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चुनाव में पैसे का खेल, उठाना पड़ता है कार्यक्रमों का खर्चा

raghvendra
Published on: 12 April 2019 12:50 PM IST
चुनाव में पैसे का खेल, उठाना पड़ता है कार्यक्रमों का खर्चा
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मनीष श्रीवास्तव

लखनऊ: चुनाव आयोग चाहे जितनी कवायद कर ले और राजनीतिक दल व नेता चाहे जितने वादे करें, लेकिन हकीकत यही है कि राजनीतिक दल और प्रत्याशी अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकते। मौजूदा लोकसभा चुनाव में भी राजनीतिक दल और प्रत्याशी मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए धन, शराब और उपहारों से उपकृत करने में जुटे हुए हैं। चुनाव आयोग के निर्देश पर भारी मात्रा में नकदी, शराब और नशीले पदार्थों की रोज हो रही बरामदगी यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सभी उपाय करने और बंदिशें लगाने के बाद भी प्रत्याशियों पर कोई खास असर नहीं पड़ा है। चुनाव में धन बल का बेजा इस्तेमाल एक ऐसा सच है जिसे चुनाव आयोग भी स्वीकार कर चुका है। प्रत्याशियों के खर्चों पर नजर रखने के लिए चुनाव आयोग अलग से व्यय पर्यवेक्षक की नियुक्ति करता है मगर आयोग की आंखें काफी हद तक वही देख पाती हैं जो प्रत्याशी दिखाता है।

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चुनाव आयोग ने प्रत्येक लोकसभा क्षेत्र में महज 70 लाख रुपये खर्च करने की सीमा तय की है। गोवा, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम और दिल्ली के अलावा अन्य केन्द्र शासित क्षेत्रों के लिए यह सीमा 54 लाख ही है। हाल में टीवी के कैमरों के सामने कई सांसद खुद दस गुना तक अधिक खर्च करने का दावा करते नजर आए। एक टीवी चैनल के स्टिंग कुछ नेताओं ने इस बात को माना कि चुनाव में करोड़ों रुपये खर्च हो जाना सामान्य सी बात है। इस सच्चाई को सभी जानते हैं कि मौजूदा दौर में एक लोकसभा क्षेत्र में चुनाव लडऩे के लिए प्रमुख प्रत्याशी करीब चार करोड़ रुपये आसानी से खर्च कर देते हैं। कई प्रत्याशियों का तो खर्च इससे भी काफी ज्यादा होता है। आज जब चुनाव आयोग ने बैनर-पोस्टर से लेकर प्रचार वाहनों तक की सीमा तय कर दी है तो आखिर प्रत्याशी इतना धन खर्च कहां करते हैं। अपना भारत ने इसकी गहराई से पड़ताल की।

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उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ संसदीय सीट से चुनाव लड़ रहे एक प्रत्याशी के खर्च का ब्योरा रखने वाले समर्थक के मुताबिक लोकसभा क्षेत्र आकार में बहुत बड़ा होता है। इसलिए इसमें धन भी ज्यादा खर्च होता है। चुनाव लडऩे के इच्छुक दावेदार को अपना टिकट पक्का होने से करीब एक साल पहले से ही चुनाव क्षेत्र में सक्रिय होना पड़ता है। ऐसे में क्ष़ेत्र में होने वाले सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों में भागीदारी करनी पड़ती है। कई बार ऐसे कार्यक्रमों का पूरा खर्चा उठाना पड़ता है और कभी आंशिक। औसतन ऐसे एक कार्यक्रम पर 50 हजार रुपये का खर्च आ जाता हैं। हर माह ऐसे चार सार्वजनिक कार्यक्रम भी हो जाए तो टिकट के दावेदार के इस तरह के कार्यक्रमों पर करीब दो से ढाई लाख रुपये प्रतिमाह और साल भर में करीब 25 से 30 लाख रुपये खर्च हो जाते हैं।

प्रचार वाहनों पर खर्च होती है भारी रकम

इसके बाद दावेदार के प्रत्याशी बनते ही इस खर्च की गति की कोई सीमा नहीं रह जाती है। फिर भी कई जरूरी खर्चे प्रत्याशी को करने होते है। चुनाव मैदान में उतरते ही प्रचार वाहनों की संख्या बढ़ानी पड़ती है। कई प्रत्याशी इन्हें किराये पर लेते हैं तो कई खरीद भी लेते हैं। एक अनुमान के अनुसार एक लोकसभा क्षेत्र में एक प्रत्याशी करीब 50 चौपहिया वाहन का इस्तेमाल करता है। इसमें लोकसभा क्षेत्र में आने वाली हर विधानसभा क्षेत्र में पांच-पांच वाहन, प्रत्याशी के साथ तीन वाहन तथा अन्य क्षेत्रीय मठाधीशों को भी वाहन उपलब्ध कराना पड़ता है। इसके अलावा बड़ी संख्या में दो पहिया वाहन भी चुनाव प्रचार में इस्तेमाल किए जाते हैं। इन वाहनों पर अच्छी रकम खर्च होती है क्योंक प्रत्याशी को इन सभी में ईंधन भराना पड़ता है। चौपहिया वाहनों में एक दिन के ईंधन का औसत खर्चा 40 से 50 हजार रुपये आता है तथा दोपहिया वाहनों में भी करीब 10 से 15 हजार रुपये ईंधन का खर्चा होता है। इस तरह से कुल ईंधन पर करीब 50 से 60 हजार रुपये प्रतिदिन खर्च होता है।

न्योता के साथ ही शादियों में देनी होती है मदद

इसके अलावा क्षेत्र की जनता के निजी कार्यक्रमों में शामिल होने में भी काफी खर्च होता है। दावेदार को सहालग में एक दिन में औसतन 15 से 20 निजी कार्यक्रमों में शामिल होना पड़ता है, जिसमे 1100 रुपये औसत व्यवहार देने पर भी प्रतिदिन 15 से 20 हजार रुपये खर्च हो जाते है। साल में दो बार आने वाली सहालग के चार माह में औसतन 25 लाख रुपये तो सिर्फ व्यवहार में खर्च हो जाते है। इतना ही नहीं लोकसभा क्षेत्र में कुछ गरीब परिवार भी होते है जहां लडक़ी की शादी में एक से दो लाख रुपये तक की सहायता देनी पड़ती है। साल भर में ऐसी शादियों में दावेदार का दस लाख रुपये तक खर्च हो जाता है। इसके अलावा साल में पडऩे वाले तीज-त्योहारों में भी दावेदार की अच्छी खासी धनराशि खर्च हो जाती है। इसके अलावा चुनाव के दौरान कई तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगते रहते हैं जिससे निपटने के लिए एक वकील की सेवा भी लेनी पड़ती है। वकील को कम से कम 25 हजार रुपये हर माह देने होते है यानी साल में करीब तीन लाख रुपये का खर्चा। मतलब साफ है कि टिकट की दावेदारी में ही करीब एक करोड़ रुपये खर्च हो जाते हैं।

प्रचार करने वालों को देना पड़ता है खर्चा

एक चौपहिया वाहन में चार से पांच लोग बैठाए जाते हैं। इन लोगों को दिन भर का खर्च देना होता है। इसके साथ ही समर्थकों और प्रचारकों के चाय-नाश्ते से लेकर भोजन तक का प्रबंध करना पड़ता है। कई प्रत्याशियों के समर्थक दूसरे शहरों से भी प्रचार के लिए आते हैं। उनके रुकने और ठहरने का इंतजाम भी करना पड़ता है।

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इसके अलावा अगर सहालग के समय चुनाव हो तो फिर सम्मानजनक व्यवहार का लिफाफा भी तैयार रखना पड़ता है। इसके साथ ही लोकसभा क्षेत्र में आने वाले सभी विधानसभा क्षेत्रों में रसोई का भी इंतजाम करना पड़ता है जहां प्रतिदिन दो से ढाई सौ लोगों के लिए सुबह की चाय से लेकर रात के भोजन तक का प्रबंध प्रत्याशी को ही करना पड़ता है।

कैश व शराब का वितरण भी आम बात

चुनाव के दौरान पार्टी के स्टार प्रचारकों के कार्यक्रम लेने पर उस कार्यक्रम का पूरा खर्चा प्रत्याशी को ही उठाना पड़ता है। इसके अलावा जैसे-जैसे चुनाव पास आते जाते हैं वैसे-वैसे चुनाव प्रचार में जोर लगाने के लिए सभी संसाधन बढ़ाने पड़ते हैं। हर लोकसभा क्षेत्र में कुछ जातिगत और धार्मिक नेता होते है।

उनकी जाति-धर्म या समुदाय के मत अपने पक्ष में करने के लिए ऐसे नेताओं को उपहार या कैश के रूप में नजराना पहुंचाना पड़ता है। इसके अलावा चुनाव से एक या दो दिन पूर्व ही शराब की भी व्यवस्था करनी पड़ती है जिस पर काफी धन खर्च होता है। शराब वितरण पर रोक के तमाम दावों के बावजूद सच्चाई यही है कि अब तक इस पर रोक नहीं लग सकी है। इतना ही नहीं कभी-कभी प्रत्याशी को अपने पक्ष में मतदान कराने के लिए कुछ स्थानों पर मतदाताओं के बीच नकदी भी बंटवानी पड़ती है।

पोलिंग बूथों पर भी होता खर्चा

मतदान के दिन लोकसभा क्षेत्र के सभी पोलिंग बूथों पर प्रत्याशी को बस्ता लगवाना होता है। यहां आठ से दस पार्टी कार्यकता व समर्थक हर पोलिंग बूथ पर तैनात रहते हैं जो मतदाताओं की पर्चियों का वोटर लिस्ट से मिलान करके उन्हें सही मतदान बूथ तक पहुंचाने में मदद करते हैं। सभी बस्तों पर मौजूद इन समर्थकों के लिए भी सुबह की चाय से लेकर रात के खाने तक का इंतजाम प्रत्याशी को ही करना होता है।

पेड न्यूज पर नहीं लग सकी है रोक

हालांकि चुनाव आयोग ने पेड न्यूज पर पूरी तरह से रोक लगा दी है, लेकिन वास्तविकता में अभी तक इस पर पूरी तरह रोक नहीं लग सकी है। चुनाव के दौरान प्रत्याशी को अपने चुनाव अभियान की कवरेज के लिए भी पत्रकारों या मीडिया हाउस को उपकृत करना पड़ता है। ऐसा करने पर ही चुनाव के दौरान प्रत्याशी की चुनावी गतिविधियों से जुड़ी खबरों का बेहतर ढंग से प्रकाशन हो पाता है।

कुल मिलाकर प्रत्याशी के चुनाव में अनुमानत: तीन करोड़ रुपये से ज्यादा ही खर्च हो जाते हैं। इस तरह से देखें तो दावेदार के तौर पर करीब एक करोड़ रुपये और प्रत्याशी के तौर पर खर्च किए गये करीब तीन करोड़ रुपये के खर्चे को जोड़़ा लिया जाए तो एक प्रत्याशी को जोरदार तरीके से चुनाव लडऩे के लिए कम से कम चार करोड़ रुपये एक लोकसभा क्षेत्र में खर्च करने की दरकार होती है।

1951 से 2014 तक खर्च में 46 गुना बढ़ोतरी

मौजूदा लोकसभा चुनाव में खर्च का अंदाजा तो चुनाव पूरा होने के बाद लगेगा, लेकिन वर्ष 1951 में देश के पहले लोकसभा चुनाव से वर्ष 2014 में हुए पिछले लोकसभा चुनाव तक प्रति वोटर खर्च में 46 गुना की बढ़ोतरी हुई है। गौरतलब है कि वर्ष 1951 के पहले लोकसभा चुनाव में प्रति वोटर खर्च एक रुपये के आसपास था, लेकिन 2009 में प्रति वोटर जो खर्च 15?54 रुपये था वह 2014 में 46.4 रुपये हो गया। पहले लोकसभा चुनाव से मौजूदा लोकसभा चुनाव के दौरान देश के मतदाताओं की संख्या में इजाफा हुआ है तो इसके सापेक्ष चुनाव खर्च में बेहिसाब इजाफा हुआ है। देश में पहले लोकसभा चुनाव में 20 करोड़ वोटरों की संख्या वर्ष 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब 90 करोड़ पहुंच गयी है।

पहले लोकसभा चुनाव में खर्च हुए एक रुपये प्रति वोटर के खर्च से शुरू हुआ लोकसभा चुनाव में अगले छह लोकसभा चुनाव तक लगभग इतना ही खर्च आया। वर्ष 1957 में हुए दूसरे लोकसभा चुनाव में सबसे कम 10 करोड़ रुपये खर्च हुए थे, लेकिन फिर लगातार खर्च बढ़ता गया। इसमें चुनाव अधिकारियों की नियुक्ति, पोलिंग बूथ, उपकरणों की खरीद और उनके इन्स्टॉलेशन, चुनावी केंद्र पर टेंपरेरी फोन की सुविधा, मतदान की इंक से लेकर अमोनिया पेपर जैसी सामग्रियों पर खर्च आया।

यूपी में 33.35 करोड़ रुपए कैश जब्त

यूपी में आयकर, नारकोटिक्स, पुलिस और आबकारी विभाग की कार्रवाई में 10 अप्रैल तक 158.7 करोड़ रुपए की कैश व अन्य सामान की जब्ती की गई है, जिसमें 33.35 करोड़ रुपए नकद, 17.78 करोड़ की ड्रग्स, 68.65 करोड़ का सोना-चांदी और 38.92 करोड़ रुपए की शराब शामिल है।

उत्तर प्रदेश के मुख्य निर्वाचन अधिकारी एल वेंकटेश्वर लू के अनुसार इसके अलावा प्रदेश में अब तक 6,064.82 किलोग्राम विस्फोटक सामग्री, 10,718 कारतूस और 4,132 बम बरामद किए गए हैं।

एक उदाहरण आंध्र प्रदेश का

चुनाव में पैसे से किस तरह वोट खरीदे जाते हैं इसका बढिय़ा उदाहरण आंध्र प्रदेश है। चुनाव में प्रत्याशियों द्वारा खर्च की जानी वाली रकम के मामले में दक्षिण भारत के राज्य मशहूर हैं और इनमें आंध्र लिस्ट में ऊपर है। यहां अब तक ११० करोड़ रुपए से ज्यादा कैश पकड़ा जा चुका है।

एक मतदाता के अनुसार मतदान से हफ्ता भर पहले से वोट की सौदेबाजी शुरू हो जाती है। आमतौर पर एक वोट की कीमत ३ हयार रुपए होती है लेकिन कभी-कभी यह ५ हजार तक पहुंच जाती है। इसके अलावा शराब और अन्य सामान भी मिलते हैं।

रिसर्च संस्था ‘एडीआर’ के अनुसार अगर भारत में एक सांसद की सालाना आय औसतन ३० लाख रुपए से ज्यादा है तो आंध्र प्रदेश में औसत आमदनी १ करोड़ रुपए है। राज्य के मतदाता भी अपेक्षा करते हैं कि नेतागण चुनाव में अपनी तिजोरियां खोल दें। माना जाता है कि आंध्र में लोकसभा चुनाव का एक प्रत्याशी २०० करोड़ रुपए से ज्यादा रकम अपने प्रचार में खर्च कर देता है। विधानसभा चुनाव में यह रकम ३० करोड़ रुपए से ज्यादा बैठती है। प्रत्याशी कैश के अलावा वाशिंग मशीन, मोबाइल फोन, फ्रिज, टीवी वगैरह धड़ल्ले से बांटते हैं।

लगातार बढ़ रहा प्रत्याशियों का खर्च

प्रत्याशियों के असल खर्च में मतदाताओं और स्थानीय प्रभावशाली लोगों को दी जानी वाली गिफ्ट या कैश शामिल होती है। स्थानीय प्रभावशाली लोगों से तात्पर्य है इलाके के नेता, गांव के प्रधान, हाउसिंग सोसाइटी के अध्यक्ष, जातीय संगठनों के नेता, व्यापार मंडल जैसे संगठनों के नेता आदि से है।

एक अध्ययन के अनुसार बड़े प्रत्याशी अपने बजट का ६५ फीसदी तक हिस्सा मतदाताओं को गिफ्ट देने में खर्च कर देते हैं। गिफ्ट में कैश, शराब, छोटे-मोटे गहने, साड़ी-कपड़े, बर्तन आदि शामिल होते हैं। चुनाव अभियान के अंतिम समय में बहुत महीन तरीके से गिफ्ट बांटे जाते हैं।

खर्च में अपने कार्यकर्ताओं को दिया जाने वाला मेहनताना, भाषणों व रैलियों में लाई जानी वाली भीड़ का किराया भी शामिल है। एक अनुमान के मुताबिक प्रत्याशी अपने बजट का दस फीसदी हिस्सा कर्मचारियों के वेतन और १० से ४० फीसदी तक किराए की भीड़ पर खर्च करते हैं। मतदाताओं की संख्या बढऩे के साथ-साथ प्रत्याशियों का खर्च भी बढ़ता जाता है। इसके अलावा अब चुनाव प्रचार ज्यादा बड़ा, ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक, ज्यादा प्रोफेशनल होता जा रहा है। सो खर्च भी उसी अनुपात में बढ़ रहा है।

चुनावी खर्च के आंकड़ों में भारी अंतर

लोकसभा चुनाव 2014 के दौरान किए गए चुनावी खर्च पर पार्टियों और उनके प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए आंकड़ों में भारी अंतर सामने दिखता है। एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा और कांग्रेस समेत पांच राष्ट्रीय दलों के 342 सांसदों में से 263 ने बताया कि उन्हें अपनी पार्टियों से कुल 75.58 करोड़ रुपये मिले। जबकि इन पार्टियों के मुताबिक उन्होंने सिर्फ 175 सांसदों को 54.73 करोड़ रुपये दिए गए थे।

रिपोर्ट के अनुसार भाजपा ने कुल 282 सांसदों में से 159 को चुनावी खर्च मुहैया कराया। इनमें 105 सांसदों ने ही समान राशि दर्शाई। 35 सांसदों ने राशि बढ़ाकर बताई और 18 ने घटाकर। भाजपा के 70 सांसद ऐसे रहे जिन्होंने कहा कि उन्हें कुल 14.36 करोड़ रुपये पार्टी से मिले थे। जबकि पार्टी द्वारा प्रस्तुत चुनावी खर्च की रिपोर्ट के मुताबिक उसने इन सांसदों को एक भी पैसा नहीं दिया था।

कांग्रेस ने अपने 44 में से सिर्फ सात सांसदों को ही चुनावी खर्च के रूप में धनराशि दी जबकि 11 सांसदों का कहना है कि पार्टी ने उन्हें कुल 1.08 करोड़ रुपये दिए। कांग्रेस के मुताबिक उसने अपने सात सांसदों को चुनावी खर्च के लिए कुल 2.70 करोड़ रुपये दिए। इनमें से छह ने पार्टी द्वारा बताई गई राशि के समान ही चुनावी खर्च बताया।

पांच राष्ट्रीय दलों (भाजपा, कांग्रेस, एनसीपी, सीपीएम, सीपीआई) में सिर्फ सीपीएम के सांसदों और पार्टी के लेन-देन में कोई अंतर नहीं दिखा। जितना पार्टी से उन्हें मिला है, उतना ही पार्टी ने दिखाया। सीपीएम ने नौ में से चार सांसदों को चुनावी खर्च के लिए 1.28 करोड़ रुपये दिए थे। सीपीआई के न तो किसी सांसद और न ही पार्टी ने चुनावी खर्च का ब्योरा दिया।

एनसीपी के लोकसभा में छह सांसद पहुंचे थे। पार्टी ने इनमें से पांच को चुनावी खर्च के रूप में 2.05 करोड़ रुपये दिए। दो सांसद ऐसे थे जिन्होंने बताया कि उन्हें पार्टी से 1.24 करोड़ रुपये मिले जबकि एनसीपी का कहना है कि उसने इन सांसदों को एक करोड़ रुपये दिए।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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