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1971 War Vijay Diwas: याह्या-टिक्का से मुक्ति मिली थी !

1971 War Vijay Diwas: ढाका पर विजय के बाद भारत को गर्व हुआ कि मोहम्मद बिन कासिम की हिन्दू राजा दाहिर पर जीत के पश्चात ढाका विजय को हजार साल बीते थे।

K Vikram Rao
Report K Vikram RaoPublished By Deepak Kumar
Published on: 16 Dec 2021 7:51 PM IST
1971 war heroes
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1971 के युद्ध नायक (फोटो- सोशल मीडिया)

1971 War Vijay Diwas: चन्द अनकही, तनिक बिसरी बातें इस्लामी (पश्चिमी) पाकिस्तान (Pakistan) की शिकस्त के बाबत। उसकी स्वर्णिम जयंती आज (16 दिसम्बर 2021) है। सदियों तक यहां हिन्दुकुश पर्वतमाला पार कर मध्येशायी बटमार इस सोने की चिड़िया को लूटते रहे। इसी जगह इस्लामाबाद अपने महल में विराजे, पराजय के तुरंत बाद, नशे में धुत मार्शल आगा मोहम्मद याह्या खान अपने लड़खड़ाये अलफाजों में रेडियो पाकिस्तान पर उस जुम्मेरात को कह रहे थे। ''जंग अभी भी हिन्दू भारत से जारी है।'' तभी उधर दो हजार किलोमीटर दूर ढाका में रेसकोर्स मैदान पर जनरल एएके नियाजी (General AAK Niazi) आत्म समर्पण कर अपना बेल्ट और बिल्ले उतार रहे थे। पराजय पर यह फौजी रीति है। युवा कप्तान निर्भय शर्मा (Young Captain Nirbhay Sharma) ने कुछ ही देर पूर्व नियाजी को सरेंडर करने का निर्देश पत्र दिया था। खेल खत्म। इस्लाम पर बना पूर्वी पाकिस्तान (East Pakistan) तब बांग्लादेश बना।

उधर, नवनामित प्रधानमंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो (Prime Minister Zulfikar Ali Bhutto) ने याह्या खान (yahya khan) को बर्खास्त कर नजरबंद कर लिया था। यही भुट्टो पिछली पराजय के समय (सितंबर 1965) मार्शल अयूब के विदेश मंत्री थे जो हजार वर्षों तक भारत के साथ युद्ध की घोषणा कर चुके थे। उन्हीं अयूब का तब दावा था कि एक मुसल्ला सिपाही दस हिन्दू - सिख सैनिकों के बराबर है। हालांकि ठीक सात साल बाद ढाका में भारतीय सैनिक तीन हजार थे, जबकि सरेंडर करने वाले पाकिस्तानी सिपाही तीस हजार। दोनों संख्या उल्टी पड़ गई।

इतिहास की कैसी विडंबना है कि जिस पश्चिमी पाकिस्तानी मार्ग से सदियों से अरब लुटेरे घुसते थे। वहीं, टूटने की कगार पर आ गया था। पाकिस्तानी पंजाब के लोगों से इतिहास प्रतिशोध ले रहा था। लगा असमय मुहर्रम आ गया।

जनरल टिक्का खान को कहा जाता है बंगाल का कसाई

त्रासदी भी रहीं। बांग्ला रमणियों के साथ इन पठानों ने क्या किया, सर्वविदित हैं। उन्हें भोगा बलपूर्वक। इसलिये जनरल टिक्का खान (General Tikka Khan) को ''बंगाल का कसाई'' कहा जाता है। ऐसा ही नरसंहार में वह बलूचिस्तान में कर चुका था। बांग्ला की लावण्यमयी पुतली कावेरी फिल्मी सितारा थी। मां काली ने उसे बचा लिया। टिक्का खान से बच निकली। कावेरी दमकती थी। तंगैल की साड़ी में और ढाके की मलमली ओढ़नी में। एक बार नवाब ढाका ने बादशाह आलमगीर औरंगजेब (Emperor Alamgir Aurangzeb) की दूसरी पुत्री राजकुमारी जेबुन्निसा के लिये मलमल की साड़ी भेजी थी। सात परत में लपेटकर जेबुन्निसा दरबार में आई तो बादशाह डांटा कि ''शर्म नहीं आयी नंगे बदन पेश होते हुए।'' इतना महीन मलमल जिसके डोरे को नाखून की छेद से निकालकर बुना जाता था।

मुसल्ला फौजियों को हराने वालों में एक भी हिन्दू नहीं

ढाका पर विजय के बाद भारत को गर्व हुआ कि मोहम्मद बिन कासिम की हिन्दू राजा दाहिर पर जीत के पश्चात ढाका विजय को हजार साल बीते थे। कल्पना कीजिये आज की रात 1971 तब कराची के मजारे कायद में गुजराती वाणिक के प्रपौत्र, पाकिस्तानी के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना पड़ा - पड़ा अपने इस्लामी महल के दो टुकड़े होते देखकर आंसू बहा रहा होगा। इस हिन्दू - मुसलमान के बीच के कलह के जनक वे थे। इससे भारत खण्डित हुआ था। धार्मिक तीव्रता की सम्यक याद आई। पाकिस्तानी सेना (Pakistani Army) में केवल पंजाबी और पश्तून योद्धा थे। जिन भारतीय से​नापतियों ने इन मुसल्ला फौजियों को हराया उनमें एक भी हिन्दू नहीं था। सरेंडर कराया सिख (जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा ने), हराया यहूदी जनरल जैक एफ.आर. जेकब ने। सेनापति था पारसी मार्शल सैम मनिकशा।

कई वर्ष बीते मई दिवस की शताब्दी बीजिंग में मनाने के बाद में दो अन्य साथियों (चित्ररंजन आलवा और के. मैथ्यू राय) को लेकर कराची रुक कर इस मजार पर मैं (1985) गया था। पर जानबूझकर अभिवादन नहीं किया। दिल नहीं किया। यहां हैदराबाद का एक मोहजिर मिला जो मेरा गाइड था। तेलंगाना छोड़कर पाकिस्तान आया। बड़ा गमजदा लगा अपनी भूल पर।

उर्दू, न कि, बांग्ला पूर्वी पाकिस्तान की होगी भाषा: जिन्ना

जिन्ना की एक और ऐतिहासिक गलती। मजहब नहीं, भाषा ही दिलों को जोड़ती है। ढाका विश्वविद्यालय (Dhaka University) में 24 मार्च 1948 पर विशेष दीक्षांत पर राष्ट्रपति जिन्ना (President Jinnah) ने कहा था कि उर्दू, न कि, बांग्ला पूर्वी पाकिस्तान की भाषा होगी और तभी बांग्लादेश की नींव पड़ गई थी जो आगे साकार हुई। याद आया जिन्ना ने कराची की संसद में यही कहा था कि ​''अनिवार्य रुप से उर्दू ही नवसृजित इस्लामी राष्ट्र की कौमी भाषा होगी।'' तब उनके एक सांसद ने पूछा कि ''कायदे आजम, आपको क्या उर्दू आती है? '' जिन्ना खोजा जाति के थे उनकी मातृभाषा गुजराती भी नहीं आती थी। उनका जवाब था कि ''मुझे इतनी उर्दू आती है कि मैं अपने खानसामा को डिनर का हुकुम दे सकू।'' उन्हें शूकर मांस से परहेज कभी नहीं रहा। उनके निजी सहायक मोहम्मद करीम छागला (बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, बाद में इंदिरागांधी काबीना में शिक्षा मंत्री रहे।) के अनुसार यह जिन्ना बड़े सेक्युलर थे। जब पाकिस्तान बना (14 अगस्त 1947) तो उस गुरुवार को जब रमजान के रोजों की अंतिम जुमेरात थी, जिन्ना ने लंच रखा था। वे रोजा कभी रखते नहीं थे (स्टेनली वाल्पोर्ट की पुस्तक ''नेहरु'' से)। तो ये है गाथा पांच दशक पहले की। जिन्ना के हाथ से ढाका छूटने की।

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Deepak Kumar

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