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Yogesh Mishra Special : अरे इन ने राह न पाई

Yogesh Mishra
Published on: 14 Aug 2018 7:52 PM IST (Updated on: 9 July 2021 4:02 PM IST)
Yogesh Mishra Special : अरे इन ने राह न पाई
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Yogesh Mishra Special- अरे इन ने राह न पाई

Yogesh Mishra Special : कभी संत कवि कबीर दास ने हिंदू और मुसलमान दोनों के बारे में कहा था कि 'अरे! इन दोउ ने राह न पाई।' तकरीबन छह सौ साल बाद भी दोनों को इस हिदायत की जरूरत महसूस हो रही है। इक्कीसवीं शताब्दी के कालखंड में जब स्त्री मुक्ति, स्त्री विमर्श, जैसे सवाल पीछे छूट गए हों। 'जेंडर' की असमानता गांवों तक में भी अपना अस्तित्व खो चुकी हो। फिर भी दिल्ली जैसे महानगर में किसी स्त्री को मृतक आश्रित लाभ से दिल्ली सरकार का एक महकमा इसलिए वंचित कर देता हो कि उस स्त्री ने अपने पति के मरने के बाद मृतक आश्रित देयों के भुगतान के लिए आवेदन पत्र पर आपनी जो फोटो लगाई थी, उसमें उसके माथे पर बिंदी लगी हुई थी। इसी के साथ एक दूसरी घटना भी दिल्ली सरकार के एक दूसरे महकमें में हुई, जिसमें एक दिव्यांग लड़की ने दिव्यांगता कोटे का लाभ पाने के लिए अपनी जो फोटो लगाई थी उसमें वह दिव्यांग नहीं दिख रही थी। दोनों फोटो दिल्ली सरकार के नुमाइन्दों को नहीं भाये। हालांकि दिल्ली राज्य सरकार के मंत्री ने इस गलती मानते हुए दोनों को उनका हक मुहैया कराने की बात सदन में कही।

यह सिर्फ गलती मान लेने का विषय नहीं है। यह एक ऐसी मानसिकता को बयां करता है जो परपीड़ा में सुखानुभूति करती है। जो पीढ़ियों बाद भी बदलाव के किसी चरण को अंगीकार करने को तैयार नहीं है। जो ठस है। रूढ़ है। दकियानूस है। होमियोपैथ के लिहाज से यह एक बीमारी है, जिसका इलाज नितांत जरूरी है। किसी स्त्री का जीवन आज भी केवल किसी पुरुष के लिए हो तो स्त्री के पत्नी के अलावा मां और बेटी रहने का अर्थ ही खत्म हो जाता है। उसकी ये दोनों भूमिकाएं नेपथ्य में चली जाती है। कोई भी स्त्री मां बनकर महानता का वरण कर लेती है। शायद ही कोई ऐसा बड़ा लेखक, साहित्यकार, संगीतकार, वैज्ञानिक या कोई नामचीन व्यक्ति हो जिसने अपनी मां पर कविता न लिखी हो, अपने जीवन की प्रेरणास्रोत मां को न माना हो। मां पर लिखी गई सारी की सारी कहानियां, कविताएं, ग़ज़ल और फिल्मी गीत बेहद लोकप्रिय हुए।

मां कभी विधवा नहीं होती। पत्नी विधवा होती है। ऋग्वेद में साफ लिखा है कि पति की मृत्यु के बाद कोई स्त्री विधवा बन उसकी याद में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दे यह धर्म नहीं है। वेद में तो किसी अन्य पुरुष से विवाह करके अपना जीवन सफल बनाने की बात भी कही गई है। वैधव्य वैसे ही अभिशाप है। क्योंकि सफेद कपड़े धारण करके, बिना बिंदी लगाए, बाल मुड़वा कर, हर शुभ घड़ी पर अपना चेहरा छिपाकर जीने से बेहतर मौत होती है। स्त्री के विधवा होने की परंपरा बेहद पीड़ा दायक है। औरतें ही जिस तरह उसकी चूड़ियां फोड़ती हैं, माथे का सिंदूर हटाती हैं, सिंदूरदान पति की चिता के साथ श्मशान चला जाता है। इन रूढ़ियों और कुरीतियों को तोड़ने के लिए कई समाज सुधार आंदोलन चल चुके हैं। तब भी दिल्ली जैसे शहर के लोग नहीं सुधर रहे हैं। तमिलनाडु में भी 77 साल की एक बुजुर्ग विधवा को बिंदी लगाने के लिए शर्मिंदगी झेलनी पड़ती है। हुकमरानों ने उसकी पेंशन महज इसलिए रोक दी क्योंकि उसने भी बिंदी लगी फोटो पेंशन पेपर पर लगी थी। उसके पति सरकारी नौकरी में थे। मतलब साफ है कि यह बीमारी आज भी पूरे देश में जीवित है।

मेरे पिता जी का देहांत हुआ तो मैं इस बात को लेकर बेहद 'कांसिस' में था कि विधवा होने के पुरातनपंथी और बेहद पीड़ादायी दर्द से मां को न गुजरना पड़े। मैंने सबको हिदायत दे रखी थी कि मां समय के साथ चूड़ियां खुद उतारेगी। नहीं भी उतारेगी। कपड़े रंगीन पहनेगी। क्योंकि मां कभी विधवा नहीं होती। पिता जी के जाने के बाद वह स्त्री रह ही नहीं गई, मां हो गईं। आज हमारे गांव में यह चलन आम हो गया है। स्त्रियों को पति के नहीं रहने पर वैधव्य के पीड़ादायी प्रक्रिया से मुक्ति मिल गई है। किसी भी धार्मिक देवी को आपने कभी बिना श्रृंगार किये देखा है। हिंदू धर्म संसार में विधवा कोई देवी नहीं है। हालांकि कभी दतिया की पितांबरा पीठ में जाइये तो वहां धूमावती माता की एक मूर्ति है। जिसे सुहागिन औरतों के देखने पर पाबंदी है। मंदिर में यह कथा प्रचलित है कि यह माता की विधवा मूर्ति है। मैंने जब से यह मूर्ति देखी तब से उस मंदिर में न जाने का फैसला कर लिया। क्योंकि मां कभी विधवा नहीं होती है। हमारे पुरखे हमसे ज्यादा जहीन थे। उन्होंने जिंदगी जीने की वैज्ञानिक व्याख्या की थी। आहार-विचार की चिकित्सा विज्ञानी रूपरेखा तैयार की थी। भारतीय रीति-रिवाज से गणना-बनना देख कर की जाने वाली शादियों में नाड़ी, गुण, गण और योनि का जो मेलापक है वह दंपत्ति को सामाजिक और व्यैक्तिक जीवन में संतृप्ति प्रदान करता है।
स्त्री सिर्फ यातना के लिए नहीं बनी है। मनोरंजन के लिए नहीं बनी है। वह अपने उत्सर्ग, तपस्या और अपने कर्तव्य की बलिबेदी पर न्यौछावर होने का कोई मूल्य नहीं मांगती। क्योंकि उसकी सेवाएं अमूल्य है। लेकिन उसे रूढ़ियों, कर्मकांडों के चलते होने वाली पीड़ा से मुक्ति तो चाहिए ही। इसकी वह हकदार है। क्योंकि वह सिर्फ पत्नी ही नहीं रहती, वह बेटी बनकर पिता के ख्याल में जीती है। पत्नी बनकर पति के ख्याल में। मां बनकर बेटे के ख्याल में जीती-मरती है। इस लिहाज से देखें तो वैधव्य के कर्मकांडों, कुरीतियों और रूढ़ियों से होने वाली पीड़ा की एक तिहाई ही हकदार हो सकती है। पर हमने उसके समूचे जीवन को नर्क बना रखा है। कहा तक हमें उसके हिस्से पड़ जाने वाले एक तिहाई दर्द का समाधान खोजना चाहिए। कहां हम उसके दर्द को बढ़ाने में लगे हुए हैं। हम उसे अपनी शर्तों पर पहनने, खाने और जीने को तैयार करना चाहते हैं। जो त्रासदी है। बीमारी है। उसके संसार को रंगीन और सुंदर बनाया जाना चाहिए ताकि बाकी रोल में वह अपने परिवार तथा समाज को सुख दे सके। सुख जी सके। क्योंकि उन्हें पति के अधूरे छोड़ गए कामों को पूरा करना होता है। उनके अधूरे छूट गए सपनों में रंग भरना होता है।


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Yogesh Mishra

Yogesh Mishra

Founder & Editor in Chief - Newstrack.com & Apnabharat.org

Journalism for Yogesh Mishra is not a profession but a mission. In his career, spanning over 26 years, he has served just not as journalist but an educationist and literary as well. Looking at journalism as an instrument of change, he has also highlighted corruption and problems faced in various sectors like education, health, water, sanitation and agriculture. The exposes to his credit which deserve mention include largest tax evasion in the country by Hasan Ali and the fraud committed by 25 Indians, while he was working for the Outlook magazine as the UP Bureau Head. The amount involved was whopping Rs 18,000 crores. He was the first to report the PMO’s involvement in the ‘2G Spectrum Scam’, during the UPA regime. Another commendable work by him is exposing the Commonwealth Games Scam along with the video footage of a meeting before the beginning of the tournament. The issue of banning the video is sub judice. His news item, “Uttar Pradesh ke sau gaon bhi Nirmal Gram Pusaraskar ke layak nahi” exposed how the state government wrongly claimed prizes for 1,269 villages. It led to the cancellation of the prizes. Even UNICEF research testified and led to discontinuation of the NIRMAL GRAM AWARDS. He is, presently Member of Fee Review committee set up by the government of Uttar Pradesh to fight menace of arbitrary fee structure in private schools across the state. Many of his suggestions concerning electoral reforms have been adopted and implemented by the Election Commission of India. He was a member of the ‘Navoday Vidyalaya Samiti’, review committee constituted by Govt. of India for the implementation of Sarv Siksha Abhiyaan in UP. Besides writing in national and international newspapers and magazines, he has taken up teaching assignments and served as a visiting faculty in about a dozen universities. Author of ten books, he has also received prestigious Madhu Limaye and Yash Bharti awards. His new goal is to set up a new media house. A beginning has been already made as he has launched a multi-lingual news portal and a weekly magazine, Apna Bharat.

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