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बलबीर पाशा: एक दुराशा, एड्स विरोधी प्रचार अभियानों में कंडोम पर ज़ोर दिये जाने की असलियत
AIDS Campaigns: बीबीसी विश्वसेवा की परोपकारी शाखा और मुंबई की एक प्रबुद्ध स्वयंसेवी संस्था ने इसी तरह का एक सवाल उठाया है।
AIDS Campaigns: देश-विदेश की परोपकारी संस्थाएं भारतीय समाज की समस्याओं के समाधान के लिए गाहे-बगाहे कुछ महत्वपूर्ण सवाल उठाती आई हैं। बीबीसी विश्वसेवा की परोपकारी शाखा और मुंबई की एक प्रबुद्ध स्वयंसेवी संस्था ने इसी तरह का एक सवाल उठाया है। बलबीर पाशा को एड्स होगा क्या? एड्स को रोकथाम के इस्तेमाल पर जोर देने वाले इस जोरदार विज्ञापन अभियान पर जो बवाल मचा उससे संबद्ध देसी विदेशी विशेषज्ञ और हमारा अंग्रेजी मीडिया हैरान हुआ। एक दैनिक ने तो 'सेक्स के नाम से ही बिदकने वाले 'अतिनैतिकतावादी नेताओं पर फालतू सा स्त्रीवाद झाड़ने वाली महिलाओं पर अपने संपादकीय में कसकर व्यंग्य किया है।
मैंने टीवी पर इस अभियान का कुल एक ही विज्ञापन देखा, जो अपनी भाषा और तेवर से मुझे अपने मित्र जगदंबा प्रसाद दीक्षित के उपन्यास 'मुर्दाघर' की याद दिला गया। पलंग पर बैठी जूड़ा ठीक करती वेश्या बगल में पसरे ग्राहक से यह पूछती नजर आई कि जब बलबीर पाशा बस अपनी रैगुलर के साथ ही बैठता है तब उसे एड्स का खतरा कैसे हो सकता है ?
संदेश यह है कि जिस वेश्या के साथ बलबीर पाशा नियमित सहवास कर रहा है, वह तो दूसरों के साथ भी सहवास करती है, इसलिए बिना कंडोम के एड्स का खतरा जरूर है। मेरी आधुनिकता को यह स्वीकार करते हुए बड़ी शर्म आ रही है कि मुझे भी यह विज्ञापन आपतिजनक और उससे भी ज्यादा निरर्थक लगा।
पहली आपत्ति तो यही है कि एड्स जैसे भयानक रोग के संदर्भ में ऐसा चटक मटक वाला विज्ञापन क्यों ? दूसरी यह कि बलबीर पाशा की जो रेगुलर अन्य ग्राहकों के साथ भी बैठती है उसकी मजबूरी के प्रति जरा भी करुणाभाव क्यों नहीं ? और तीसरी यह कि क्या इसमें और इसी अभियान के एक अन्य विज्ञापन में जिसमें सुनता हूँ पिता जी पुत्र जी को नेक सलाह देते हैं कि हमेशा कंडोम इस्तेमाल किया करें।
यह निहित नहीं है कि स्त्रियाँ एडस फैलाती हैं। इससे उलट विज्ञापन क्यों नहीं ? जिनमें स्त्रियों को सलाह दी गई हो कि अपने चाहने वालों से कहो कंडोम धारण करके आयें। क्योंकि आप मर्दों का भरोसा नहीं, कहां-कहां मुंह मारते हों ?
मुझे इस पर भी आपत्ति है कि जहां इन विशेषज्ञों ने वेश्यावृत्ति और बहुत से लोगों से यौन संबंध रखने की प्रवृत्ति को एड्स फैलने का एक बहुत बड़ा कारण माना और इसलिए कंडोम के इस्तेमाल पर जोर दिया वहीं इस वृत्ति प्रवृत्ति की रोकथाम का मुद्दा उठाया ही नहीं।
बलबीर पाशा से कभी कहा ही नहीं कि भाई मेरे कोठेवाली के साथ बैठेगा तो एड्स की मुसीबत मोल ले बैठेगा। पिताजी से पुत्रजी को यह सलाह क्यों नहीं दिलाई कि बेटे शादी कर और घरवाली के साथ सुखी रह।
शायद इसके उत्तर में वे यह कहना चाहेंगे कि हम यर्थाथवादी हैं, हम आधुनिक हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया जाना गलत समझते हैं। दूसरे शब्दों में यह कि न अनादिकाल से चली आई वेश्यावृत्ति रोकी जा सकती है और न बहुतसे लोगों से यौन संबंध रखने को आधुनिक प्रवृत्ति।
व्यक्ति स्वतंत्रता आधुनिकता की पहली शर्त है और किसी को भी यह अधिकार नहीं कि दूसरों पर अपने नैतिक प्रतिमान थोपे । प्रत्युत्तर में पोंगापंथी बिरादरी भी यथार्थवादी होने के नाते पहले तो यह निवेदन कर सकती है कि अगर इस वृत्ति प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता तो केवल कंडोम का प्रचार करके एड्स पर भी रोक नहीं लगाई जा सकती।
क्योंकि गरीब देशों में कंडोमों की कमी है, कंडोम सर्वथा अचूक नहीं है और व्यक्ति स्वतंत्रता के अंतर्गत आप किसी पर कांडोम थोप भी नहीं सकते हैं। वह यह भी पूछ सकती है कि क्या अनैतिकता या नीति-निरपेक्षता को आधुनिकता की अनिवार्य शर्त बताना, बेलगाम लोभ और भोग को जीवनमूल्य बनाने वाली मुक्त मंडी की चाल नहीं है?
मीडिया की समझ रखने वाले मेरे एक मित्र इस बात से हैरान हैं कि बलबीर पाशा के हितचिंतक यह क्यों नहीं समझ पाए कि इस विज्ञापन अभियान पर बलवीर पाशा के देश में बवाल मच सकता है।
कोई भी विज्ञापन अभियान शुरू करने से पहले उन लोगों का सांस्कृतिक-सामाजिक अध्ययन किया जाता है जिन्हें संबोधित किया जाना हो। बीबीसी वालों को देसी विशेषज्ञ क्यों नहीं बता पाए कि हमारा समाज 'दकियानूसी' है। मैंने उन्हें बताया कि इन मामलों में अक्सर देसी विशेषज्ञ विदेशी विशेषज्ञों की हां में हां मिलाते हैं।
कुछ इसलिए कि पैसा उन्हीं के हाथ में होता है और उनकी कृपा से आईदा देश-विदेश में काम मिलता रह सकता है और कुछ इसलिए कि वे भी उनकी तरह पूरी तरह पश्चिम के रंग में रंगे हुए होते हैं।
मुझे याद है कि आज से 25 साल पहले पेरिस में यूनेस्को के परोपकारी विशेषज्ञों ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण सवाल यह उछाला कि भारतीय गाँवों के बच्चों के दांतों की सुरक्षा कैसे की जाए? उन्होंने तय पाया कि इसके बारे में टीवी पर फिल्में दिखाई जाएं।
दांतों की सुरक्षा का संकेत कैसे दिया जाये, इस बारे में अपने दिशा-निर्देशों से लैस एक विदेशी फिल्मकार उन्होंने 10 मिनट की फिल्म बनाने के लिए साल भर के लिए भारत भेजा। विभिन्न मंत्रालयों के देसी विशेषज्ञ उस विदेशी विशेषज्ञ की सेवा में जा पहुंचे।
उन्होंने उसे पहले भारतीय गाँव दिखाये उसमें पटकथा लेखक यानी मुझसे कहा कि कटपुतली का खेल और दांतों से गन्ना छीलती लड़की का बिंब में मैं इस फ़िल्म में अवश्य लेना चाहता हूं । तो मैंने कठपुतली का खेल केंद्र में रखकर पटकथा लिख दी।
देसी विशेषज्ञों ने उस पर यह आपत्ति की कि आपने न यूनेस्को के इस दिशा-निर्देश पर ध्यान दिया है कि बच्चों को मिठाइयां ज्यादा न खाने को सीख दी जाए और न दात ब्रश करने का सही तरीका दर्शाया है। आपने तो दातुन को बात कर दी है।
यही नहीं, फिल्म में बिंबों और भाव-भंगिमाओं से बात प्रेषित की जाती है जबकि आपको पटकथा में बक-बक ही है। मैं यह कहकर चला आया कि जब यूनेस्को हमारे देहाती बच्चों के लिए बड़े पैमाने पर चॉकलेट और टूथपेस्ट- ब्रश भिजवा दे और कठपुतलियां भाव-भंगिमाएं प्रेषित करने लगे तब आप मुझे बुला लीजिएगा।
(मूल रूप से 07 April,2003 को आउटलुक में प्रकाशित ।)