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Yogesh Mishra Special : अरे इन ने राह न पाई
Yogesh Mishra Special : कभी संत कवि कबीर दास ने हिंदू और मुसलमान दोनों के बारे में कहा था कि 'अरे! इन दोउ ने राह न पाई।' तकरीबन छह सौ साल बाद भी दोनों को इस हिदायत की जरूरत महसूस हो रही है। इक्कीसवीं शताब्दी के कालखंड में जब स्त्री मुक्ति, स्त्री विमर्श, जैसे सवाल पीछे छूट गए हों। 'जेंडर' की असमानता गांवों तक में भी अपना अस्तित्व खो चुकी हो। फिर भी दिल्ली जैसे महानगर में किसी स्त्री को मृतक आश्रित लाभ से दिल्ली सरकार का एक महकमा इसलिए वंचित कर देता हो कि उस स्त्री ने अपने पति के मरने के बाद मृतक आश्रित देयों के भुगतान के लिए आवेदन पत्र पर आपनी जो फोटो लगाई थी, उसमें उसके माथे पर बिंदी लगी हुई थी। इसी के साथ एक दूसरी घटना भी दिल्ली सरकार के एक दूसरे महकमें में हुई, जिसमें एक दिव्यांग लड़की ने दिव्यांगता कोटे का लाभ पाने के लिए अपनी जो फोटो लगाई थी उसमें वह दिव्यांग नहीं दिख रही थी। दोनों फोटो दिल्ली सरकार के नुमाइन्दों को नहीं भाये। हालांकि दिल्ली राज्य सरकार के मंत्री ने इस गलती मानते हुए दोनों को उनका हक मुहैया कराने की बात सदन में कही।
यह सिर्फ गलती मान लेने का विषय नहीं है। यह एक ऐसी मानसिकता को बयां करता है जो परपीड़ा में सुखानुभूति करती है। जो पीढ़ियों बाद भी बदलाव के किसी चरण को अंगीकार करने को तैयार नहीं है। जो ठस है। रूढ़ है। दकियानूस है। होमियोपैथ के लिहाज से यह एक बीमारी है, जिसका इलाज नितांत जरूरी है। किसी स्त्री का जीवन आज भी केवल किसी पुरुष के लिए हो तो स्त्री के पत्नी के अलावा मां और बेटी रहने का अर्थ ही खत्म हो जाता है। उसकी ये दोनों भूमिकाएं नेपथ्य में चली जाती है। कोई भी स्त्री मां बनकर महानता का वरण कर लेती है। शायद ही कोई ऐसा बड़ा लेखक, साहित्यकार, संगीतकार, वैज्ञानिक या कोई नामचीन व्यक्ति हो जिसने अपनी मां पर कविता न लिखी हो, अपने जीवन की प्रेरणास्रोत मां को न माना हो। मां पर लिखी गई सारी की सारी कहानियां, कविताएं, ग़ज़ल और फिल्मी गीत बेहद लोकप्रिय हुए।
मां कभी विधवा नहीं होती। पत्नी विधवा होती है। ऋग्वेद में साफ लिखा है कि पति की मृत्यु के बाद कोई स्त्री विधवा बन उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे यह धर्म नहीं है। वेद में तो किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाने की बात भी कही गई है। वैधव्य वैसे ही अभिशाप है। क्योंकि सफेद कपड़े धारण करके, बिना बिंदी लगाए, बाल मुड़वा कर, हर शुभ घड़ी पर अपना चेहरा छिपाकर जीने से बेहतर मौत होती है। स्त्री के विधवा होने की परंपरा बेहद पीड़ा दायक है। औरतें ही जिस तरह उसकी चूड़ियां फोड़ती हैं, माथे का सिंदूर हटाती हैं, सिंदूरदान पति की चिता के साथ श्मशान चला जाता है। इन रूढ़ियों और कुरीतियों को तोड़ने के लिए कई समाज सुधार आंदोलन चल चुके हैं। तब भी दिल्ली जैसे शहर के लोग नहीं सुधर रहे हैं। तमिलनाडु में भी 77 साल की एक बुजुर्ग विधवा को बिंदी लगाने के लिए शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। हुकमरानों ने उसकी पेंशन महज इसलिए रोक दी क्योंकि उसने भी बिंदी लगी फोटो पेंशन पेपर पर लगी थी। उसके पति सरकारी नौकरी में थे। मतलब साफ है कि यह बीमारी आज भी पूरे देश में जीवित है।