कोई घटना हमारे अनुकूल नहीं घटती। हमारी पत्नी, हमारा पति, हमारे बच्चे तक हमारे अनुकूल नहीं काम करते। यही उलझन और बेचैनी उतपन्न करता है। तो क्या विरक्त हो जाएं? अपना कोई पक्ष न हो।नहीं विरक्ति भी आसक्ति का दूसरा स्वरूप ही है। जिसके प्रति आसक्ति थी - उसी के प्रति ही विरक्ति होगी न। अर्थात उसने अभी हमारा पीछा नही छोड़ा। आज भी हम उसमे लिप्त हैं। पहले पॉजिटिव भाव से, अब नेगेटिव भाव से।
मुक्ति कहाँ है विरक्ति में? शीर्षसन है यह तो मात्र। खड़े हम वहीं हैं लेकिन सर के बल। तृष्णा गयी कहाँ।उसने अपना रूप बदल लिया -साधु वेश में रावण आया। उसका अर्थ यही है। जीवन मे बहुत सी चीजें थी, जो लगता था कि प्राण उन्ही में अटके हैं। लेकिन अब आप उसको देखकर उसमे लिप्त नही न होते। हर व्यक्ति के अपने निजी जीवन मे ऐसा होता है। लेकिन फिर दूसरी आसक्ति ने पकड़ लिया। दूसरी तृष्णा जग गयी।
तृष्णा का अर्थ है
भविष्य, जो कि कभी आएगा नहीं। कभी घटेगा नहीं।वह आएगा तो वर्तमान के रूप में ही। भव असंसक्ति मात्रेण - संसार मे जो घट रहा है - उससे निर्लिप्त होने से ही तुष्टि प्राप्ति मुह: मुह:। बार बार तुष्टि मिलेगी। मुह: मुह: शब्द भगवद्गीता के अंतिम अध्याय में भी आया है जब संजय कहता है कि हे राजन कृष्ण और अर्जुन के संवाद को बार बार स्मरण करके बारम्बार गदगद हो जा रहा हूँ। आनंद ऐसे ही घटित होता है। कभी आनंद का अनुभव हुवा हो तो याद कीजिये। कैसे और कितने समय तक वह घटता चला जाता है। वही बात यहां भी कही जा रही है - तुष्टि के परमानंद का स्वाद एक बार चख लिया तो वह धीरे धीरे और प्रगाढ़ होता जाता है।
तुलसीदास विनय पत्रिका में कहते हैं :-
रघुपति भगति वारि छालित चित बिनु प्रयास ही सूझै।
तुलसीदास कह चिदविलास जग बूझत बूझत बुझै।।
आनंद की आत्यंतिक घटना एक साथ नहीं घटेगी। घटते घटते घटेगी। क्योंकि यह जग है। यह चिदानंद नही है उसका विलास है। लेकिन उसके पास पहुंचने का मार्ग क्या है?वह जो अबूझ है, अगम्य है, आनंद की घनराषि है उस तक पहुंच कैसे बने?उसके लिए यह जग है, संसार है। यह उसकी पाठशाला है। इससे हम अवगत है। जो हमारी पहुंच में है, उसको समझकर उस अबूझ अगम्य चिदानंद को जाना जा सकता है। परम तुष्टि को उपलब्ध हुवा जा सकता है। परमानंद की प्राप्ति हो सकती है।परमात्मा और परमानंद एक ही तत्व के दो अलग अलग नाम हैं। कवि हृदय उसे परमात्मा कहते हैं। वैज्ञानिक उसे परमानंद। परमात्मा की खोज किसी को हो न हो, परमानंद की खोज पशु पक्षी मनुष्य सब कर रहे हैं। वरना क्यों मृग को कुंडलनी में कस्तूरी की खोज की बात की जाती ?
कस्तूरी कुंडल बसे ।
मृग ढूढें वन माहिं।