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कहानी: फ्लैट नं. 301, बिल्डिंग को में कई अफवाहें

raghvendra
Published on: 9 Nov 2019 6:00 PM IST
कहानी: फ्लैट नं. 301, बिल्डिंग को में कई अफवाहें
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यशवंत कोठारी

सामान्यतया अमर रात को काफी देर से ही अपने फ्लैट में पहुंचता था। कभी-कभी तो सुबह होने के थोड़ी देर पहले ही वह घर में घुसता है और दोपहर तक सोता रहता है। आसपास के फ्लैट वाले सोए होते हैं, चौकीदार की ऊंघ को तोडक़र वह लिफ्ट के सहारे अपने फ्लैट नं. 301 तक पहुंचता और ताला खोलकर थका हारा पड़ा रहता। इस फ्लैट के बारे में बिल्डिंग में कई अफवाहें थीं। लेकिन अमर ने इन अफवाहों की ओर कभी भी ध्यान नहीं दिया। वो जानता था लोग उसे पसंद नहीं करते, मगर वह बिल्डिंग के सदस्य के रूप में अपना भुगतान समय पर करता। बस...। और किसी भी चीज से उसका कोई विशेष ताल्लुक नहीं था। हां, जब वह बाहर निकलता तो बिल्डिंग के लोग उसे अजीब नजरों से देखते थे। खासकर मध्यम वय की महिलाएं मगर अमर नीची गर्दन करके आता और नीची गरदन करके जाता। कोई नहीं जानता है उसकी आय के साधन क्या है और वह किसी से कोई बातचीत नहीं करता था। यह वह समय होता था जब बिल्डिंग के सभी लोग बेखबर होकर सोए रहते।

दूधवाला, अखबारवाला, कामवाली बाई आदि के आने से कभी-कभी सन्नाटा टूट जाता था। बस। बाकी बिल्डिंग के लोग देर से उठते थे। कुछ बूढ़े-बूढिय़ां सुबह की सैर को जाने की तैयारी कर रहे होते तो कुछ बच्चे स्कूल की तैयारी करते होते। अमर बिना कपड़े बदले सो जाता। रात भर की थकान, शराब और काम का बोझ उसे दोपहर तक सोने को मजबूर कर देता। कई बार वह सोचता सुबह का सूरज देखे कितना वक्त बीत गया। रात का सन्नाटा सुनते कितनी रातें बीत गई। एकांत में वह स्वयं सोचता उसका यह अपार्टमेंट किन अर्थों में घर था। एक अनाथ, अविवाहित, आवारा और बदलचलन (जैसा उसे अन्य लोग कहते) का घर या फ्लैट या अपार्टमेंट या रात्रि को ठहरने, सोने, नहाने की जगह... बस...। घर का मतलब शायद यही था उसके लिए। वह सोचता काश... उसका भी घर होता पत्नी होती, बच्चे होते। वो सांझ ढले घर आता। एक पेग पीकर फ्रेश होकर सब बाजार जाते, खाते-पीते, देर रात घर आते। बच्चे सो जाते। वो और पत्नी सपनों की दुनिया में खो जाते। मगर यह सब शायद उसकी किस्मत में नहीं था। वो तकिए में मुंह छिपाकर पड़ गया।

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अमर का जीवन भी क्या जीवन था। होटल के चकाचौंध भरे कमरे, कैबरे, डांस, बार, बार बालाएं, झूठी उम्मीदें, घिसे-पिटे वादे, महंगे तोहफे, महंगी साडिय़ां, महंगी लिपिस्टकें, महंगी कारें, महंगी ज्यूलरी, मगर सस्ती और ज्यादा सस्ती जिंदगी जो नाममात्र की होती।

उसका काम था नव धनाढ्यों की खूबसूरत बीवियों को खुश करना और बदले में एक आलीशान शानदार रईसी जीवन जीना, भोगना और कुंठाओं के बारे में सोचना। हर समय बस सोचना। क्योंकि वह कर कुछ नहीं सकता था। उसने अपने बॉडी शेपिंग एजेंट से कह दिया था यार बस बहुत हो गया और नहीं इस गलीज जिंदगी से मुझे अलग हो जाने दो।

मगर ऐसा हो नहीं सकता माई डियर। इस जिंदगी में आने के रास्ते तो हजारों है मगर वापसी का कोई रास्ता नहीं है और फिर इन नई उम्र के लडक़ों की तुलना में तुम्हारी रिपीट वेल्यू बहुत ज्यादा है। एजेंट ने साफ-साफ बात कही। उस दिन बंबई की उस बड़ी कार्पोरेट हस्ती ने तुम्हें ही नहीं मुझे भी बहुत बड़ी और महंगी गिफ्ट दी थी। जब भी दिल्ली आती है तो तुम्हें ही पहले से बुक करने को कहती है।

एजेंट ने यह कहकर फोन बंद कर दिया। अमर क्या करें। उसे इसी समाज, इसी दुनिया में रहना और इसे ही भुगतना है। कई बार विदेशी मेहमान तक उसकी फरमाइश करते। अमर कई बार तो मना कर देता या अन्यत्र बुकिंग की बात कह कर टाल जाता। मगर बकरे की मां कब तक खैर मनाती है? कभी-कभी तो उसे अपने आपसे और इस माहौल से घृणा हो जाती। मगर सब कुछ ऐसे ही चलता रहता। उसने चलने दिया। अपने वजूद को मारकर चलने दिया।

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कई बार वो सोचता इन क्लाइंटों के पास क्या नहीं है। सबकुछ। अरबों रुपये, कंपनियां, पति, बच्चे, नौकर-चाकर, मगर फिर भी खुश नहीं। खुशी, उल्लास, उमंग, प्रसन्नता कोई बाजार से मिलने वाली चीज नहीं है कि उसे डायमंड के नेकलेस की तरह पहन लिया जाए या रिस्ट वाच की तरह कलाई में बांध दिया जाए। वे केवल चेंज के लिए उसे बुलातीं, मुंहमांगी कीमत देतीं, कीमती तोहफे देतीं और अगली फ्लाइट से वापस उड़ जातीं। उसे लगता क्लाइंट का क्या है। चाटेगी, चूमेगी, खाएगी, नोचेगी, बाद में शराब में डूब जाएगी। बिस्तर तक उसे लाना पड़ेगा। फिर वह भी उसमें डूब जाएगा। होश किसे रहता है, होश रखना कौन चाहता है। अंग्र्रेजी की कविताएं, कालिदास की सूक्तियां और वात्स्यायन के आसनों की जानकारी इन क्लाइंटों को होती थी। वे सब आजमाती और अमर भारी लिफाफे, महंगी गिफ्ट के लिए सबकुछ करता जाता। सोचने समझने की न फुरसत थी न आवश्यकता। वह सोचता अपना काम पूरी ईमानदारी और मेहनत से करो। जो करो दिल से करो। हार-जीत का सवाल नहीं है। काम खत्म हो तो सो जाओ। उठो, चलो अपना माल गिनों और गाड़ी पकड़ो। कई बार अमर को लगता उसके शरीर को किसी नागिन ने अपने पाश में जकड़ लिया है। उसे नागिन डस रही है। उसे अपने शरीर पर सांप, बिच्छू, केंचुए रेंगते हुए महसूत होते। वह इन विष कन्याओं, महिलाओं से ज्यादा गिफ्ट ऐंठने में लग जाता। कभी-कभी उसे अजीब-अजीब से सपने आते। सपने में कभी वो देखता अजीब मुखौटे लगाए औरतें, गातीं, रोतीं, चिल्लातीं औरतें। उनके नंगे बदन, काली, सफेद चमड़ी, जांघें और न जाने क्या-क्या उसे पूरा शरीर एक जननांग लगता। उसकी नींद खुल जाती। वो पसीने से तरबतर हो जाता।

कई बार उसे दुख होता। आश्चर्य होता सबकुछ है इन लोगों के पास और कुछ भी नहीं है। खाली... शून्य... अंधेरा... और बस अंधेरा। कई बार तो वह गिफ्ट नहीं लेता। मगर जबरदस्ती उसे दी जाती।

रख लो यार। किसी और को दे देना। मुझे तुम पसंद हो। अच्छे लगते हो। तुम्हारे लिए यूरोप से लाई हूं। सबकुछ है मेरे पास बस प्यार नहीं है, वो तुममें पाकर एक रात के लिए खुश हो जाती हूं। इसी खुशी की कीमत भी देती हूं। वो क्या कहता चुपचाप रख लेता। एजेंट के अनुसार बड़े क्लाइंटों को नाराज करना ठीक नहीं रहता। वे सब आपस में एक-दूसरे को बताती हैं और इसी प्रकार धंधा चलता है तो यह भी एक धंधा है। हो जाए यार धंधा, व्यवसाय। खाओ जी के। ऐश करो। मस्ती करो और ऊपर से एक रईसाना जिंदगी और क्या चाहिए। एजेंट ने उसकी पीठ थपथपाई और चला गया।

एक दिन अमर को अजीब अहसास हुआ। एक विदेशी महिला ने उसका पासपोर्ट मांग लिया। चलो तुम्हें अपने देश ले चलती हूं। वहां पर मौजमस्ती करना मगर अमर का दिल नहीं माना। वो नहीं गया। उसे फिर याद आया। पिछली बार एक फिल्म प्रोड्यूसर की धर्मपत्नी थी। पार्टी थी, संगीत था, खाना था, खूब पीने के बाद ऊंची-ऊंची बातें और गंदी-गंदी हरकतें थीं। फाइव स्टार बेडरूम में अमर ने कपड़े उतारते हुए पूछा और लोगी।

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हां, एक बड़ा पेग नीट। अमर ने आज्ञा का पालन किया। कोई अपराधबोध नहीं, कोई चिंता नहीं। होटल के कमरे में पूरी शान से वे जागते रहे। क्लाइंट की बातें सुन-सुनकर वह बोर हो गया और आखिर में उसने क्लाइंट को निपटाया और होटल के बाहर आकर एक सिगरेट सुलगाया।

अमर सो भी रहा था और जाग भी रहा था। आज उसके पास कोई अपाइंटमेंट भी नहीं था। सोचा कुछ मस्ती की जाए। सारा दिन घर पर पड़े-पड़े बोर हो गया था। खूब नहाया, एक पेग लिया, खूब फ्रेश हो गया और घूमने निकल पड़ा। कपड़े भी उसने बिल्कुल साधारण पहने थे। उसका खूबसूरत जिस्म ही काफी था। जिसकी कृपा से वह एक अलमस्त नौजवान लग रहा था।

बहुत लंबी शाम गुजारने के बाद भी उसकी भूख मरी नहीं थी। उसने एक साधारण रेस्टोरेंट में साधारण खाना खाया और बेफिक्री से सिगरेट का धुआं फेंकने लगा। अचानक उसके मोबाइल की घंटी बजी। उसके एजेंट का फोन था।

प्यारे तैयार रहना। मैं आ रहा हूं।

नहीं आज नहीं। आज मेरा मूड ठीक नहीं है।

मूड को मार गोली यार। तेरी परमानेंट ग्राहक है। वह कल ही आई है और आते ही तेरी फरमाइश कर दी है उसने... उसे मना करना, मेरे बस की बात नहीं है।

कुछ भी कर यार मुझे माफ कर। तेरे पास बहुत से फोन नंबर हैं।

मगर वो तो तुम पर फिदा है।

नहीं यार, आज नहीं।

अच्छा कल के लिए फिक्स कर दूं।

कल फोन कर लेना। एजेंट ने फोन बंद कर दिया। अमर फिर नर्वस सा हो गया। आज तो वह फ्री ही था, चाहता तो एंटरटेन कर सकता था, मगर पता नहीं क्यों उसका मन ही नहीं माना। बस सोचता रहा...।

अपने जीवन के संघर्ष के दिनों में जब कुछ नहीं था, मगर सुकून था, आज सबकुछ है मगर सुकून नहीं है, संतोष नहीं है, वो किसी के फोन का गुलाम है और इस गुलामी से ऊब गया था। गांव, घर, मां, बाप, सब बहुत पीछे छूट गए थे, बचा था वर्तमान... एक गलीज, घटिया कृत्रिम वर्तमान जो सुविधाओं से भरपूर था, मगर अतीत की तरह शीतल नहीं था। कभी-कभी तो कैसी-कैसी क्लाइंट आती हैं भगवान। बचना मुश्किल, सब कुछ करने के बाद भी गाली... बस असंतुष्टि। यहां तक कि मारपीट भी सब सहना क्योंकि वो उसे खरीदती थी। पिछली बार उसे अपने आप पर बहुत खीज भी आई थी। छोड़ो सबकुछ मगर छोडऩा इतना आसान था क्या? एक साथी ने छोडऩे का प्रयास किया था, दूसरे ही दिन लाश समुंदर में तैर रही थी। कहीं कुछ नहीं हुआ। सब कुछ शांति से निपट गया। क्लाइंट ने एक करोड़ में सब सुलटा दिया।

थीम पार्टी में उसे अक्सर बुलाया जाता था। उसकी तारीफों के पुल बांधे जाते थे। वाइफ स्वेपीस की तरह बायफ्रेंड स्वेपीज खेला जाता था और आवश्यकतानुसार अमर और उसके साथियों का दुरुपयोग किया जाता था। किसी पार्टी में हसबेंड स्वेपी क्यों नही खेलती ये क्लाइंटस। उसने सोचा। एक बार अमर के साथी अशोक ने कहा भी था। अब इसको छोडऩे का समय आ गया। दूसरे ही दिन वह गायब हो गया था। बाद में पता चला कि वो एक निर्वासित जीवन जीने के लिए हिमालय में कहीं चला गया था।

फिर फोन बजा। अमर ने देखा एजेंट का था।

हां, भाई आज के बारे में क्या ख्याल है।

आज का भी मूड कुछ उखड़ा-उखड़ा है।

आज डबल रेट का काम है। मुझे भी ज्यादा मिलेगा।

वो तो ठीक है यार पर मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा है।

बोल हां करता है या क्लाइंट को तेरा नंबर दूं।

नहीं, रहने दे यार।

जैसी तेरी मरजी।

एजेंट ने फोन काट दिया।

अमर सोचने लगा। वो हीरो बनने आया था। भाग्य ने कितना अन्याय किया, उसे कहां से लाकर कहा पटक दिया। उसकी महत्वाकांक्षाएं निरोध में दबकर मर गई। कंडोम जीवन का सत्य हो गया। निरंतर घृणा, निरंतर अवरोध, निरंतर उपेक्षा, निरंतर घुटन बस...घुटन।

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उसके उपर खूबसूरत रोशनियां, खूबसूरत चेहरे, मुखोटे, सेंट, इत्र, साडिय़ां, नाइटियां, अनाथ, स्त्री, नंगा नांच... बस एक कमीनेपन का अहसास था।

वह सोचता परंपराएं, मान्यताएं, संभ्रांत लोगों के लिए होती हैं मगर उसको अक्सर यह गलत लगता। उसे कामवाली बाई की परंपराएं इन उच्च जाति की बाइयों से बेहतर नजर आतीं। इनके जीवन के उतार-चढ़ाव सबकुछ बोगस, घटिया, ओछा, निकम्मा और आवारा जीवन का असली चेहरा थीम पार्टी में विचारहीन क्रांति का जलवा। वह बचपन याद करना चाहता। असफल रहता। तंग शहर, तंग लोग, तंग दिमाग, मगर मन के साफ सुथरे। मगर जीवन का सफर संतोषजनक, सारा दिन काम की तलाश फिर काम को पूरा करने की जद्दोजहद। मां का बलात्कार, बहन का अपहरण जैसी घटनाएं...अमर क्या करता, भाग कर मुंबई और धारावी की झोपड़पट्टी से इस आलीशान फ्लैट तक का सफर तय कर लिया। कार, फ्लैट, चमचमाती जिंदगी और इन सबके पीछे आंसू...आंसू।

क्लाइंट का फोन इस बार डायरेक्ट आया। उसने क्षमा मांग ली। अब उसका मन कुछ ठीक हो गया था।

क्लाइंट को मना करने पर उसे आत्मिक खुशी हुई। उसे लगा, अभी वह पूरा, मरा नहीं है, उसका स्व जिंदा है। क्लाइंट का गुलाम नहीं है वो। उसने चुपचाप कपड़े बदले। अपने आपको संवारा और बाहर घूमने निकल पड़ा। सडक़ पर कोलाहल था। वो धीरे-धीरे कोलाबा की ओर बढ़ गया। टैक्सी में बैठ-बैठे ही उसने कोलाबा की एक किशोरी से सौदा किया और कार में उसे रौंदने लगा। उसे आत्मिक खुशी हो रही थी। बाहर चांदनी छिटकी हुई थी।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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