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'आधार' कहीं आधार, कहीं निराधार

Manali Rastogi
Published on: 30 Sept 2018 9:12 AM IST
आधार कहीं आधार, कहीं निराधार
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ऋतुपर्ण दवे ऋतुपर्ण दवे

अब 'आधार' कानूनों में उलझनों की लड़ाई जीतकर संवैधानिक हो गया है। यकीनन निगरानी और निजता को लेकर खूब सुर्खियों में था, आगे भी रहेगा। सच यही है कि 'आधार' प्रक्रिया में अपनाई जाने वाली वैज्ञानिक तकनीक से देश की ज्यादातर आबादी इतने बड़े फैसले के बाद भी बिल्कुल बेखबर है।

इसी 26 सितंबर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के आए ऐतिहासिक फैसले ने इसकी संवैधानिकता पर मुहर तो जरूर लगा दी, लेकिन हकीकत यह है कि अब 'आधार' कार्ड कई मायनों में एक पहचानपत्र बनकर रह गया है। पांच जजों- प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस ए.के. सीकरी, जस्टिस ए.एम. खानविलकर, जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस अशोक भूषण की संविधान पीठ ने सुनवाई की। इस पूरे मामले कुल 38 सुनवाई हुई जो इसी साल 17 जनवरी से शुरू हुई थी।

इसमें जस्टिस चंद्रचूड़ की टिप्पणी "आधार ने इंसान की बहुतलावदी पहचान को नकार दिया और उसे केवल 12 अंकों में सीमित कर दिया" बेहद तल्ख थी। देश की सुप्रीम अदालत ने यह भी आदेश दिया कि 'आधार' कहां जरूरी है और कहां नहीं। जहां स्कूलों में दाखिले के लिए 'आधार' की अनिवार्य जरूरी नहीं है, वहीं कोई भी मोबाइल कंपनी 'आधार' कार्ड की मांग नहीं कर सकती है।

जस्टिस सीकरी ने कहा कि 'आधार' कार्ड की डुप्लिकेसी संभव नहीं है और इससे गरीबों को ताकत मिली है। वहीं फैसले में कहा गया- 'शिक्षा हमें अंगूठे से दस्तखत पर लाती है और तकनीक हमें वापस अंगूठे के निशान पर ले जा रही है।'

इस फैसले के निश्चित रूप से राजनीति पार्टियां अपने-अपने मायने और नफा-नुकसान निकालेंगी, लेकिन 'आधार' को लेकर उलझनें और भ्रम जरूर छंटेगा। अब इस पर सियासी दंगल थमेगा या नया मोड़ लेगा, यह आगे दिखना होगा।

'आधार' की वैधता को 2012 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले कर्नाटक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस के.एस. पुट्टास्वामी थे। वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार में इसे जब लांच किया तो उन्होंने ही इसे निजता का हनन बताकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। वह अब 92 साल के हैं, जिन्होंने निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई लड़ी। बाद में कई और जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुई और सभी को एक साथ जोड़कर सुनवाई चली।

'आधार' को लेकर कई रोचक आरोप-प्रत्यारोप भी चले। बात निजता के हनन से इसके डेटा लीक और चुनावों में उपयोग तक पहुंची। अमेरिका के चुनावों में फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका विवाद जैसी घटनाओं की संभावनाएं 'आधार' में तलाशे जाने लगीं।

संभवत: फैसले के बाद 'आधार' संवैधानिकता पर सवाल भी नहीं उठेंगे और जहां मोबाइल सिम लेने, स्कूल में बच्चों के एडमीशन, मोबाइल वॉलेट में केवाइसी, बैंक में खाता खोलने, सीबीएसई, यूजीसी और नीट जैसी परीक्षाओं में, म्युचल फंड और शेयर मार्केट में केवाइसी के लिए जरूरी नहीं होगा, वहीं 14 साल से कम उम्र के बच्चों का 'आधार' नहीं होने पर उन्हें सरकारी योजनाओं से वंचित नहीं किया जा सकेगा।

लेकिन पैन कार्ड बनवाने में 'आधार' कार्ड जरूरी होगा, क्योंकि इसमें लिंक कराने से वित्तीय स्थितियों के लाभ के लिए यह उपयोगी होगा। आयकर रिटर्न्‍स दाखिल करने के लिए भी 'आधार' का पैन से लिंक होना जरूरी है। सरकारी लाभकारी योजनाओं में 'आधार' का लिंक होना जरूरी है और सब्सीडी आधारित योजनाओं में भी इसे जरूरी बनाया गया है।

'आधार' एक्ट के सेक्शन 57 को रद्द कर दिया गया है, क्योंकि यह प्राइवेट कंपनियों के साथ डेटा साझा करने की इजाजत देता था। जहां 5 जजों की बेंच ने माना कि 'आधार' संवैधानिक रूप से वैध है। कोर्ट के फैसले का मतलब है कि टेलीकॉम कंपनियां, ई-कॉमर्स कंपनियां, प्राइवेट बैंक और दूसरी ऐसी कंपनियां सर्विसेज के लिए ग्राहकों से बायोमैट्रिक और दूसरे डेटा नहीं मांग सकेंगी।

हालाकि केंद्र ने 'आधार' योजना का बचाव किया था कि जिनके पास 'आधार' नहीं है उन्हें किसी भी लाभ से बाहर नहीं रखा जाएगा। 'आधार' सुरक्षा के उल्लंघन के आरोपों पर केंद्र ने कहा था कि डेटा सुरक्षित है और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। केंद्र ने यह भी तर्क रखा कि 'आधार' समाज के कमजोर और हाशिए वाले वर्गों के अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें बिचौलियों के बिना लाभ मिलते हैं और 'आधार' ने सरकार के राजकोष में 55000 करोड़ रुपये बचाए हैं।

लेकिन इसमें कितने ऐसे लोग होंगे जो 'आधार' के बिना योजना का लाभ लेने से वंचित रह गए होंगे या फिर 'आधार' सत्यापन मशीनें उनके हाथ के निशानों को नहीं पढ़ पा रही होंगी? वहीं अब भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और 'आधार' को चुनौती देने वालों का यह भी आरोप है कि 'आधार' के बिना राजस्थान, झारखंड और अन्य जगहों पर कई लोगों की योजनाओं का लाभ न ले पाने से मृत्यु हुई है, इसके डेटा कहां हैं?

'आधार' को लेकर जाने-माने बुद्धिजीवी और बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का हालिया विश्लेषण चर्चाओं में रहा, जिसमें उन्होंने कहा था कि सूचना का अधिकार कानून ने जनता को सरकार के हर कदम पर निगरानी रखने का अधिकार और जरिया दे दिया है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि 'आधार' कानून के जरिए सरकार हर नागरिक पर निगरानी की व्यवस्था बना दे। अब सब कुछ साफ है लेकिन 'आधार' कहीं 'आधार' तो कहीं निराधार जरूर हो गया।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

--आईएएनएस



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Manali Rastogi

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