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47th anniversary of Emergency: फिर याद आया, वह काला दिन!
47th anniversary of Emergency: प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जीहुजूरों ने दिल्ली के कई बड़े अखबारों की बिजली कटवा दी थी और देश के जो अखबार जल्दी छपते थे, उनमें वह खबर ही नहीं छपी।
47th anniversary of Emergency: 26 जून 1975 का काला दिन आज 46 साल बाद मुझे फिर याद आया। 25 जून 1975 की मध्य रात्रि को राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद (Fakhruddin Ali Ahmed) ने आपात्काल की घोषणा पर आंख मींचकर हस्ताक्षर कर दिए। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी (Indira Gandhi) के जीहुजूरों ने दिल्ली के कई बड़े अखबारों की बिजली कटवा दी थी और देश के जो अखबार जल्दी छपते थे, उनमें वह खबर ही नहीं छपी। उस दिन मैं इंदौर में था।
मैं सुबह-सुबह मेरे घनिष्ट मित्र और आर.एस.एस. के प्रचारक कुप्प सी. सुदर्शनजी से मिलने गया। वे जवाहर मार्ग के एक अस्पताल में पांव की हड्डी का इलाज करवा रहे थे। सुबह 8 बजे जैसे ही उन्होंने अपना ट्रांजिस्टर खोला, पहली खबर थी कि देश में आपात्काल की घोषणा हो गई है। मैं तुरंत वहीं से हिंदी के तत्कालीन श्रेष्ठ अखबार 'नई दुनिया' के दफ्तर पहुंचा। मैं छोटी उम्र से ही उसमें लिखने लगा था। उस समय माना जाता था कि वह एक कांग्रेसी अखबार है। उसके मालिक लाभचंदजी छजलानी, प्रधान संपादक राहुल बारपुते और संपादक अभय छजलानी समेत सभी प्रमुख लोग दफ्तर में उपस्थित थे। मेरे सुझाव पर यह तय हुआ कि संपादकीय की जगह को खाली छोड़ देना विरोध का सर्वोत्तम उपाय है, क्योंकि आपात्काल के विरोध पर भी प्रतिबंध की घोषणा हो चुकी थी।
मैं दोपहर की रेल पकड़कर दिल्ली आ गया। मैं उस समय 'नवभारत टाइम्स' (देश के सबसे बड़े अखबार) का सह-संपादक था। संपादक श्री अक्षयकुमार जैन ने सभी पत्रकारों की सभा बुलाई और आपात्काल का विरोध नहीं करने की सख्त हिदायत दी। सभा के बाद मैंने अक्षयजी से कहा कि मैं इस्तीफा दे देता हूं। मैं सरकार की खुशामद में एक शब्द भी नहीं लिखूंगा। उन्होंने कहा कि आप विदेशी मामलों के विशेषज्ञ हैं। मैं आपसे राष्ट्रीय राजनीति पर कोई संपादकीय ही नहीं लिखवाऊंगा।
आपात्काल के विरोध में पत्रकारों की एक सभा बुलाई
दूसरे दिन प्रेस क्लब में कुलदीप नय्यर ने आपात्काल के विरोध में दिल्ली के पत्रकारों की एक सभा बुलाई। पहले उनका भाषण हुआ, दूसरा मेरा। मैंने सारे उपस्थित पत्रकारों से कहा कि वे सब आपात्काल के विरोध-पत्र पर दस्तखत करें। दो-तीन मिनिट में ही सारा हाल खाली हो गया। उन दिनों हम जो भी संपादकीय या लेख लिखते थे, उसे चपरासी के हाथों शास्त्री भवन में बैठे एक मलयाली अफसर के पास भिजवाना पड़ता था। उसकी हां होने पर ही वह छपता था।
जून 1976 में मेरे द्वारा संपादित महाग्रंथ 'हिंदी पत्रकारिताः विविध आयाम' का राष्ट्रपति भवन में विमोचन हुआ। उप-राष्ट्रपति ब.दा. जत्ती सहित कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्री और सैकड़ों पत्रकार देश भर से उपस्थित थे। लेकिन मैंने प्रधानमंत्री इंदिराजी को उसमें निमंत्रित नहीं किया था। अक्षयजी को मैंने बता दिया था कि यदि आप उन्हें निमंत्रित करेंगे तो मैं उनके साथ मंच पर नहीं बैठूंगा, हालांकि इंदिराजी मुझे खूब जानती थीं और मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान भी था लेकिन आपात्काल के दौरान मेरे पिताजी (इंदौर) में और जयप्रकाशजी, चंद्रशेखरजी, अटलजी, मोरारजी भाई और ढेरों समाजवादी और जनसंघी मित्र लोग जेल में बंद थे। आपात्काल के दौरान मधु लिमये, जार्ज फर्नाडीज़, कमलेश शुक्ल, स्वामी अग्निवेश आदि मित्रगण से जैसे-तैसे संपर्क बना हुआ था। कई समाजवादी, जनसंघी और पूर्व कांग्रेसी नेता सफदरजंग एनक्लेव के मेरे उस घर में लुक-छिपकर रहा भी करते थे। उन दिनों जहां भी मेरे भाषण हुए, मैंने आपात्काल की आलोचना की, एक बार सूचना मंत्री विद्याचरण शुक्ल की उपस्थिति में जबलपुर विश्वविद्यालय के एक समारोह में भी। अन्य कई संस्मरण फिर कभी!