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नेताजी की नहीं सुनी लेकिन अब इस सीख को तो मान लो अखिलेश

अब मायावती 11 विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में अकेले दम पर लड़ने की बात कर रही है। मौजूदा लोकसभा चुनाव का नतीजा देख कर मायावती समझ गयी है कि यादवों का वोट उन्हे नहीं मिल पायेगा, चाहे प्रदेश में यादवों के सबसे बड़े अलमबरदार ही उनको समर्थन करे।

Shivakant Shukla
Published on: 4 Jun 2019 1:18 PM GMT
नेताजी की नहीं सुनी लेकिन अब इस सीख को तो मान लो अखिलेश
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लखनऊ: आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भविष्यवाणी सही साबित हुई। बसपा सुप्रीमों मायावती ने न केवल गठबंधन टूटने के संकेत दिये बल्कि यह भी कह दिया कि सपाइयों को अभी बहुत कुछ सीखना होगा।

मायावती की यह बात एक दम सही भी है, अपने सियासी और अनुभवी पिता मुलायम सिंह यादव की बात नहीं मानने वाले अखिलेश को भी अब मायावती के इस कदम से कुछ सियासत सीख लेनी चाहिये। जहां तक गठबंधन के नफे-नुकसान की बात है तो साफ है कि गठबंधन के प्रयोग से मायावती को तो सियासी लाभ हो गया लेकिन अखिलेश काफी नुकसान में रह गये।

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अब मायावती 11 विधानसभा सीटों पर हो रहे उपचुनाव में अकेले दम पर लड़ने की बात कर रही है। मौजूदा लोकसभा चुनाव का नतीजा देख कर मायावती समझ गयी है कि यादवों का वोट उन्हे नहीं मिल पायेगा, चाहे प्रदेश में यादवों के सबसे बड़े अलमबरदार ही उनको समर्थन करे।

वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद हुये तीन लोकसभा सीटों पर हुये उपचुनाव में सपा व रालोद ने अपने प्रत्याशी खडे़ किये थे और बसपा ने उन्हे समर्थन किया था। इन तीनों ही सीटों पर भाजपा के खिलाफ इस गठबंधन को सफलता मिली थी। लेकिन यही गठबंधन जब लोकसभा चुनाव 2019 में फेल हो गया तो साफ जाहिर हो गया कि बसपा तो अपना वोट सपा प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर करवाने का माददा रखती है लेकिन सपा अपना वोट बसपा प्रत्याशियों के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करवा पाती है।

इसके अलावा लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बसपा सुप्रीमों यह भी समझ गयी है कि केवल ऊपरी तौर पर दो नेताओं के हाथ मिला लेने से उनके वोट बैंक के बरसों से चली आ रही वैमनस्यता खत्म नहीं हो सकती है। सपा के परम्परागत यादव मतदाताओं और बसपा के परम्परागत जाटव मतदाताओं के जमीनी स्तर पर खेत-मेढ़ के झगड़े है। जो केवल उनकी सियासी अपीलों से खत्म नहीं हो सकते।

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दरअसल, मायावती की राजनीति का यह शगल रहा है कि वह अपनी पार्टी का फायदा करवाना बेहतर तरीके से जानती हैै और जब-जब बसपा का जनाधार खिसका है, मायावती ने दूसरे दलों के साथ तालमेल करके अपनी पार्टी की सियासी ताकत मे इजाफा किया है। बसपा के संस्थापक कांशीराम ने यूपी में अपनी पार्टी का आधार बढ़ाने के लिए मुलायम सिंह यादव की सपा का इस्तेमाल किया। यह तालमेल ज्यादा दिन नहीं चल सका। इसके बाद बसपा की कमान संभाल रही मायावती ने भाजपा के साथ मिलकर वर्ष 1995, 97 और 2002 में तीन बार सरकार बनायी और तीनों ही बार उन्होंने चलती सरकार की राह में रोडे डाले और वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में बड़ी सियासी हैसियत के साथ यूपी में पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।

कुछ ऐसा ही इस बार भी हुआ। लोकसभा चुनाव 2014 के बाद से ही मायावती और उनकी पार्टी के सियासी सितारे लगातार गर्दिश में चल रहे थे। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उन्हे एक भी सीट नहीं हासिल हो पायी थी। इसके बाद वर्ष 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में भी बसपा 80 विधानसभा सीटों से सिमट कर 19 विधानसभा सीटों पर आ गयी। लगातार हाशिये पर जाने से पार्टी की साख पर भी असर पड़ रहा था और मायावती को यह बिलकुल भी मंजूर नहीं था। सियासी तौर पर परिपक्व हो चुकी मायावती गठबंधन करने से पहले ही जानती थी कि इस गठबंधन से वह बड़ी सफलता भले ही हासिल न कर पाये लेकिन राजनीतिक तौर पर गर्दिश में चल रही उनकी पार्टी को फिर से आक्सीजन मिल जायेगी।

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Shivakant Shukla

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