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Lok sabha election 2019 : राष्ट्रपति प्रणाली की सुगबुगाहट!

लोकसभा चुनाव 2019। यह चुनाव बहुत अलग तरह का और बहुत खास साबित हो रहा है। चुनाव लगभग पूरा होने को है। इस चुनाव की सबसे खास बात यह है कि इस मर्तबा जनता सीधे प्रधानमंत्री का चयन कर रही है।

Anoop Ojha
Published on: 10 May 2019 1:59 PM IST
Lok sabha election 2019 : राष्ट्रपति प्रणाली की सुगबुगाहट!
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राजीव सक्सेना

लखनऊ: लोकसभा चुनाव 2019। यह चुनाव बहुत अलग तरह का और बहुत खास साबित हो रहा है। चुनाव लगभग पूरा होने को है। इस चुनाव की सबसे खास बात यह है कि इस मर्तबा जनता सीधे प्रधानमंत्री का चयन कर रही है। न तो कोई पार्टी की बात कर रहा है और न प्रत्याशी की। फैसला एक ही करना है - नरेन्द्र मोदी को पीएम बनने के पक्ष में वोट डालना है या मोदी को हटाने के लिए। 2019 के चुनाव का पूरा प्रचार, भाषण, सोशल मीडिया कैंपेन, आरोप - प्रत्यारोप, सब कुछ मोदी को केंद्र बिंदु में रख कर है। जहां भाजपा के प्रत्याशी मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं, पार्टी का नारा भी है - फिर एक बार मोदी सरकार। वहीं कांग्रेस, सपा, बसपा आदि मोदी के खिलाफ कड़ी से कड़ी बात कह कर मोदी हटाओ के नारे पर वोट मांग रहे हैं।राजनीतिक गलियारों में, सड़क, गली और नुक्कड़ पर भी चर्चा उभर रही है कि देश 'प्रेसिडेंशियल सिस्टम की ओर बढ़ रहा है। ऐसा महसूस किया जा रहा है कि देश के हालात सुधारने के लिए जनता द्वारा सीधे चुने गए शासन की राष्ट्रपति व्यवस्था की परम आवश्यकता है। यानी एक ऐसा राष्ट्रपति जो संसदीय प्रणाली की जंजीरों से काफी हद तक मुक्त हो, जो छुटपुटिया राजनीतिक तत्वों और दलों के निजी स्वार्थों से स्वतंत्र हो और जो विषय विशेषज्ञों की सरकार बनाकर देशहित में ईमानदारी और द्रुत गति से काम कर सके।

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एक ऐसा सिस्टम जो अमेरिकी शासन सिस्टम सरीखा हो। वर्तमान संसदीय प्रणाली, विकास में अवरोध पैदा करने और भ्रष्टाचार को प्रश्रय देने में अव्वल रही है। अपवाद छोड़ दें तो नेता और नेतागिरी आज की सर्वाधिक प्रचलित गालियां हैं। कमोबेश सारा राजनीतिक वर्ग भ्रष्टाचार में लिप्त है। पुराने खिलाड़ी इसमें आकंठ डूबे हुए हैं। नए नवेले तत्परता व तन्मयता से करप्शन का क्रैश कोर्स करने में रत हैं। राजनीतिक व्यवस्था ऐसी है कि यह सब किए बिना उसमें टिके रहना भी असंभव है।

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यह तो सभी जानते हैं कि राष्ट्रपति प्रणाली के आने की 'आशंका का ढिंढोरा उन्हीं विपक्षी दलों ने पीटा था जो कल तक टुकड़े-टुकड़े थे। आज भी ये दल यथार्थ में बंटे हुए ही हैं पर एकता का मुखौटा लगाए हैं। अंतद्र्वंद इतना है कि रोज मुखौटे गिर जाते हैं और असली चेहरा सामने आ जाता है। लीपा पोती कर समस्त विपक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ राग 'लांछन-लंतरानी गाने लगता है। यह राग काफी समय से उच्च स्वरों में गाया जा रहा है। लोकसभा चुनाव के सात चरणों में से पांच तो संपन्न हो गए हैं। विपक्ष बचे खुचे समय में और पैने व अभद्र आरोपों की खोज में जुटा है।

स्मरण रहे कि अन्य चुनिंदा गालियों की श्रृंखला में विपक्ष जन, विशेषत: विलक्षण कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और उनकी बहन प्रियंका और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मोदी को तानाशाह की उपाधि से विभूषित किया था। कांग्रेस ने ही भारत में आपातकाल की घोषणा कर तत्कालीन विपक्षी दिग्गजों और कार्यकर्ताओं को कारागार में ठूंस दिया था तथा संविधान द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को कुचल दिया था। 1984 में हजारों सिखों का नरसंहार भी कांग्रेस पर एक बदनुमा दाग है।

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चुनी हुई राज्य सरकारों को पलटना कांग्रेस नेतृत्व का शगल हुआ करता था। ममता दीदी को तो डंडे से राज करने में महारत हासिल है; उनका कोई सानी नहीं। और तानाशाही का आरोप नरेंद्र मोदी पर है। अलबत्ता विपक्ष के इस असफल दांव का लाभ भी नरेंद्र मोदी को ही मिल रहा है। जन मानस में सुप्त प्रेसिडेंशियल सिस्टम का विचार जाग उठा है और चर्चित हो रहा है। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि की भांति भारत भी अपने राष्ट्रपति का सीधे चुनाव कर सकता है। आवश्यक होगा कि राष्ट्रपति समस्त राष्ट्र में पैठ रखता हो और चुनाव में समग्र जन समर्थन प्राप्त करे। शासन की एकल व्यवस्था हो। मिलीजुली सरकार में जोड़तोड़ द्वारा छुटभैय्यों की पार्टियां मंत्री पद नहीं हथिया सकेंगी। सांसदों की खरीद फरोख्त का अंत होगा।

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बेहतर तरीके का शासन - प्रशासन

अधिक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि राष्ट्रपति विधायिका के बाहर से भी विषेशज्ञों को लाकर मंत्री बना सकता है। यानी इस प्रणाली में राष्ट्रपति राजनीति की बजाएअसली जन कल्याण के कार्य (परफॉरमेंस) पर अधिक ध्यान दे सकता है। नीति निर्माण, प्रशासन, शासन और नियमन में सुधार होगा। ऐसा भी नहीं है कि राष्ट्रपति निरंकुश हो जाए क्योंकि विधायिका का अपना परिभाषित रोल रहेगा।

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जटिल है व्यवस्था परिवर्तन

नयी प्रणाली को लाना भी एक जटिल कार्य है। इसमें आड़े आती है संविधान से जुड़ी सुप्रीम कोर्ट द्वारा 1973 में प्रतिपादित 'बेसिक स्ट्रक्चर डॉक्ट्रिन' जिसके तहत संविधान की मूलभूत संरचना में परिवर्तन वर्जित है। यह भी साफ नहीं है कि भारत किस देश की प्रेसिडेंशियल प्रणाली जैसा परिवर्तन चाहेगा। अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, क्यूबा और लैटिन अमेरिका के अनेक देशों की राष्ट्रपति प्रणाली में बड़ी भिन्नताएं हैं।

सर्वमान्य नेता

वर्तमान समय में नरेंद्र मोदी के अलावा देश में कोई सर्वमान्य नेता नहीं है। अत: समस्त विपक्षी दल नयी प्रणाली लागू करने के किसी भी प्रयास का घनघोर विरोध करेंगे। क्षेत्रीय भिन्नता को भी उभारा जा सकता है। तमिलनाडु में तो अलगाववादी विचारधारा का पुराना इतिहास है। बीते समय में हिंदी भाषा और 'आर्यन संस्कृति के प्रबल और हिंसक विरोध का इतिहास रहा है।

नयी प्रणाली पर विमर्श आज की बात नहीं है। नेहरू और इंदिरा काल में भी इस पर गौर किया गया किन्तु परिवर्तन की आवश्यकता हमारे राजनीतिक वर्ग के गले तहत नहीं उतरी। नेताओं के स्वार्थ वर्तमान संसदीय प्रणाली से अभिन्न रूप से जुड़े हैं। उसकी विकृतियों से भारतीय समाज रोज दो चार होता है पर लाचार है। संभवत: इसीलिए भाजपा के घोर समर्थक भी आज पार्टी को नहीं अपितु मोदी को वोट देने की बात करते हैं। दल से अधिक उसके नेता में जन विश्वास घर कर गया है। हो सकता है कि यह मानसिकता भारत में प्रेसिडेंशियल सिस्टम का प्रथम सोपान सिद्ध हो।

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काम की बजाए किसी लीडर की इमेज बिल्डिंग ज्यादा आसान है। सभी दलों की व्यक्ति विशेष पर निर्भरता ही अंतत: चुनाव को राष्ट्रपति प्रणाली के समकक्ष नहीं रख देती। भारत की सनातन विविधता और फिर उपनिवेशवादी अनुभव से उपजी एकता व अखण्डता की आवश्यकता देश में राष्ट्रपति प्रणाली को अनुपयुक्त बनाती है। चुनाव प्रणाली में बदलाव नहीं, सुधार की आवश्यकता है।

- डॉ. श्रीश पाठक, राजनीतिक समीक्षक

'पीएम मोदी के बहाने ऐसा प्रचारित किया जा रहा है कि देश राष्ट्रपति चुनाव की तरह एक दूसरे तरह की लोकतांत्रिक व्यवस्था की तरफ बढ़ रहा है। यह पहली बार नहीं है। चाहे नेहरू का दौर हो या इंदिरा गांधी का, सबमें देश को ऐसा लगता रहा है। हमें अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर यकीन रखना होगा। यहां न तो कोई निरंकुश हो सकता है न ही यहां की जनता किसी को निरंकुश होने देगी।

- प्रो. मानवेन्द्र सिंह, राजनीति शास्त्र, गोरखपुर विश्वविद्यालय

'राजनीति व्यक्तिपरक होती दिख रही है, जो लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। यदि व्यक्ति संगठन और पार्टी के उपर दिखने लगेगा तो निरंकुशवाद को बढ़ावा देगा। ऐसा नहीं है कि नरेन्द्र मोदी के रूप में यह सिर्फ भाजपा में ही व्यक्तिवाद दिख रहा है। कांग्रेस में भी एक परिवार की विचारधारा हावी दिखती है। सपा और बसपा सरीखी पार्टियों में भी व्यक्तिवाद ही हावी है।

- प्रो. विनीता पाठक, राजनीति शास्त्र, गोरखपुर विश्वविद्यालय

'एकाध राजनीतिक दल द्वारा यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि भारत में संसदीय किस्म की सरकार के भीतर ही प्रधानमंत्री को सारी शक्तियां दे दी जानी चाहिए। यह भारतीय राजनीति में नायकत्व की अतृप्त अभिव्यक्ति है। भारत जैसे देश में जहां जाति, धर्म और संस्कृति की बहुलता है, राष्ट्रपति के नेतृत्व में शासन की कल्पना और मांग लोकतंत्र के जमीनी यथार्थ से मेल नहीं खाएगी।

- डा. आनन्द पाण्डेय, सचिव, कुशीनारा उच्च अध्ययन संस्थान

राजनीतिक विकास की प्रक्रिया का एक चरण है प्रेसिडेंशियल सिस्टम, जो अमेरिकी लोकतंत्र की विशेषता है। हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली भी उसी दिशा में बढ़ेगी क्योंकि यह क्रमिक परिवर्तन एक सामान्य प्रक्रिया है। गठबन्धन के दौर के बाद भी राजनीतिक दल एक खास चेहरे को सामने कर चुनाव लड़ रहे हैं। पंडित नेहरू से लेकर मोदी तक के चुनाव व्यक्ति केंद्रित ही रहे हैं।

- डॉ. मनीष पांडेय, रीडर, गोरखपुर विश्वविद्यालय

'यह सही है कि २०१९ का लोकसभा चुनाव पूरी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर केंद्रित हो गया है। व्यक्ति केंद्रित या सीधे प्रधानमंत्री चुनने का चुनाव कोई पहली बार नहीं हो रहा है। पहले भी इन्दिरा गांधी के पक्ष में या उनके विरोध में केंद्रित चुनाव होते थे। मैं इसे राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली की भांति नहीं मानता हूं। सबसे पहला और अहम बदलाव राजनीतिक दलों में चुनावी भ्रष्टाचार की बुराई को दूर करने का होना चाहिए।

- प्रोफेसर सुखबीर सिंह, राजनीतिक विशेषज्ञ

'हमारे देश में व्यक्ति केंद्रित चुनाव आजादी के बाद से ही होते रहे हैं। आज तो अधिकांश राजनीतिक दल व्यक्ति विशेष की निजी संपत्ति बनकर रह गए हैं। वर्तमान चुनाव प्रणाली के अंतर्गत लोकतंत्र के मौलिक आधार एवं आवश्यकता के अनुरूप जिम्मेदारी, जवाबदेही तथा पारदर्शिता पर आधारित दलों का संचालन संभव ही नहीं रह गया है। इसलिए बदलाव बहुत जरूरी है।

- अतुल शर्मा, समाजशास्त्री

'यह सही है कि वर्तमान चुनाव मोदी पर जनमत संग्रह है। इससे पहले किसी चुनाव में एक व्यक्ति इस तरह से विमर्श के केंद्र में नहीं रहा है। बीजेपी और विपक्ष, दोनों ने ही मोदी को चुनाव का केंद्र बिंदु बना दिया है। फिर भी इसे व्यक्ति केंद्रित या सीधे प्रधानमंत्री चुनने का चुनाव इसलिए नहीं मान सकते हैं कि विपक्ष की तरफ से प्रधानमंत्री के रूप में किसी का भी नाम घोषित नहीं किया गया है। निर्वाचन प्रक्रिया और राजनीतिक दल व्यवस्था में काफी सुधार की गुंजाइश है। सभी दलों के लिए चुनाव से पहले यह घोषित करना जरूरी होना चाहिए कि उनका पीएम कैंडीडेट कौन है।

- रजनीश कुमार, राजनीतिक विशेषज्ञ

'वर्तमान चुनाव मोदी के पक्ष या मोदी के विरोध में केंद्रित है लेकिन यह सीधे प्रधानमंत्री चुनने का चुनाव नहीं है। यह चुनाव इस बात को लेकर है कि देश को मोदी के रूप में देश का प्रधानमंत्री दोबारा चाहिए या नहीं। जहां तक चुनाव प्रणाली में सुधार की बात है तो चुनाव के समय लोकतंत्र के महान उत्सव के जैकारे लगने लगते हैं, लेकिन असल में यह तो राजे रजवाड़ों की कोई प्रतियोगिता सरीखी है। ब्रिटिश लेखक और इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने अपनी मशहूर किताब 'इंडिया: अ पोट्रेटÓ में लिखा था कि वह दिन दूर नहीं जब भारत में एक तरह से राजशाही जैसी कायम हो जाएगी। जहां पीढ़ीगत व्यवस्था के तहत कोई शासक गद्दी पर होगा व भारतीय संसद कुनबों का सदन हो जाएगा। जाहिर है कि ये उस अंदेशे को भी सच्चाई में बदल सकता है।

- रेणु, समाजशास्त्री

'यह सही है कि इस बार लोकसभा चुनाव मोदी के पक्ष या मोदी के विरोध में केंद्रित है लेकिन यह सीधे प्रधानमंत्री चुनने का चुनाव नहीं है। ऐसा कहना तब सही होता जब दूसरी तरफ से भी कोई प्रधानमंत्री का चेहरा होता। इस चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव प्रणाली की भांति मानना भी गलत है। क्योंकि उसमें जनता का कोई सीधा रोल होता ही नहीं है। नेहरू काल से लेकर आज तक आमतौर पर चुनाव व्यक्ति केंद्रित ही रहे हैं। हां, चुनाव प्रणाली में बदलाव उचित और अपेक्षित है। क्योंकि आज के समय में राजनीति को मनमाने ढंग से चलाया जा रहा है।

- यतिन्द्र कुमार, राजनीतिशास्त्री

'यह चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव जैसा नहीं है लेकिन प्रयास बिलकुल वैसे ही हैं। व्यक्ति केंद्रित राजनीति एक विलोम सहसम्बन्ध है। किसी नारे या करिश्मा विशेष से चुनाव प्रणाली नहीं बदली जा सकती है। इस तरह का बदलाव उचित नहीं है और न ही जनता इसे स्वीकार करेगी।

- यू.बी. सिंह, असोसिएट प्रोफेसर फिरोज गांधी कालेज

'इस बार का चुनाव मोदी के पक्ष या विरोध में है लेकिन फिर भी यह अमेरिकी राष्ट्रपति जैसा चुनाव नहीं है। मौजूदा दौर में देश की संसदीय चुनाव प्रणाली में बदलाव संभव भी नहीं है। फिर भी अगर इस तरह का बदलाव किया गया तो अस्तित्व खतरे में आ जाएगा।

-आर.बी. कटियार, एसोसिएट प्रोफेसर, फिरोज गांधी कालेज

'इस चुनाव को राष्ट्रपति चुनाव की भांति नहीं कहा जा सकता। जब भी कोई कद्दावर पीएम कैंडीडेट का चेहरा आ जाता है तो चुनाव व्यक्ति केंद्रित हो जाता है। ऐसा इंदिरा गांधी के जमाने में हो चुका है। अभी तो शुद्ध संसदीय शासन प्रणाली का चुनाव है। यह एक नेगेटिव राजनीति जरूर है क्योंकि विपक्ष सिर्फ एक बिंदु पर एकमत है कि मोदी हटाओ।

- डॉ. एम.एस. मिश्रा, राजनीतिविज्ञानी

(गोरखपुर से पूर्णिमा श्रीवास्तव, मेरठ से सुशील कुमार, रायबरेली से नरेन्द्र सिंह)



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Anoop Ojha

Anoop Ojha

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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