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व्यंग्य: एक वरदान ऐसा भी, एक बिगड़ैलकार मतलब व्यंग्यकार

raghvendra
Published on: 9 March 2018 9:59 AM GMT
व्यंग्य: एक वरदान ऐसा भी, एक बिगड़ैलकार मतलब व्यंग्यकार
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शशि पाण्डेय

यह बात आधुनिक युग की बहुत ही नयी बात है.. एक बिगड़ैलकार मतलब व्यंग्यकार। बिगड़ैलकार इसलिये कहा क्योंकि ये ऐसा प्राणी होता है जो हर बात को बिगाड़ कर तोड़-मरोड़ कर टेढ़ी नजर से देखता है। वह मध्य आधुनिक काल से बहुत तपस्या कर रहा था। उसकी तपस्या से खुश होकर आधुनिक युग में भगवान ने खुश होकर उसको वरदान दिया मांग लो जो चाहते हो! बिगड़ैलकार बड़ा प्रसन्न और भावुक हुआ... भगवान मैं बड़ी विकट स्थिति से गुजर रहा हूं! व्यंग्य लेखन मे कोई नया विषय चाहता हूं लेकिन ऐसा बहुत कोशिशों के बावजूद नहीं कर पा रहा हूं। वहीं सदियों पुराने घिसे- पिटे को सब बिगड़ैल ठोकते- पीटते रहते हैं। भगवान यह समास्या सुन बड़े हक्के-बक्के रह गये। सोचने लगे अब क्या करूं ये मांग सुन तो उनकी सांस कई बिलांग सूख गयी।

भगवान क्या करें समझना मुश्किल। भगवान ने दिमाग को बहुत मथ, मंथन स्वरूप कोई युक्ति निष्कर्ष में नही निकली। नये विषय को निकालना उनके ज्ञान की पराकाष्ठा थी। भगवान ने कहा हे बिगडै़लकार सुनो वत्स! नदियां उल्टी बह सकती हैं! पहाड आसमान में जुड़ सकता है! समुद्र सूख सकता है! कुत्ते की दुम सीधी हो सकती है! कांग्रेस के उत्तराधिकारी को अक्ल आ सकती है! साहेब की बड़बोली बंद हो सकती है लेकिन भारत में लेखन में नया विषय मिलना बड़ा ही नामुमकिन है।

‘कमठ पीठ जामहिं बरु बारा। बंध्या सुत बरु काहुहि मारा॥

फूलहिं नभ बरु बहुबिधि फूला। जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला॥’

(कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बाँझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेकों प्रकार के फूल खिल उठें, परंतु श्री हरि से विमुख होकर जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता) ठीक इसी तरह देश में आजादी के पहले से जो विषय चले आ रहे हैं और अनवरत चिरकाल तक चलते रहेंगे। क्योंकि समस्याएं और निवारण जस के तस। कुछ चीजें देश में कुत्ते की दुम सरीखी हैं। कुछ नया हो तो विषय नये हों।

कुछ प्रियजन तो चाहते ही नहीं कि नही देश में नयी समस्याएं जनम लें। वे संस्कारी लोग हैं। जो समास्याएं हमारे संस्कारों में हैं , जो उनकी और हमारी पीढिय़ों ने झेला और खेला वह उन समास्याओं की जड़ तक पहुंच कर उनका वध कैसे कर दें। आखिर परम्परा नाम की भी कोई चीज होती है। समस्याओं का खात्मा करने से ज्यादा मेहनत और मशक्कत उन समस्याओं को यथावत बनाए रखने के लिये करनी पड़ती है। कभी - कभी तो चिंगारी लगा कर कोयला डालने से लेकर हवा तक झालनी पड़ती है। यह किसी को क्या पता। ये तो वो समस्याओं को जीवित रखने वाले जानते हैं या तो वो जो समस्कयाओं से दो चार होते हैं। स्वामी विवेकानंद के देश में रहने वालों को थोड़ी दार्शनिकता तो सीख ही लेनी चाहिये समस्याओं से दो -दो हांथ कर फारिग हो जायेंगे या ‘ जेहि विधि राखे राम ...रहिये।’

समस्याओं के इसी अखंड बोध को बनाए रखने के परम धर्म के साथ समस्याओं को जीवित रखना ही होगा। यहां देश में तो पुरानी समस्याओं को मतलब पुराने विषयों को ही संभालना मुश्किल है। नयो की कौन सोचे! लेकिन कुछ फितूरबाज लेखकों को कौन समझाए कि नये विषयों पर हांथ-पांव न साने। मुझे तो लगता है नये प्रोडक्ट को यानी नये विषय पर ट्राई करने का खतरा मोल नही लेना ही सही रहेगा।

‘जीवन जन्म सफल मम भयऊ। तव प्रसाद संसय सब गयऊ॥’

(मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया। आपकी कृपा से संदेह चला गया) पुराने समस्या जनित लेखों पर नि:संदेह जमे रहने में ही भलाई है।

raghvendra

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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